भारत-नेपाल बॉर्डरः बिजली-सड़क, शिक्षा-स्वास्थ्य, जल-जंगल के साथ खराब नेटवर्क भी है प्रमुख मुद्दा

भारत-नेपाल बॉर्डरः मोबाइल नेटवर्क की समस्या से जूझ रहे बॉर्डर इलाके के लोग, भारत के इन हिस्सों में इंडिया का नहीं नेपाल का नेटवर्क चलता है

Daya SagarDaya Sagar   11 May 2019 10:28 AM GMT

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रिपोर्ट- दया सागर/अरविंद शुक्ला

गौरीफेण्टा (लखीमपुर)। " नेटवर्क खराब हैं यहां, रोड खराब है यहां, बिजली खराब है यहां, कोई सुविधा नहीं है। चुनाव चल रहा है लेकिन तब भी कोई नेता हमारी खोज-खबर लेने नहीं आ रहा।" 62 साल की थारू महिला झुकनी देवी हाथ पटकते हुए गुस्से में कहती हैं।

झुकनी देवी लखीमपुर जिले के चंदन चौकी इलाके के थारू बाहुल्य गांव बलेरा की रहने वाली हैं। बलेरा गांव दुधवा राष्ट्रीय उद्यान और नेपाल सीमा से सटा हुआ थारू जनजातियों का गांव है। रोड, बिजली, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा सहित नेटवर्क यहां की प्रमुख समस्या है लखीमपुर सहित उत्तर प्रदेश के कुल सात जिले नेपाल सीमा से सटे हुए हैं। उत्तर प्रदेश के अलावा उत्तराखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल, असम और सिक्किम की सीमा नेपाल से मिलती है। इस दौरान भारत और नेपाल कुल 1758 किलोमीटर की सीमा साझा करते हैं।

झुकनी देवी और उनके परिवार के लिए बिजली, स्वास्थ्य और सड़क के अलावा खराब नेटवर्क समस्या है।

1758 किलोमीटर के परिधि में पड़ने वाले भारतीय गांवों की प्रमुख समस्या 'मोबाइल नेटवर्क का ना होना' है। हालत यह है कि भारत की सीमा में 10 किलोमीटर के अंदर तक रह रहे लोगों को नेपाल के सिम का प्रयोग करना पड़ता है। वहीं बॉर्डर से 15-20 किलोमीटर पहले ही भारतीय नेटवर्क में उतार-चढ़ाव आने लगता है। बॉर्डर के इलाकों में सुरक्षा की वजहों से निजी कंपनियों के टॉवर नहीं लग सकते। इसलिए यहां पर सिर्फ बीएसएनएल के टॉवर लगे हैं। लेकिन बीएसएनएल के नेटवर्क की हालत भी यहां काफी खराब रहती है।

बीएसएनएल का बीटीएस टॉवर बनाने का दावा हवा-हवाई

आपको बता दें कि सुरक्षा के दृष्टि से प्राइवेट कंपनियों को बॉर्डर के इन इलाकों में टॉवर लगाने का आदेश नहीं है। वहीं बीएसएनएल की हालत किसी से छिपी नहीं रही है। हालांकि यह बात समझ से परे है कि जब नेपाल के सरकारी और प्राइवेट नेटवर्क बॉर्डर इलाके सहित भारत के 10 किलोमीटर की सीमा तक पहुंच सकते हैं, तो डिजीटल इंडिया का दावा करने वाले नेपाल के नेटवर्क क्यों नहीं?

बीएसएनएल का जो देश भर में हाल है, वही हाल नेपाल बॉर्डर इलाके में भी है। हालांकि बीएसएनएल ने नेपाल बॉर्डर इलाकों में बीटीएस टॉवर लगाने की बात की थी लेकिन ये बातें भी सिर्फ हवा-हवाई साबित हुई। गांव कनेक्शन ने इस संदर्भ में जब बीएसएनएल के अधिकारियों से बात करने की कोशिश की तो या तो उनका फोन नहीं होता और जब फोन उठा तो उन्होंने इस बारे में कुछ भी टिप्पणी करने से इनकार कर दिया।

