दिसम्बर, निर्भया और रोज का डर

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दिसम्बर, निर्भया  और रोज का डरगाँव कनेक्शन

एक खबर 28 दिन की बच्ची का बलात्कार। दूसरी खबर चार साल की बच्ची की बलात्कार के बाद हत्या। तीसरी खबर एक तेरह साल की माँ...।

ये विगत दिनों की वो सुर्खियां है जो हमारा दिल दहला गयीं हैं, वैसी ख़बरें जिनसे हम शायद रोज रूबरू होते हैं लेकिन कुछ कर नहीं पाते हैं सिवाय शोक मनाने के।

16 दिसंबर को निर्भया पर हुए अत्याचारों को पूरे तीन साल हो गए। 2012 की उस काली सर्द रात को न सिर्फ निर्भया एक आदिमयुगीन अपराध का शिकार हुई थी बल्कि हमारी सोच पर भी गहरा आघात लगा था। 

जहां एक तरफ ज़्यादा से ज़्यादा लोग इस पाशविक घटना का विरोध कर रहे थे वहीं पर कुछ आवाज़ें थोड़ी अजीब भी थी, ये आवाज़ें स्त्रियों की पहनने, ओढऩे, बाहर निकलने, और स्वछन्द जीवन जीने की इच्छा को इस घटना का मूल कारण बता रहे थे। लगभग ऐसा ही कुछ निर्भया के सजायाफ्ता अपराधियों ने भी कहा, बीबीसी संवाददाता लेस्ली उडवीन की डॉक्यूमेंट्री 'इंडियाज डॉटर' में बड़ी बेशर्मी से ये अपराधी लड़कियों को परदे में रखने की बात करते हुए अपने कृत्य को सही बताते हैं, उनकी मानसिकता पर अचरज नहीं होता, हम चौंकते तब हैं जब समाज के मुख्यधारा के लोग बिलकुल वैसी ही जुबां बोलते हैं।

इन सब लोगों के लिए ऊपर की खबरें एक सवाल है, 28 दिन की उस बच्ची का खाने, पहनने और ओढऩे से क्या लेना देना था, चार साल की बच्ची तो अपनी गुडिया की शादी भी नहीं करवाना जानती थी और 13 साल की बच्ची के सिलसिले में गुनाहगार कोई जानने वाला था।

यहां अगर हम नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों की दुहाई दें तो लगभग 92 स्त्रियां हर दिन हमारे देश में बलात्कार का शिकार होती हैं और इसमें से 90 फीसदी से अधिक मामले वो होते हैं जब किसी जानने वाले ने उन लड़कियों, औरतों, बच्चियों के शरीर और मन-मस्तिष्क पर आघात किया हुआ होता है।

इसी सिलसिले में एक और खबर का जि़क्र करना बहुत ज़रूरी हो जाता है, ये एक बच्ची की हड्डियों को भेद देने वाली दास्तां थी उस बच्ची ने अपने पिता की वहशियत की कहानी कहते हुए कहा था कि उसके पिता ने न सिर्फ उसकी बड़ी बहन के साथ बलात्कार किया बल्कि उसके पश्चात उस मानसिक रोगी की नज़र अपनी छोटी पुत्री पर थी। मानसिक रोगी शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया गया है कि इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि इनके हाथों पीडि़त होने वाला कोई शिशु है या वयस्क, ये हर उस जगह अपनी गंदगी फैलाना चाहते हैं जहाँ भी इनका जोर चल पड़ता है।

इस स्थिति में बहुत ज़रूरी है कि हम कारण लड़कियों में न ढूंढ कर, उनकी स्वछंदता को दीवारों में न समेट कर, वास्तविकता के साथ स्वर मिलाएं क्योंकि शिकार हर बार सिर्फ लड़कियां ही नहीं होती।

 

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