Lok Sabha Elections 2019: बेरोजगारी दर 45 साल में सबसे अधिक, फिर भी यह चुनावी मुद्दा नहीं है!

राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य से बेरोजगारी का मुद्दा गायब है। लोकसभा चुनाव 2019 के बीच चुनावी राजनीतिक मंचों से देश, धर्म, जाति पर तो राजनीति की जा रही है लेकिन इन चुनावी मंचों से बेरोजगारी का मुद्दा गायब है। पार्टियों के मैनिफेस्टों में भी रोजगार का मुद्दा महज एक पन्ने तक ही सिमट कर रह गया है।

Daya SagarDaya Sagar   11 May 2019 11:54 AM GMT

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
Lok Sabha Elections 2019: बेरोजगारी दर 45 साल में सबसे अधिक, फिर भी यह चुनावी मुद्दा नहीं है!

लखनऊ। अनिरूद्ध पांडेय (28) ने पूरब का ऑक्सफोर्ड कहे जाने वाले इलाहाबाद विश्वविधालय से राजनीतिक विज्ञान में एम.ए. किया है। इसके बाद वह सरकारी नौकरियों की तैयारी में लग गए। वह पिछले चार साल से सरकारी नौकरियों की तैयारी कर रहे हैं। वह कुछ प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल होने के काफी करीब भी पहुंचे हैं, लेकिन सरकारी नौकरी के उलझे हुए नियमों, लालफीताशाही, कोर्ट की तारीख और प्रशासनिक लापरवहियों की वजह से 'योग्य' होते हुए भी अभी तक नौकरी से महरूम हैं।

हाल ही में जारी हुई रिपोर्ट्स यह साबित करती हैं कि देश में बेरोजगारी की समस्या बहुत ही तेजी से बढ़ रही है। हालांकि राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य से बेरोजगारी का मुद्दा गायब है। लोकसभा चुनाव 2019 के बीच चुनावी राजनीतिक मंचों से देश, धर्म, जाति पर तो राजनीति की जा रही है लेकिन इन चुनावी मंचों से बेरोजगारी का मुद्दा गायब है। पार्टियों के मैनिफेस्टों में भी रोजगार का मुद्दा महज एक पन्ने तक ही सिमट कर रह गया है।

क्या कहते हैं आंकड़े?

पिछले कुछ साल में बेरोजगारी से संबंधित जो आंकड़े आएं हैं, वह भयावह हैं। हाल ही में जारी हुई राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) की रिपोर्ट के मुताबिक 2017-18 में बेरोजगारी की दर पिछले 45 साल में सबसे अधिक रही। इस रिपोर्ट के अनुसार 2017 में बेरोजगारी दर 6.1 फीसदी थी, जो कि 1972-73 के बाद सबसे अधिक है। रिपोर्ट बताती है कि 2012 में बेरोजगारी दर 2.2 थी। इस हिसाब से पिछले पांच साल में बेरोजगारी के आंकड़ों में तीन गुने की बढ़ोतरी हुई है।

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) की सर्वे बताती है कि फरवरी, 2019 में भारत में बेरोजगारी दर बढकर 7.2 फीसदी तक पहुंच गई। सीएमआईई की यह रिपोर्ट कहती है कि 2016 में नोटबंदी और 2017 में जीएसटी के लागू होने के बाद 2018 में करीब 1.1करोड़ लोगों को अपनी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा।

असंगठित क्षेत्र भी हुए प्रभावित

बेंगलुरु स्थित अजीम प्रेमजी यूनीवर्सिटी के सेंटर फॉर सस्टेनेबल इम्लॉयमेंट ने असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों पर एक सर्वे किया है। इस सर्वे के अनुसार नोटबंदी (2016) के बाद असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले 50 लाख लोगों ने अपना रोजगार खो दिया। 'स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया 2019' नाम से आई इस रिपोर्ट में बताया गया है कि बेरोजगारी की दर 20 से 24 साल के युवाओं में सबसे अधिक रही, जो कि एक चिंताजनक विषय है। इसके अलावा ग्रामीण महिलाएं भी इससे बहुत ही अधिक प्रभावित हुई हैं।