लखीमपुर के गौरी फैण्टा बॉर्डर के पास सोहनहा गांव के किसान मेलाराम (47) बताते हैं, "नेटवर्क यहां की बहुत बड़ी समस्या है। हमारे बच्चे लखीमपुर में पढ़ते हैं। उनकी खोज-खबर लेने के लिए हमें नेपाल के नेटवर्क प्रदाता कंपनियों का प्रयोग करना पड़ता है।"

नेपाल के नेटवर्क का प्रयोग है काफी खर्चीला

मेलाराम आगे बताते हैं, "नेपाल के नेटवर्क कंपनियों का प्रयोग काफी महंगा है। एक मिनट के कॉल के लिए पौने दो भारतीय रूपए लगते हैं। वहीं अगर लखीमपुर में उनका बेटा उन्हें मिस कॉल भी मारना चाहे तो कम से कम उसके मोबाइल में दस रूपया होना जरूरी है। अगर मेरा बेटा कॉल करे तो आईएसडी कॉल के रूप में एक मिनट का दस रूपया कटता है।"

किसान मेलाराम के लिए नेटवर्क भी एक प्रमुख समस्या है। पानी की कमी की वजह से खेती में समस्या आ रही है जबकि छुट्टा पशु और जंगली जानवर उनके खेत को नुकसान पहुंचा रहे हैं

खेत में गेहूं काट रहे मेलाराम अपने मचान में बैठते हुए कहते हैं कि यह एक तरह से विरोधाभास है। "जहां एक तरफ नेपाल अन्य सभी जरूरतों के लिए भारत पर निर्भर रहता है, वहीं नेटवर्क के लिए हम भारत में रहने वाले लोग नेपाल पर निर्भर रहते हैं।" खेत में काम कर रहे मेलाराम के बेटे ने बताया कि नेपाली नेटवर्क से इंटरनेट का भी प्रयोग करना काफी महंगा होता है। एक जीबी डाटा के लिए करीब 250 भारती रूपए खर्च करने पड़ते हैं।

नेपाल के धनगढ़ी निवासी अरूण पनेरू इस बात को स्वीकार करते हैं। वह कहते हैं कि नेपाली टेलीकॉम कंपनियों से इंटरनेट का प्रयोग काफी महंगा है, इसलिए नेपाल में छोटे से छोटे दुकानों पर भी वाई-फाई लगा हुआ दिखता है, जिसका मासिक शुल्क 800 रूपए महीने है।

'नहीं मिल पाती है कोई सूचना'

चंदन चौकी बॉर्डर के नजदीक बलेरा की रहने वाली गीता (28 साल) ने राजनीतिक विज्ञान से एम.ए. किया है। वह अपने गांव और समुदाय (थारू समुदाय) से मास्टर डिग्री लेने वाली कुछेक महिलाओं में से एक हैं। उन्होंने इस पढ़ाई के लिए काफी संघर्ष किया है। लगभग 30 किलोमीटर दूर स्थित निकटतम शहर पलिया में डिग्री कॉलेज है, जहां से गीता और उनकी कुछ सहेलियां प्राइवेट बस से दो घंटे की यात्रा कर पढ़ने जाती थी।

गीता ने राजनीतिक विज्ञान से एम.ए. किया है लेकिन नेटवर्क और इंटरनेट की समस्या की वजह से वह कोई फॉर्म नहीं भर पातीं।

लेकिन गीता अब खाली बैठी हैं। उनके पास सूचना के वे साधन मौजूद नहीं हैं, जिससे फॉर्म और वैकेंसी का पता लगाया जा सके। तीन साल पहले पढ़ाई खत्म कर चुकी गीता बताती हैं, "पहले पढ़ाई के लिए पलिया या लखीमपुर जाते थे तो फॉर्म और वैकेंसी का पता भी चलता था लेकिन अब उसका भी कुछ नहीं पता चलता। कहने को तो यहां पर बीएसएनएल का नेटवर्क आता है लेकिन उसके नेट की स्थिति काफी खराब है। मुश्किल से ही कोई वेबसाइट खुलता है। कब फॉर्म आया, कब गया, कुछ भी पता नहीं चलता। जब पता चलता है तब तक काफी देर हो चुकी होती है।"

