'बीमार स्वास्थ्य सेवाएं' चुनावी मुद्दा क्यों नहीं ?

हर साल लाखों लोगों की असमय मौतें किसी भी राजनीतिक दल के लिए बड़ा मुददा नहीं हैं, आम आदमी इलाज के अभाव में दम तोड़ रहा है, लेकिन चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों का इस ओर जरा भी ध्यान नहीं है, वे धर्म-जाति जैसे मुद्दों की बातें कर मतदाताओं का ध्यान भटकाने में लगे हुए हैं

Chandrakant MishraChandrakant Mishra   9 April 2019 10:05 AM GMT

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बीमार स्वास्थ्य सेवाएं चुनावी मुद्दा क्यों नहीं ?

लखनऊ। डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में इस समय पांच लाख डॉक्टरों की कमी है। आजादी के समय देश में कुल 23 मेडिकल कॉलेज थे। 2014 में इनकी संख्या बढ़कर 398 हो तो गयी लेकिन होनी चाहिए थी 1000 से ज्यादा। लेकिन क्या आपने इस चुनाव मौसम में (Loksabha Election 2019) किसी नेता के मुंह से इस समस्या पर कोई शब्द सुना है। क्या आपने किसी टीवी डिबेट में भारत की स्वास्थ्य व्यवस्थाओं पर बहस होते देखा है ? जिस देश में हर साल लोग ऐसी बीमारियों से मर जा रहे हैं जिसका इलाज हो संभव था, उस देश में स्वास्थ्य कभी चुनावी मुद्दा रहा ही नहीं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने आम चुनाव 2019 के लिए अपना घोषणापत्र (संकल्प पत्र) जारी कर दिया है। भाजपा सरकार ने दावा किया है कि इस बार वो स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक कदम और आगे बढ़ते हुए दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना 'आयुष्मान भारत योजना' को अगले चरण तक ले जाएगी। इसके लिए 'हेल्थ फॉर ऑल' नाम का नारा भी दिया गया है।

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डॉक्टरों की कमी से जूझ रहा है हमारा देश।

भाजपा ने अपने घोषणापत्र में कहा है कि हम 2022 तक इन स्वास्थ्य और कल्याण केंद्रों में टेलीमेडिसिन और नैदानिक प्रयोगशाला सुविधाओं के प्रावधान को लक्षित करेंगे, ताकि गरीबों को उनके घर पर ही प्राथमिक चिकित्सा सुविधा उपलब्ध हो सके। कांग्रसे ने भी अपने मेनिफेस्टो में स्वास्थ्य की चर्चा की है, लेकिन उतनी ही जितनी होती आयी, क्योंकि स्वास्थ्य हमारी सरकारों के लिए आज भी प्राथमिकता नहीं है।

पटेल चेस्ट इंस्टिट्यूट नई दिल्ली के पूर्व निदेशक प्रो. राजेंद्र प्रसाद ने गांव कनेक्शन को बताया, "भारत में बदहाल स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर चिंताएं जताई जाती हैं और उनसे निपटने के उपायों के बारे में चर्चा भी की जाती है, लेकिन धरातल पर उपायों का क्रियान्वयन नहीं होता है, जिसका खामियाजा एक बड़ी आबादी को कई तरह की बीमारियों के रूप में भुगतना पड़ता है। भारत में टीबी की बात करें तो यह एक ऐसी बीमारी बन चुकी है, जिसका मुमकिन इलाज होने के बावजूद कई कारणों से खत्म नहीं हो पा रही है। जिन लोगों पर इन समस्याओं के समाधान की जिम्मेदारी है वे इस तरफ गंभरता से ध्यान नहीं दे रहे हैं।"

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एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के 534 लोकसभा सीट के मतदाताओं के बीच हुए एक सर्वे के अनुसार उनकी दूसरी सबसे बड़ी मांग सेहत और स्वास्थ्य सेवाएं ही है। जिनके बीच यह सर्वे किया गया उनमें 34.60 प्रतिशत मतदाता इसे बेहद जरूरी मानते हैं।

महंगा इलाज व दवाएं अब भी समस्या बनी हुई हैं।

वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में हर साल कुपोषण से मरने वाले पांच साल से कम उम्र के बच्चों की संख्या दस लाख से भी ज्यादा है, लेकिन कुपोषण और अन्य बीमारियों से जान गंवाने वाले बच्चे चुनावी मुददा नहीं बनते।