कार्पोरेट सेक्टर में भी घटी नौकरियां

सिर्फ सरकारी नहीं प्राइवेट कार्पोरेट सेक्टर में भी नौकरियां कम हुई हैं। सीएमआईई के एक रिपोर्ट के मुताबिक कार्पोरेट सेक्टर में नौकरियां और निवेश दोनों काफी तेजी से घट रहे हैं। इसके अलावा इस सेक्टर में काम करने वाले लोगों लोगों की सैलरी भी कम हो रही है। यह रिपोर्ट बताती है कि 2012-13 में प्राइवेट सेक्टर में कंपनसेशन 25 प्रतिशत की दर से बढ़ रही था, जो 2017-18 आते-आते मात्र 7.7 प्रतिशत रह गई।

वहीं एनएसएसओ की सालाना रिपोर्ट बताती है कि शहरी इलाकों में बेरोजगारी दर 7.8 फीसदी, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी दर 5.3 फीसदी रही। यह रिपोर्ट यह भी बताती है कि पिछले 5 साल में सबसे कम नौकरियां पैदा हुईं। इन रिपोर्ट्स, सर्वे और आंकड़ों से साफ पता चलता है कि बेरोजगारी से सिर्फ शिक्षित युवा नहीं बल्कि संगठित, असंगठित, कार्पोरेट, शहरी, ग्रामीण सभी क्षेत्रों के लोग प्रभावित हैं। फिर भी यह एक चुनावी मुद्दा नहीं बन पा रहा है।

अनिरूद्ध पांडेय इस संबंध में कहते हैं, "देश में बेरोजगारी सबसे बड़ी समस्या बन कर उभर रही है लेकिन आम चुनाव 2019 में राजनीतिक दलों के लिए यह कोई मुद्दा नहीं है। राजनीतिक दल और नेता आजकल अपना पेट भरने में लगे हैं। उन्हें बेरोजगार युवाओं की कोई परवाह नहीं है।"

राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों में 'रोजगार'?

जब हम विभिन्न राजनीतिक दलों मुख्यतः बीजेपी और कांग्रेस के घोषणा पत्रों को देखते हैं अनिरूद्ध की बातों में दम दिखने लगता है। कांग्रेस के घोषणा पत्र 'हम निभाएंगे' में रोजगार को अलग से कॉलम दिया गया है। 54 पन्नों के इस घोषणा पत्र में रोजगार शब्द 52 बार आया है और कांग्रेस ने वादा किया है कि वह सत्ता में आते ही तमाम खाली पड़े रिक्त पदों को भरेंगे। इसके अलावा कांग्रेस स्वरोजगार को भी बढ़ावा देने की बात करती है।

जबकि सत्ताधारी दल बीजेपी के घोषणा पत्र 'संकल्प पत्र' में रोजगार के लिए अलग से कोई कॉलम नहीं है। 50 पन्नों के मैनिफेस्टो में रोजगार शब्द केवल 17 बार आया है जिसमें रोजगार के लिए कोई खास नीति नहीं दिखती है।

इस घोषणा पत्र में सरकारी नौकरियों का जिक्र कहीं भी नहीं किया गया है। हालांकि इस घोषणापत्र में पीएम मोदी की महत्वकांक्षी 'मुद्रा' और 'स्टार्ट अप' जैसी स्वरोजगारपरक योजनाओं का जरूर जिक्र किया गया है और इसे विस्तार देने की बात की गई है।

सरकारी नौकरी का 'क्रेज' अभी भी बरकरार

हालांकि देश के बेरोजगार युवाओं में स्वरोजगार की अपेक्षा सरकारी नौकरी को लेकर अभी भी क्रेज बरकरार है। भले ही प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता युवाओं में सर्वाधिक है लेकिन उनकी स्टार्ट अप इंडिया, स्किल इंडिया और मुद्रा जैसी योजनाएं युवाओं को प्रभावित नहीं कर पाई है।

युवा स्वरोजगार को उस नजरिये से अभी भी नहीं देख पा रहे हैं। सरकारी नौकरियों की स्थिरता और स्वरोजगार में सफलता की अनिश्चितता इसका एक प्रमुख कारण है और सरकार के लिए यह एक तरह से विफलता ही है।

बढ़ रही है 'आंदोलनों' की संख्या

पिछले कुछ सालों में नौकरियों की संख्या में भले ही बढ़ोतरी नहीं हुई हो लेकिन सरकारी भर्तियों को लेकर धरनों और आंदोलनों की संख्या में जरूर वृद्धि हुई है। फिर वह यूपीएससी अभ्यर्थियों का आंदोलन हो या एसएससी अभ्यर्थियों द्वारा किया गया आमरण अनशन। शिक्षा मित्रों का लखनऊ की सड़कों पर पुलिस से खूनी संघर्ष हो या आगनबाड़ी और रसोईया कार्यकत्रियों का पटना से लेकर दिल्ली की सड़कों पर प्रदर्शन।

