अपनी पहचान और लब्बो लहजा खोता जा रहा है शहर-ए-तहजीब 

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अपनी पहचान और लब्बो लहजा खोता जा रहा है शहर-ए-तहजीब अपनी तहजीब, मिजाज और जबान के लिये मशहूर नवाबों का शहर धीरे-धीरे यह पहचान खोता जा रहा है।

लखनऊ (भाषा)। अपनी तहजीब, मिजाज और जबान के लिये मशहूर नवाबों का शहर धीरे-धीरे यह पहचान खोता जा रहा है, जिसके लिये शहर की नामचीन हस्तियां सियासती माहौल और नई पीढ़ी के उदासीन रवैये को दोषी मानती हैं और उनका कहना है कि अगर यही आलम रहा तो लखनवी तहजीब इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जायेगी।

नवाबों के शहर में नवाबों के वंशज नवाब मीर जफर अब्दुल्ला ने कहा, ‘‘लखनऊ अपनी गंगा जमुनी तहजीब, तमद्दुन, मिजाज, खादारी, मेहमानवाजी, लिबास, तसलीमात, नफासत और नजाकत के लिये जाना जाता रहा है, लेकिन धीरे धीरे इसकी पहचान मिटने लगी। पहले अंग्रेजों ने और आजादी के बाद इसके सियासत का केंद्र बनने से बड़ी संख्या में आ बसे नेताओं और उनके चेलों ने इसकी आबो हवा खराब की।''

वहीं महात्मा गांधी के करीबी और खिलाफत आंदोलन में अगुआ रहे फिरंगी महल के विद्वान मौलाना अब्दुल बारी के वंशज अदनान अब्दुल वली का कहना है कि नई पीढ़ी के लिये लखनऊ के मायने चिकनकारी के लिबास और टुंडे के कबाब हो गए हैं, जबकि लखनवी जबान से वे दूर होते चले गए हैं। उन्होंने कहा, ‘‘इसमें कोई शक नहीं कि लखनवी तहजीब खत्म होती चली गई और हिन्दुस्तानी लब्बो लहजा भी अब नहीं रहा। बाजार से बाहर की जबान यहां आई और वही चल रही है। नई पीढ़ी को पता ही नहीं है कि लखनऊ क्या है। सिर्फ अंगरखा या दुपल्ली टोपी पहनने से लखनवी नहीं हो जाते, इसके साथ यहां की जबान जरुरी है जो अब गायब हो रही है।''

नवाब मीर जफर अब्दुल्ला ने कहा कि हुनरमंदों को पनाह नहीं मिलने से यहां की कला और संस्कृति लुप्त होने लगी और परिवारों के आकार सिमटने से शहर की दास्तानें पुरानी से नई पीढ़ी तक पहुंच नहीं पा रही हैं।

     

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