सुरक्षा की दृष्टि से भी नहीं है उचित

भारतीय नागरिकों द्वारा भारत में रहकर नेपाली नेटवर्क का प्रयोग कतई भी उचित नहीं है। आम नागरिकों के अलावा बॉर्डर पर ड्यूटी दे रहे पुलिस, कस्टम, एसएसबी, आईटीबीपी और बीएसएफ के कई जवान नेपाली सिम का प्रयोग करते हैं।

नाम ना छापने की शर्त पर पुलिस के एक जवान ने बताया, "हम क्या करें। घर से दूर ड्यूटी होती है। दिन भर काम करने के बाद घर वालों से बात करने का मन करता ही है। नाम के लिए यहां बीएसएनएल का नेटवर्क तो है लेकिन कभी ठीक से काम नहीं करता। कभी आवाज कटती है तो कभी कॉल ड्रॉप हो जाता। नेटवर्क इतना भी नहीं आता कि व्हाट्सएप्प कॉल कर लें। मजबूरी में हमें नेपाल के सिम का प्रयोग करना पड़ता है।"

सरकारों को है सब पता !

ऐसा नहीं है कि देश या प्रदेश की सरकार इससे अनजान है। अक्टूबर, 2015 में उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के बॉर्डर इलाके के दौरे पर गए गृह राज्य मंत्री किरण रिजीजू ने एसएसबी, बीएसएफ, आईटीबीपी और पुलिस के जवानों से सुरक्षा दृष्टि से नेपाल का सिम ना प्रयोग करने की हिदायत दी थी। उन्होंने आश्वासन भी दिया था कि जल्द ही नेटवर्क की इस समस्या का समाधान कर लिया जाएगा। लेकिन उस आश्वासन के बाद भी कुछ नहीं हुआ।

जनवरी, 2018 में जब भारत के गृह राज्य मंत्री किरण रिजीजू ने नेपाल सीमा से सटे उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के सीमावर्ती जिलों का दौरा किया था तब फिक स्थानीय लोगों ने नेटवर्क की समस्या उठाई थी। उस समय भी फिर उन्हें आश्वासन मिला।

लेकिन नहीं है चुनावी मुद्दा !

चंदन चौकी के जगन्नाथ (57) से जब लोकसभा चुनाव और उनके क्षेत्र से संबंधित मुद्दों के बारे में पूछा गया, तो वह बताते हैं, "बाकी सब तो ठीक है। लेकिन नेटवर्क की समस्य़ा हमारे लिए काफी तकलीफदेह है। हमारे बच्चे दूर शहरों में पढ़ते हैं। कुछ इमरजेंसी हो जाए तो सही से बात भी नहीं हो पाती।"

जगन्नाथ वर्तमान सरकार के कार्यों से काफी खुश हैं, लेकिन चाहते हैं कि जल्द से जल्द उनके इलाके में सरकार टॉवर भी लगवा दे ताकि वे बाहर पढ़ रहे अपने बच्चों से आसानी से बात कर सकेँ

जगन्नाथ कहते हैं कि यह एक ऐसी समस्या है जिस पर जल्द से जल्द सरकारों को ध्यान देना होगा। अधीर होकर वह कहते हैं, "चुनाव चल रहा है। हम चाहते हैं इसी बहाने ही कोई नेता आए और हमारे क्षेत्र में टॉवर लगवा दे। इससे अधिक हमें कुछ भी नहीं चाहिए।"

सिर्फ नेटवर्क ही नहीं बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य और पेट्रोल पम्प भी है समस्या

जगन्नाथ की इस अधीरता को आसानी से समझा जा सकता है। दरअसल नेपाल बॉर्डर से सटे इलाके के लोग अन्य कमियों से समझौता करना या उनके साथ जीना सीख गए हैं। यहां सिर्फ नेटवर्क नहीं बल्कि बिजली, सड़क, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य और पेट्रोल पम्प की समस्या भी प्रमुख है। इसके अलावा पड़ोस का घना जंगल और टाइगर रिजर्व आस-पास के किसानों के लिए एक बड़ा खतरा है।