इसी तरह उच्च शिक्षा में अध्य्यनरत अभ्यर्थी भी समय-समय पर नौकरियों को लेकर फेलोशिप आंदोलन और रोस्टर प्वाइंट विरोधी आंदोलन जैसे प्रदर्शनों में भाग लेते रहे हैं। लेबर ब्यूरो, शिमला की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर साल धरनों की संख्या में वृद्धि हो रही है।2016 की तुलना में 2017 में इसकी संख्या में 44 प्रतिशत की वृद्धि हुई जिससे देश की उत्पादकता को 57% का नुकसान हुआ।

बेरोजगारी की वजह से कई व्यक्ति अंतिम कदम यानी कि आत्महत्या का कदम उठा लेते हैं। अभी 16 अप्रैल, 2019 को गोरखपुर से एक युवक द्वारा आत्महत्या की खबर आई थी। अमर उजाला के रिपोर्ट के मुताबिक, प्रशांत कुमार झा (28) नाम का यह युवक प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के साथ ठेके पर बिजली का मीटर लगाने का काम करता था। लेकिन तीन महीने पहले ही उसकी यह नौकरी छूट गई। इसके बाद प्रशांत लगातार तनाव में था और मंगलवार को उसने आत्महत्या कर ली।

अनिरूद्ध पांडेय भी बात-बात में अपने एक साथी का जिक्र करते हैं जिसने सरकारी नौकरियों में याचिका प्रक्रिया और कोर्ट से मिल रही तारीखों से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी।

"बेरोजगारी पर राजनीति हो 'बेरोजगारों' पर नहीं"

अनिरूद्ध की तरह लखनऊ के अंकित श्रीवास्तव (25) भी बेरोजगारी से त्रस्त एक युवा हैं। इंजीनियरिंग की प्राइवेट जॉब छोड़कर वह सरकारी नौकरियों की तैयारी कर रहे हैं। अंकित के हाथों में भी सरकारी नौकरी आते-आते रह गई। जहां अनिरूद्ध का मामला 'वेटिंग लिस्ट' के इंतजार में लटका है, वहीं अंकित श्रीवास्तव के सरकारी नौकरी का सपना कोर्ट की 'तारीखों' में उलझ रहा है।

हालांकि इंजीनियरिंग में ग्रेजुएट अंकित राजनीति विज्ञान में पोस्टग्रेजुएट अनिरूद्ध से अलग राय रखते हैं। अंकित की मानें तो बेरोजगारी पर राजनीति होनी चाहिए, लेकिन बेरोजगारों के नाम पर राजनीतिक दलों को अपनी सियासी रोटियां सेंकने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। वह मार्च, 2018 में दिल्ली में हुए एसएससी आंदोलन का उदाहरण भी देते हैं। वह कहते हैं, "छात्रों के इस आंदोलन पर एक नए राजनीतिक पार्टी के यूथ विंग का कब्जा हो गया था जिसकी वजह से इस आंदोलन की पूरी दिशा ही पलट गई।"

'बेरोजगारों के लिए हो अलग पार्टी'

वहीं अनिरूद्ध पांडेय वर्तमान राजनीतिक सिस्टम से इतना निराश हो चुके हैं कि वह सभी राजनीतिक पार्टियों को खत्म कर राजनीति में EWS (इकोनॉमिक वीकर सेक्शन) नीति लागू करने की बात करते हैं। अनिरूद्ध का मानना है कि जिनकी संपत्ति 25 लाख से अधिक हो, उन्हें चुनाव लड़ने का अधिकार ही नहीं होना चाहिए। वह कहते हैं, "आर्थिक रूप से मजबूत लोगों के चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगना चाहिए क्योंकि वह असल मुद्दों की ना तो समझ रखते हैं और ना ही उस पर बात करना चाहते हैं।"

अनिरूद्ध मीडिया से भी नाराज दिखते हैं और कहते हैं कि 'टीवी' दिन भर बिना सिर-पैर के मुद्दों पर राजनीतिक बहस चलाता रहता है। अनिरूद्ध कहते हैं कि अगर स्थिति यही रही तो बेरोजगारों को अपने लिए एक अलग से पार्टी बनानी पड़ेगी, जिसका मुख्य चुनावी मुद्दा 'रोजगार' ही होगा।

पढें- देश के 70 फीसदी छात्र बारहवीं के आगे नहीं पढ़ पाते, लेकिन ये चुनावी मुद्दा नहीं है



   

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.