किसान व्यथा: मत पढ़िएगा, इसमें कुछ भी नया नहीं है

भारत में लोकतंत्र का सबसे बड़ा पर्व (Loksabha Election 2019) मनाया जा रहा है। किसान और मजदूर वर्ग चुनावों के सबसे बड़े भागीदार हैं, लेकिन इन चुनावों में ग्रामीण भारत से सीधे जुड़े मुद्दों- जैसे किसानों की आमदनी, आत्महत्या, सूखा पर गंभीर चर्चा नहीं हो रही। गांव कनेक्शन ने 'इलेक्शन कलेक्शन' में इन मुद्दों की अहमियत और किसानों के लिए मायने समझने की कोशिश की है।

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किसान व्यथा: मत पढ़िएगा, इसमें कुछ भी नया नहीं है

अरविंद शुक्ला/मिथिलेश दुबे

लखनऊ। Loksabha Election 2019 के मतदान जारी है। चुनावी सभाओं में आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी खूब चल रहा है। घोषणा पत्रों में किसानों को इस बार भी केंद्र में रखा गया है, पिछली बार भी रखा गया था। सरकार किसानों की आय दोगुनी करने का वादा करती रही, लेकिन सच्चाई कुछ और ही है। किसानों की आत्महत्या बदस्तूर जारी है। एमएसपी के खेल में किसान अभी भी फंसे हुए हैं तो सूखा जले पर नमक छिड़क रहा है। चौतरफा मार झेल रहे किसानों के लिए कवायद तो बहुत हो रही हैं लेकिन कागजों पर। ऐसे में यह जानना भी जरूरी है आखिर किसान और किसानी संकट में क्यों है।

आमदनी जो बढ़ती नहीं

तारीख 28 फरवरी 2016, देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बरेली में किसान स्वाभिमान रैली को संबोधित कर रहे थे। अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने कहा "2022 में जब देश आजादी की 75वीं सालगिरह मना रहा होगा, उस समय तक हम देश के किसानों की आय दोगुनी कर देंगे। यही मेरा सपना है।"

तब से अब तक यानि कुल 1139 दिन बाद (12/04/2019) किसानों की आय कितनी बढ़ी इसका कोई पक्का आकड़ा तो नहीं है, लेकिन विशेषज्ञों और रिपोर्ट की मानें तो 2022 तक किसानों की आया दोगुनी नहीं हो सकती।

पिछले साल आर्थिक सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट आयी थी। रिपोर्ट में वित्त वर्ष 2018-19 के लिए कृषि सेक्टर का ग्रोथ 2.1 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया था। हालांकि यह अनुमान से थोड़ा बेहतर 2.7 रहा जबकि इसके पिछले वित्त वर्ष में यही दर 4.9 प्रतिशत थी। सेंट्रल स्टैटिस्टिक्स ऑफिस (CSO) ने भी यही आंकड़ें पेश किए थे। ये रिपोर्ट 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के सरकारी दावों पर प्रश्न चिन्ह लगाती है।

किसान अपनी आय और मांगों को लेकर सरकार के खिलाफ दिल्ली, मुंबई जैसे बड़े शहरों में प्रदर्शन करते रहे हैं। नाराज किसानों ने कभी संसद तो कभी पीएमओ की चौखट तक प्रदर्शन किया, लेकिन स्थिति में कोई सार्थक बदलाव होता नहीं दिख रहा है।

नेशनल सैम्पल सर्वे ऑफिस (NSSO) ने 2016 में किसानों की आय को लेकर जो आकड़ा जारी किया था उसके अनुसार 2012-13 में हर कृषि परिवार की औसतन मासिक आय 6426 रुपए है। इसी साल नाबार्ड ने भी एक रिपोर्ट जारी की थी जिसमें कहा गया था कि पिछले तीन सालों में किसानों की आय 40 फीसदी तक बढ़ी है। 8931 रुपए प्रति महीने किसानों की आय होने की दावा भी किया गया। यहां दोनों रिपोर्ट पर नजर डालेंगे तो इनमें काफी असामानता दिखती है।

इस पर भारतीय किसान समन्वय समिति के संयोजक और और स्वराज इंडिया के संस्थापक योगेंद्र यादव कहते हैं, सरकार की कृषि निति का पूरा ध्यान उत्पादन पर रहता है। लेकिन उत्पादक की ओर सरकार का कोई ध्यान नहीं है। सरकार आगामी तीन साल में किसानों की आय सरकार दोगुनी नहीं कर सकती।" वो आगे कहते हैं, "सरकार की नीतियां किसान विरोधी हैं। सरकार वोट के चक्कर में किसानों को लाभ नहीं दे पा रही।"

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2016 के बाद किसानों की आय में कितनी बढ़ोतरी हुई है इस पर कोई रिपोर्ट तो नहीं आयी है। 2017 में नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार 2022 तक किसानों की आय दोगुनी तभी हो सकती है जब कृषि क्षेत्र का विकास 10.4 फीसदी की दर से होगा।