हालांकि ये जितनी भी समस्याएं है, उसे यहां के लोग दशकों से झेल रहे हैं। कह सकते हैं कि वे इन कमियों के साथ भी जीना सीख लिए हैं। लेकिन मोबाइल नेटवर्क एक ऐसी समस्या है जिसकी कमी के साथ सामांजस्य बैठाना काफी कठिन है। जगन्नाथ ने बताया कि आस-पास के सभी बैंकों में नेटवर्क की समस्या के कारण लेन-देन प्रभावित रहता है जबकि एटीएम भी लगभग बंद रहते हैं। राशन वितरण प्रणाली आधुनिकृत होने के बाद कई बार राशन लेने में भी कठिनाई आती हैं क्योंकि नेटवर्क नहीं चलने की वजह से आधार वेरिफाई नहीं हो पाता।

चंदन चौकी स्थित स्टेट बैंक ऑफ इंडिया। बगल में बंद पड़ा एटीएम यहां की स्थायी समस्या है।

सोहनहा के थारू किसान मेलाराम कहते हैं, "समस्याएं तो बहुत हैं। जंगल से कभी भी जंगली हाथी या शेर आ जाते हैं जो हमारे फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं। जान-माल का खतरा भी बना रहता है। इसके अलावा आस-पास कोई पेट्रोल पम्प नहीं है। पानी की समस्या की वजह से खेतों में पम्पिंग सेट का प्रयोग करना पड़ता है, जिसका डीजल लाने के लिए तीस किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है। इसके अलावा सरकारी बस भी दिन भर में इक्का-दुक्का चलते हैं। प्राइवेट बसों का इंतजार आधे से एक घंटे तक करना पड़ता है। लेकिन इन सभी चीजों की आदत हो गई है। इनके बिना हमारी जिंदगी रूकती नहीं है, भले ही धीमी हो जाती है। लेकिन मोबाइल नेटवर्क की समस्या एक ऐसी समस्या है जो हमें समय से काफी पीछे ढकेल देती है।"

बलेरा के एक बुजुर्ग नेकी राम (62) नेटवर्क की समस्या को सिर्फ समस्या नहीं बल्कि 'संकट' कहते हैं। उनका कहना है कि सरकार को कोई भी उपाय लाकर इस समस्या का समाधान करना चाहिए। अगर यह कहा जा रहा है कि मोबाइल टॉवर से रेडिएशन होता है और इससे दुधवा के जानवरों को खतरा है तो हमें सरकार लैंडलाइन बिछाकर दे। अगर बॉर्डर एरिया में टॉवर का होना सुरक्षा की दृष्टि से सही नहीं है तो सरकार कोई वैकल्पिक व्यवस्था करे।

'जंगल से हमारा जुड़ाव मां-बेटे की तरह'

अन्य समस्याओं के बारे में पूछने पर थारू समुदाय के बुजुर्ग नेकीराम थोड़ा सा भावुक हो जाते हैं। वह बताते हैं कि जब से दुधवा को टाइगर रिजर्व और नेशनल पार्क घोषित किया गया है, तब से थारू समुदाय के लोगों पर लगातार बंदिशे की गई हैं।

नेकीराम के लिए नेटवर्क की समस्या सिर्फ एक समस्या नहीं बल्कि एक संकट है। उन्हें इस बात का भी दुःख है कि उन्हें जंगल से दूर खदेड़ा जा रहा है।

"जंगल से हमारा जुड़ाव मां-बेटे की तरह है। जंगल और हमारा समुदाय एक दूसरे के पूरक हैं। पहले जब जंगल में आग लगती थी तो पूरा गांव आग बुझाने के लिए चला जाता था। वहीं हम भी जंगल से जलौनी लकड़ियां, फल और जड़ी-बूटियां लाकर अपना जीवन-यापन करते थे। लेकिन अब हमें जंगल में जाने से रोका जाता है। इसी वजह से हमारे भाई ने वैद्य का पुश्तैनी काम छोड़ दिया।" नेकीराम अपने बुजुर्ग भाई मिहीलाल भर्रा की तरफ इशारा करते हुए बताते हैं।

मिहीलाल भर्रा से जब इस बारे में पूछा जाता है तो वह कहते हैं, "मेरे पास बताने के लिए अब कुछ नहीं है। मैं अब सब कुछ छोड़ चुका हूं।" इतना कहकर वह मुस्कुराते हुए आगे बढ़ जाते हैं।

(कम्युनिटी जर्नलिस्ट मोहित शुक्ला के इनपुट के साथ)

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