एक वापसी ऐसी भी

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एक वापसी ऐसी भीगूँज, goonj

रास्ते पर किसी को कुछ मांगता देख अकसर लोग उन्हें कहते हैं कि ''कुछ काम क्यों नहीं करते?" कभी सोचा है ये लोग कहां से आए हैं-अनपढ़, अकुशल, संसाधन विहीन शायद कोई अपने बाढ़ प्रभावित गाँव को छोड़कर आया हो या पानी के अभाव ने उसकी अच्छी फसल के सपनों को तोड़ दिया हो, संसाधनों की कमी से पारिवारिक व्यवसाय बंद हो गया हो। ऐसी ही कुछ वजहों से इन्हें गाँव छोडऩा पड़ता है नहीं तो गाँव की तो हवा भी शहरों से ज्यादा साफ होती है।

लोगों को बहुत थोड़े की जरूरत है अपनी जि़न्दगी  सम्मान के साथ जीने के लिए, जब वह थोड़ा भी नसीब नहीं होता, तब एक व्यक्ति अपना घर-ज़मीन छोडऩे का निर्णय लेता है, नगरों और महानगरों के माहौल में दुबकी लगाने की सोचता है- जिसे पलायन कहते हैं।

इस कहानी के ज़रिए ये जानेंगे, कैसे छोटे-छोटे प्रयास पलायन के इस पूरे चक्र को उल्टा मोडऩे में सक्षम हैं, इस कहानी का जन्म 2008 की बिहार बाढ़ के बाद हुआ लेकिन ऐसा नहीं है कि इन प्रयासों को करने के लिए किसी आपदा का होना ज़रूरी है। गरीबी अपने आप में एक बड़ी आपदा है।

बिहार में 2008 की बाढ़ राज्य के उन हिस्सों में आई जहां किसी को उम्मीद नहीं थी इसलिए हालात और भी खराब थे। कोसी नदी के इस नए रास्ते में पडऩे वाले सैकड़ों गाँवों में करीब तीस लाख लोग बेघर हो गए। 3,00,000 से ज्यादा घर नष्ट हो गए और लाखों एकड़ में फैली फसल बर्बाद हो गई।

खुर्शीद आलम, बाढ़ से पहले पेशे से दर्ज़ी था (गाँव सूरजपुर, ब्लॉक-प्रतापगंज, जिला- सुपौल, बिहार) महीनों तक राहत शिविरों में समय बिताया। संसाधनों का अभाव तो था ही पर जो थोड़ा काम पहले दूसरे दर्ज़ियों से मिलता था अब वो भी बंद हो गया था। 

कृपानंद शर्मा, शारीरिक रूप से विकलांग मिस्त्री, अपने व्यवसाय और एक छोटे सी ज़मीन पर सांझा कृषि कर अपने और परिवार के लिए थोड़ा कमा लेता था, जिससे वह अपने दोनों बेटों को पूर्णिया के कॉलेज में पढ़ाने भेजता था। बाढ़ ने उनकी ज़मीन टनों की रेत/गाद से भर दी। उसका घर बाढ़ में ढह गया और साथ ही उसके सारे औज़ार को भी ले गई। कृपानंद कारीगर से मज़दूर बन गया।

मुन्नी देवी के पास बाढ़ के बाद गंवाने के लिए कुछ भी नहीं बचा था। अपने चार बच्चों को एक वक्त का खाना खिलाने के लिए मुन्नी ने कोई भी काम हाथ में लिया। मुन्नी हर दिन अपने पति के मनीऑर्डर का इंतज़ार करती।

सच्चाई यह है कि बिहार में बाढ़ के पहले भी हज़ारों लोगों के लिए एक स्थाई आय और आजीविका एक चुनौती ही थी। हमने एक नए विचार के साथ कई प्रयोगों को करने का फैसला किया, ऐसे ही एक प्रयोग का नाम था 'वापसी'।

'वापसी' मतलब पुन: स्थापना करना। 'गूँज' ने लोगों की ज़रूरतों को समझने के लिए बड़े पैमाने पर सर्वेक्षण किया। सर्वेक्षण के नतीजों को करीब से जांचने के बाद 'गूँज' ने करीब 35 परंपरागत व्यवसाओं को डिज़ाइन किया, जिसके लिए हमने कम निवेश वाले कुछ व्यावसायिक किट बनाए जैसे मज़दूर से लेकर नाई दुकान तक, ढाबे या मनिहारी से लेकर रिक्शा चालक और सिलाई मशीन तक, इन व्यावसायिक किटों में आवश्यक बुनियादी उपकरण, कपड़े और अन्य सामग्री शामिल थी।

इन व्यवसायिक किटों के भुगतान के विकल्पों में अपने समुदाय के लिए श्रमदान का विकल्प शामिल किया जैसे रिक्शा चालक अपने नए रिक्शे से बच्चों को समुदाय के 'चहक' सेंटर जाने के लिए मुफ्त में सवारी देगा। एक नाई स्कूल में बच्चों के बाल कटेगा। इस प्रकार परंपरागत चीज़ों/वस्तुओं के विनिमय को एक आसान सी प्रणाली के तहत लोगों ने अपनी आजीविका को फिर से शुरू किया और अपने समुदाय के लिए वापस भुगतान किया। इसी तरह 'वापसी' एक सफल प्रयोग साबित हुआ। 

मुन्नी देवी ने 'वापसी' के तहत एक चाय की छोटी दुकान खोली। गाँववालों ने बांस के पुल के पास मुन्नी देवी के लिए एक अस्थाई दुकान बनाने में मदद की। अब मुन्नी देवी रोज़ लगभग 150 रुपए कमाती है और अपने बच्चों को स्कूल भी भेजती है।

खुर्शीद को 'वापसी' के अंतर्गत एक सिलाई मशीन मिली। उसने घर से अपने व्यवसाय की शुरुआत की। कम ही समय में वह अन्य स्थापित दर्जियों के लिए प्रतियोगी बन गया। खुर्शीद कहते हैं- 'अब मुझे काम के लिए इन लोगों की दुकानों पर इंतज़ार नहीं करना पड़ता। मेरे पास खुद का काम बहुत है और हर रोज़ नया काम मिलता है।" खुर्शीद भविष्य में वहां जाने से मना नहीं करता लेकिन वह अपने गाँव में ही सुखी है क्योंकि यहां वह इज्जत के साथ ज्यादा कमाता है।  

कृपानंद शर्मा, ने अपने घर पर से ही मिस्त्री/बढ़ई के रूप में अपने काम को फिर से शुरू किया। अब कृपानंद का परिवार एक सामान्य जीवन जी रहा है। 

'गूँज' ने इन समुदायों को 20,000 ऐसी किटों के साथ समर्थन किया जिसकी लागत करीब 1.15 करोड़ रुपए थी। इनमें करीब 70 फीसदी (14,000) से ज्यादा लेबर किटें दीं गयी थी। हम यह कहानी आपसे एक आसान सा सन्देश देने के लिए बांट रहे हैं जिससे हम सब समझें कि कुछ अच्छा करने के लिए बहुत ज्यादा कुछ नहीं करना पड़ता।

बदलाव की अगली कहानी अगले सप्ताह के अंक में। तब तक आपको गूँज की ये बदलाव की कहानी कैसी लगी। कृपया इस पते पर लिख कर भेजें, जे-93, सरिता विहार, नयी दिल्ली-76 या फोन करें - 11 41401216, 26972351, ई-मेल- [email protected]        

गूँज टीम

 

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