'महाजनी खाते' से निकली किसानों की फर्जी लाटरी बनाम 'जीरो बजट खेती'

जीरो बजट खेती, नाम में ही खोट है। 10,000 और किसान उत्पादक संगठन बनाने की घोषणा, जबकि पहले के किसान उत्पादक संगठन बदहाल पड़े हैं। कैसे होगी किसानों की आय 2022 में दोगुनी? यक्ष प्रश्न।

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
महाजनी खाते से निकली किसानों की फर्जी लाटरी बनाम जीरो बजट खेती

डॉ राजाराम त्रिपाठी

लखनऊ। शुक्रवार को भारत सरकार की ओर से वित्त मंत्री ने देश का बजट 2019 पेश किया। एक नई परंपरा की शुरुआत करते हुए हमारे देश के श्रेष्ठजनों की ( सेठ साहूकारों की) परंपरगत महाजनी पद्धति को अपनाते हुए लाल मखमली कपड़े में लिपटे हुए बही खाते के रूप में देश का बजट संसद में पेश किया।

बजट दरअसल 'बुजेट' अथवा 'बुझेट' ( फ्रेंच शब्द) 'चमड़े का वह प्रसिद्ध थैला' था जिसमें भरकर सन् 1733 में तत्कालीन ब्रिटिश वित्त मंत्री रॉबर्ट वालपोन ने ब्रिटिश संसद में देश के वार्षिक आय-व्यय का लेखा-जोखा वाले कागजात लेकर आए थे और संसद के उत्सुक सांसद चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे थे, वह 'बुजेट' (चमड़े का थैला खोलो), बुजेट खोलो और आय-व्यय का लेखा-जोखा संसद को बताओ...।

हालांकि इसके बाद, पिछले 286 सालों में इस बुजेट में कई रूप तथा रंग बदले, हमारी संसद में यह बुजेट, बजट हो गया तथा ब्रीफकेस के रूप में अलग-अलग रूप-रंगों में अलग-अलग वित्त मंत्रियों ने पेश किया। कल जब नवगठित सरकार की दूसरी पारी की नई तेज तर्रार वित्त मंत्री संसद में बजट पेश करने आईं तो संसद के सांसदो में बजट को लेकर कितनी उत्सुकता थी यह तो नहीं पता, मगर बजट को लेकर देश के पढ़े लिखे किसानों की उत्सुकता किसी भी रूप में 1733 के ब्रिटिश संसद के उन सांसदों से किसी भी रूप में कम नहीं थी।

इसे भी पढ़ें-Budget 2019: किसानों के सबसे बड़े मुद्दों पर बात ही नहीं हुई

डॉ राजाराम त्रिपाठी

इस देश के किसानों को जबरदस्त उम्मीदें थी कि इस लाल मखमली कपड़े में लिपटे महाजनी बही खातों में से सबसे ज्यादा सौगातें तथा मदद उनके लिए ही निकलने वाली हैं। पर अफसोस इस बजट में किसानों के लिए "जीरो बजट" की जो अवधारणा निकली उसने इस बजट को फिर से अ-बुझेट अर्थात अबूझ पहेली बना दिया। अब किसान यह सोचने को मजबूर हो गए हैं कि महाजनी खातों से किसानों का कभी भला नहीं हुआ, सदियों से किसानों का उत्पादन की आय उनके परिवारों के बचे-खुचे गहनें उनकी जमीनें, सब इन महाजनी खातों के अंतहीन पेट में समाती रही हैं और अब आगे भी यही होगा। क्‍या यही किसान की नियति है?

अब आते हैं इस जीरो बजट खेती की मूल अवधारणा पर। पिछले साल 29 दिसंबर 2018 की सुबह की बात है, जिसे स्वदेशी महासंघ के अध्यक्ष कंचन कोतवाल जी ने जीरो बजट खेती के बारे में मेरे घर पर ही साक्षात्कार रिकॉर्ड किया था, तथा बाद में इसे यूट्यूब पर डाला, उस वक्त हमारे साथ हरियाणा के एक प्रगतिशील किसान नेता अजीत सिंह आर्य तथा महाराष्ट्र के रुचि एग्रो के भाई महेंद्र ठाकुर भी साथ में थे।

उन दिनों "जीरो बजट" खेती का प्रचार प्रसार कई राज्यों में सरकार के सहयोग से जोर-शोर पर था। मैंने उसी वक्त सरकार की मंशा पर शंका व्यक्त करते हुए कहा, कि हम सभी किसानों की बड़ी पुरानी मांग है, कि स्वामीनाथन कमेटी की अनुशंसाओं के अनुरूप खेती के सभी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष खर्चों को जोड़कर हमें वास्तविक रूप से हमारे उत्पादों का कम से कम डेढ़ गुना ज्यादा मूल्य दिलाया जाए।