डब्ल्यूएचओ के महानिदेशक ट्रेडोस एडहानोम गेबेरियस ने एक विज्ञप्ति में कहा था, "बहुत से लोग अभी भी ऐसी बीमारियों से मर रहे हैं जिसका आसान इलाज मौजूद है और बड़ी आसानी से जिसे रोका जा सकता है। बहुत से लोग केवल इलाज पर अपनी कमाई को खर्च करने के कारण गरीबी में धकेल दिए जाते हैं और बहुत से लोग स्वास्थ्य सेवाओं को ही पाने में असमर्थ हैं। यह अस्वीकार्य है।"

केंद्र सरकार ने वर्ष 2018 में बताया था कि स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र पर पिछले तीन वर्षों में देश की कुल जीडीपी की 1.2 फीसदी से लेकर 1.5 फीसदी तक की राशि ख़र्च की गई। स्वास्थ्य राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल ने पिछले तीन वर्षों में स्वास्थ्य पर ख़र्च का ब्योरा पेश करते हुए यह जानकारी दी थी। मंत्री की ओर से पेश आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2016-17 में जीडीपी का 1.5 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च हुआ। इसी तरह वर्ष 2015-16 में 1.4 फीसदी और वर्ष 2014-15 में 1.2 फीसदी राशि स्वास्थ्य पर खर्च हुई।

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राजनैतिक मामलों के जानकार रहीश सिंह कहते हैं, "भारत के लोग दो मुददों पर ज्यादा जागरूक नहीं रहते, पहला-आर्थिक और दूसरा-स्वास्थ्य। जब तक नागरिक उन मुददों संजीदा नहीं रहेगा, तब तक रानतनीतिक दल उस मुददे को वोट बैंक का जरिया नहीं मानते हैं। यही वजह है कि राजनैतिक दल अपने घोषण पत्र में इसे उतनी तरजीह नहीं देते, जितनी देनी चाहिए।"

सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था भारत की सबसे बड़ी समस्या है फिर भी इसके बजट में कटौती की जाती है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में खर्च के मामले भारत अपने पड़ोसियों से भी पीछे है। यहां इस मद में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का महज एक फीसदी खर्च किया जाता है। इस मामले में यह मालदीव (9.4 फीसदी, भूटान (2.5 फीसदी), श्रीलंका (1.6 फीसदी) से भी पीछे है।

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वर्ष 2013-14 में सरकार सकल घरेलू उत्पाद का केवल 1.2 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करती थी जो कि 2016-17 में बढ़कर 1.4 प्रतिशत कर दिया गया। एनडीए सरकार ने वर्ष 2017-18 के लिए स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए 48,878 करोड़ रुपये का प्रावधान किया जो कि वर्ष 2013-14 में 37,330 करोड़ रुपये था। वर्तमान सरकार ने 2017 में नयी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति घोषित की जिसके तहत 2025 तक औसत आयु को 67.5 वर्ष से बढाकर 70 वर्ष करने का लक्ष्य है साथ ही जीडीपी का 2.5प्रतिशत भाग स्वास्थ्य सेवाओं पर करने का लक्ष्य रखा गया है। 2018-19 के लिए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के लिए आवंटन 52,800 करोड़ रुपए है, जो 2017-18 के संशोधित अनुमान 51,550.85 रुपए से 2.5 प्रतिशत ही ज्यादा है।


केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक विश्वविद्यालय के कार्यक्रम के दौरान कहा था, मौजूदा समय में भी देश में डॉक्टरों की बेहद कमी है और इस कमी को पूरा करने के लिए निजी मेडिकल संस्थान व मेडिकल कॉलेज खोले जाने चाहिए। पिछले 20 साल में स्वास्थ्य के क्षेत्र में क्रांति आने के बावजूद देश में मेडिकल क्षेत्र की चुनौतियां कम नहीं हुई हैं। महंगा इलाज व दवाएं, अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी और हेल्थ इंश्योरेंस की प्रति लोगों का रुझान न बढऩा अब भी समस्या बना हुआ है।

डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट में बताया गया है देश की आबादी का कुल 3.9 प्रतिशत यानी 5.1 करोड़ भारतीय अपने घरेलू बजट का एक चौथाई से ज्यादा खर्च इलाज पर ही कर देते हैं, जबकि श्रीलंका में ऐसी आबादी महज 0.1 प्रतिशत है, ब्रिटेन में 0.5 फीसदी, अमेरिका में 0.8 फीसदी और चीन में 4.8 फीसदी है।

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राजनीतिक पार्टियां मतदाताओं रिझाने में लगी हुई हैं। देश की राजनीति धर्म, जाति, ग़रीबी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों के इर्द-गिर्द घूम रही है, लेकिन देश की बदहाल प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं का कहीं जिक्र नहीं हो रहा है। देश की राजनीतिक पार्टियों के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं कभी भी बड़ा मुद्दा नहीं सकीं। स्वास्थ्य सेवाओं की इस चुनौती की तरफ पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने ध्यान दिलाया था। दिसंबर, 2016 में उन्होंने कहा था, "देश भर में 24 लाख नर्सों की कमी है और नर्सों की संख्या बढ़ने की जगह लगातार घट रही है। साल 2009 में इनकी संख्या 16.50 लाख थी, जो 2015 में घटकर 15.60 लाख रह गई।"


केंद्र सरकार ने देश में आयुष्मान भारत योजना की शुरुआत की। यह योजना वास्तव में देश के गरीब लोगों के लिए हेल्थ इंश्योरेंस स्कीम है। इस योजना के तहत देश के 10 करोड़ परिवारों को सलाना 5 लाख रुपए का स्वास्थ्य बीमा मिल रहा है। मगर बड़ा सवाल यह भी है कि अगर मरीज को स्थानीय स्तर पर पहले ही बेहतर इलाज मिल जाए तो उसे बीमा का लाभ लेने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।

"पहले साइकिल पर अपने बेटे को बैठाकर 13 किमी. दूर देवा सीएचसी गया, मगर वहां दवा न होने की बात कहकर बाराबंकी जिला अस्पताल जाने को कहा, फिर 15 किमी. साइकिल से जिला अस्पताल पहुंचा, यहां भी दवाएं नहीं है, सरकार बीमा देने की बात कह रही है, पहले दवा ही मिल जाए, बीमा तो दूर की बात है," यह बात दिलीप कुमार झल्लाते हुए कहते हैं। दिलीप देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के जनपद बाराबंकी के देवा ब्लॉक के गाँव बबुरी के रहने वाले हैं। दिलीप के बेटे को पिछले दिनों कुत्ते ने काट लिया था और अपने बेटे को रैबीज का इंजेक्शन लगवाने के लिए वह सीएचसी और जिला अस्पताल का साइकिल से चक्कर लगाकर थक चुके थे। ये हाल सिर्फ दिलीप का नहीं है, बल्कि प्रदेश के उन तमाम लोगों का है, जिन्हें न तो समय से इलाज मिल रहा है और न ही दवा।

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केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के सेंट्रल ब्यूरो आफ हेल्थ इंटेलिजेंस की ओर से जारी रिपोर्ट में कहा गया, देश डॉक्टरों की भारी कमी से जूझ रहा है। फिलहाल प्रति 11,082 आबादी पर महज एक डॉक्टर है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानकों के मुताबिक यह अनुपात एक प्रति एक हजार होना चाहिए यानी देश में यह अनुपात तय मानकों के मुकाबले 11 गुना कम है। बिहार जैसे गरीब राज्यों में तो तस्वीर और भयावह है। वहां प्रति 28,391 लोगों पर महज एक एलोपैथिक डॉक्टर है। उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में भी तस्वीर बेहतर नहीं है।


देश में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में ऑल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क की मालिनी आइसोला गाँव कनेक्शन से बताती हैं, "आयुष्मान भारत योजना का लाभ लोगों को मिल रहा है, यह अच्छी बात है। लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष यह है कि इस योजना में प्राथमिक चिकित्सा पर ध्यान नहीं दिया गया, जो भारत जैसे देश के लिए काफी जरूरी है।" वह आगे कहती हैं, "जब तक हम प्राथमिक स्वास्थ्य को सुदृढ़ नहीं करेंगे तब तक ये योजनाएं शत प्रतिशत लाभकारी नहीं हो सकती हैं। बुनियादी स्वास्थ्य को मजबूत करने की बेहद जरूरत है।"

मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया के पास वर्ष 2017 तक कुल 10.41 लाख डॉक्टर पंजीकृत थे। इनमें से सरकारी अस्पतालों में 1.2 लाख डॉक्टर हैं। बीते साल सरकार ने संसद में बताया था कि निजी और सरकारी अस्पतालों में काम करने वाले लगभग 8.18 लाख डाक्टरों को ध्यान में रखें तो देश में डॉक्टर और मरीजों का अनुपात 1:1,612 हो सकता है। लेकिन यह तादाद भी विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के मुकाबले कम ही है। इसका मतलब है कि तय मानक पर खरा उतरने के लिए देश को फिलहाल और पांच लाख डॉक्टरों की जरूरत है।

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उत्तर प्रदेश में सामाजिक मुददों पर काम करने वाली समाजिक कार्यकर्ता डॉक्टर नीलम का कहना है, "हमारे देश में स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित नहीं करती हैं। इसका कारण हमारा सामाजिक ढांचा है। अभी भी हमारे देश में जाति-धर्म के नाम पर चुनाव लड़े जाते हैं। देश भर में डॉक्टरों की कमी है, लेकिन इस तरफ किसी भी पार्टी का ध्यान नहीं जाता है।"


प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी मानते हैं कि देश में डॉक्टरों की कमी है। इसीलिए उन्होंने डॉक्टरों की सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ाकर 65 करने की घोषणा की। उनका तर्क है कि हम डॉक्टर तो पैदा नहीं कर सकते लेकिन जो डॉक्टर है उनकी सेवा तो ले सकते हैं। प्रधानमंत्री का कहना एकदम जायज है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने कहा है कि भारत में डॉक्टरों की कमी है हालांकि सरकार इस समस्या से निपटने के लिए प्रयास कर रही है। स्वास्थ्य मंत्री के अनुसार डॉक्टरों की संख्या बढ़ाने के लिए सरकार मेडिकल कॉलेजों के स्नाकोत्तर छात्रों को ट्रेनिग दे रही है। साथ ही सरकार डॉक्टरों के ट्रेनिग की गुणवत्ता को भी सुधारने और नए मेडिकल कॉलेज खोल डॉक्टरों के कमी की समस्या से निपटने का प्लान बना रही है।

राजनीतिशास्त्र विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय की विभागाध्यक्ष प्रो. अनुराधा अग्रवाल का कहना है, "हमारे देश में बीमारियों के बोझ की तुलना में स्वास्थ्य सेवा का ढांचा काफी लचर है। सरकारी स्वास्थ्य केन्द्र और सरकारी अस्पतालों की संख्या कम है। इन समस्याओं को दूर करने की जिम्मेदारी जिनपर है वे जनता से कटे हुए हैं, इसलिए हमारे देश में स्वास्थ्य सुविधाएं इतनी बदहाल हैं।"

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स्वास्थ्य सेवाओं की जमीनी हकीकत क्या है, कुछ उदाहरण देखिए

केस- 1

10 जुलाई 2016 को झारखंड के चतरा जिले के सिदपा गांव में राजेंद्र उरांव को चतरा जिला सदर अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां उसकी मौत हो गई थी। मृतक के परिजनों ने अस्पताल से शव को घर तक ले जाने के लिए एंबुलेंस मुहैया कराने की मांग की, लेकिन इनकार कर दिया गया। इसके बाद मृतक के भाई तथा भाभी दोनों मिलकर हाथों से पकड़कर शव को घर ले गए।

केस-2

ओडिशा के कालाहांडी से मानवता को शर्मसार कर देने वाली खबर सुन-और पढ़कर हर कोई हतप्रभ रह गया था, जहां एक आदिवासी को अपनी बीवी की लाश कंधे पर रखकर 12 किलोमीटर इसलिए पैदल चलना पड़ा था, क्‍योंकि उसके पास एम्बुलेंस करने को रुपए नहीं थे।

हर साल लाखों लोगों की असमय मौतें किसी भी राजनीतिक दल के लिए बड़ा मुददा नहीं हैं। आम आदमी इलाज के अभाव में दम तोड़ रहा है, लेकिन चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों का इस ओर जरा भी ध्यान नहीं है। वे धर्म-जाति जैसे मुद्दों की बातें कर मतदाताओं का ध्यान भटकाने में लगे हुए हैं।

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