इसे भी पढ़ें-कृषि विशेषज्ञों ने बजट को बताया निराशाजनक

इन वाजिब खर्चों को फसल लागत में न जोड़ने के लिए सरकार तरह-तरह की अर्थशास्त्रीय, गणितीय कलाबाजियां व चालबाजी कर रही है। जिससे कि किसानों की फसल लागत को वास्तविकता से कम से कम दिखा कर, अपने न्यूनतम समर्थन मूल्य को तर्कसंगत ठहराया जाए तथा यह भी साबित किया जाए कि सरकार किसानों को उनकी लागत का डेढ़ गुना मूल्य दिलवा रही है और किसानों को दिया गया वादा पूरा कर रही है।

दरअसल "जीरो बजट" खेती भ्रामक है, जो किसानों को निरुत्तर करने के लिए सरकार के पास के एक बढ़िया मौका मिल गया है। अरे भाई किसान, जब आप की खेती की लागत ही जीरो है, जब आप की समूची खेती ही "जीरो बजट" की है तो फिर जो कुछ भी उत्पादन का मूल्य आपको मिल रहा है वह सब का सब फायदा ही फायदा तो है, चाहे फिर इसे आप डेढ़ गुना मान लें, चाहे दोगुना, चाहे 100 गुना। क्योंकि फसल की लागत तो भाई साहब आपकी जीरो है।

इसे भी पढ़ें-देश की मिट्टी में रचे बसे देसी बीज ही बचाएंगे खेती, बढ़ाएंगे किसान की आमदनी

हमारे महाराष्ट्र के एक युवा किसान साथी हैं, उनके यहां भी इस जीरो बजट खेती का बड़ा प्रकोप हुआ था। उन्होंने जीरो बजट खेती की एक नई परिभाषा दी, उन्‍होंने बताया कि खेती में अगर खर्चा 100 रुपए हो और कुल आमदनी भी 100 रुपए ही हो तो इसे जीरो बजट खेती कहेंगे, क्योकि किसान के हाथ में भी जीरो ही आएगा।

सचमुच गजब गफलत है इस अर्थ प्रधान युग में, पूरी दुनिया में, बिना पैसे के कुछ भी नहीं होता है, जहां हर सरकारी परियोजना (राज्य व केंद्र) का बजट हर साल 10% से 20% की दर से बढ़ता जा रहा है। कर्मचारियों की तनख्वाह ही बढ़ती जा रही है, बाजार में महंगाई बढ़ती जा रही है, साथ ही साथ महंगाई भत्ता भी बढ़ते जा रहा है। वहां यह सरकार, खेती और किसानों के लिए अब "जीरो बजट" ढूंढ रही है। अंततः हुआ वही जिसका हमें डर था, जीरो बजट खेती राजनीतिक जुमला बन गई और सरकार इस पर अपना खेल कर गई।

यहां मैं यह पूरी विनम्रता के साथ निवेदन करना चाहूंगा कि मैं तो अभी भी अपने आपको प्राकृतिक खेती की पाठशाला का एक अदना सा जिज्ञासु छात्र मात्र मानता हूं। अतएव आदरणीय सुभाष पालेकर जी की खेती की पद्धति अथवा किसी भी अन्य आदरणीय की जैविक कृषि पद्धतियों को लेकर मैं कोई टीका टिप्पणी करने योग्य मैं स्वंय को नहीं पाता। जहां तक जैविक खेती को लेकर सरकारों के रवैए की बात है, तो जैविक खेती को लेकर सरकार की कोई नीति आज तक समझ में नहीं आई हैं।

इसे भी पढ़ें-Budget 2019: जानिए कहां-कहां ढीली होगी आपकी जेब?

खेती किसानी के मुद्दों तथा किसानों की समस्याओं को लेकर कुछ अपवादों को छोड़कर देश के अधिकांश लेखकों, चिंतकों एवं मीडिया का रवैया भी उपेक्षात्मक ही रहा है। सरकार से भी निवेदन है कि वह "जीरो बजट" जैसी अव्यवहारिक, कोरी अवधारणाओं में ना उलझे तथा ठोस दीर्घकालिक नीतियां और भरपूर बजट ( न कि "जीरो बजट" ) लेकर खेती तथा किसानी में आमूलचूल परिवर्तन करने के लिए आगे आएं। इस कार्य में देश के किसान अपनी जिम्मेदारी भली-भांति समझते हैं, सरकार के साथ कंधे से कंधा मिलाते हुए पूरी मजबूती के साथ खड़े हैं।

इसके अलावा 10000 और किसान उत्पादक संगठन बनाने की बात कही गई है, यहां लाख टके का सवाल यह है कि विगत वर्षों में जो किसान उत्पादक संगठन बने थे। उनमें से अधिकांश बदहाल पड़े हैं, फिर इन नये दस हजार और संगठनों के लिए क्या ठोस योजना है? प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की खामियों को कैसे दूर किया जाएगा, यह भी देखने वाली बात है। इन हालातों में 2022 तक किसानों की आय कैसे दुगुनी होगी, यह यक्ष प्रश्न है।

(डॉ राजाराम त्रिपाठी, राष्ट्रीय समन्वयक अखिल भारतीय किसान महासंघ आइफा,कोंडागांव बस्तर छत्तीसगढ़)


   

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.