इस पर जाने माने कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी कहते हैं "जिस कृषि विकास दर की बात अभी की जा रही मतलब 10.4 फीसदी, वो तो बहुत पुरानी हो चुकी है। देश में कृषि विकास की दर इससे ज्यादा तो दो साल पहले ही होनी चाहिए थी। सरकार फरवरी 2016 में ही वादा किया था, इस हिसाब से दो साल का समय तो बीत चुका है। ऐसे में किसानों की आय दोगुनी तभी संभव है जब इस समय ही 13 फीसदी कृषि विकास दर होती, जो कि 2030 से पहले तो होता नहीं दिख रहा। ऐसे में किसानों के लिए अच्छे दिनों तो नहीं आये हैं।"

एग्री बिजनेस मामलों के जानकार कमल शर्मा दूसरी समस्या की ओर भी ध्यान दिलाते हैं। कमल कहते हैं "सितंबर 2018 में केंद्र सरकार ने महंगाई जो आंकड़े पेश किये थे वो बेहद चिंताजन हैं। रिपोर्ट के अनुसार भारत की थोक और खुदरा महंगाई क्रमश: 3.8 और 2.2 प्रतिशत थी। महंगाई की यह दर 18 महीनों में सबसे कम थी। इसका असर किसानों पर पड़ा, क्योंकि जब बाजार में कीमत ही कम होगी तो किसानों को उपज का सही दाम कैसे मिलेगा।


प्रधानमंत्री मोदी ने जब किसानों की आय दोगुनी करने की बात कही तो उसके लिए अशोक दलवाई कमेटी का गठन किया गया। कमेटी ने बताया था कि किसानों की आय दोगुनी करने के लिए 2022-23 तक आय का 69 से 80 प्रतिशत खेती और पशुपालन से प्राप्त करना होगा। जबकि पिछले साल ही आई नाबार्ड कि रिपोर्ट बताती है कि खेती और पशुपालन के जरिए कमाई में भारी कमी आई है। एनएसएसओ की पिछली रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2012-13 में कृषि परिवार की कमाई का लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा कृषि व्यवसाय (कृषि/पशुपालन) से था जबकि लगभग 32 प्रतिशत कमाई मजदूरी/रोजगार वेतन से होता था।

2019 लोकसभा चुनाव को देखते हुए ही कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने गरीबों के लिए न्यूनतम आधारभूत आय की घोषणा की है। उन्होंने कहा कि कोई भूखा नहीं रहेगा, कोई गरीब नहीं रहेगा"। भाजपा ने भी ने दो हेक्टेयर तक वाले किसानों को सालाना छह रुपए देने का वादा आचार संहिता लगने से पहले ही कर दिया था। अब तो समय ही बतायेगा कि इससे किसानों की आय में कितनी बढ़ोतरी होती है।

आत्महत्या जो थम नहीं रही

लोकसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान के ठीक एक दिन पहले उत्तराखंड में एक किसान ने आत्महत्या कर ली, जबकि इसी हफ्ते (10 अप्रैल) से पहले महाराष्ट्र में 2 किसानों ने जान दी।

महाराष्ट्र किसानों की कब्रगाह बनता जा रहा है, यहां पर औसतन आठ किसान हर रोज मौत को गले लगा रहे हैं। जबकि 2016 तक के आंकड़ों के अनुसार पूरे देश में औसतन 33 किसान रोज आत्महत्या कर रहे हैं, बावजूद इसके राजनैतिक पार्टियों की रैलियों और भाषणों से ये मुद्दा गायब है।

"अकेले औरंगाबाद जिले में सिर्फ 2019 में कम से कम 300 किसानों ने आत्महत्या की, लेकिन चुनाव में कोई नेता पानी की बात नहीं कर रहा, जिसके लिए हमारे शेतकारी (किसान) जान दे रहे। यहां जाति और धर्म के नाम पर वोट मांगे जा रहे हैं।" मुंबई से 600 किलोमीटर दूर औरंगाबाद जिले के पारंडु गाँव के किसान जाकिर जमीरुद्दीन शेख ने फोन पर कहा।

यहां तक की भारत के किसी राज्य में किसानों की आत्महत्या के मुद्दे पर चुनाव नहीं हुए। महाराष्ट्र के बाद आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और पंजाब से लगातार किसानों की खुदकुशी की ख़बरें आती रही हैं।

"यह देश की त्रासदी ही है कि कृषि प्रधान देश में चुनाव है और किसानों की आत्महत्या मुद्दा नहीं, क्योंकि राजनीतिक पार्टियों को किसानों की चिंता ही नहीं है।" देविंदर शर्मा कहते हैं। देविंदर शर्मा देश के प्रख्यात खाद्य एवं निर्यात विशेषज्ञ हैं, पिछले 30 वर्षों से वो लगातार खेती और किसानों के मुद्दे पर लिखते रहे हैं।

जाकिर के पिता के नाम पर तीन एकड़ से कुछ ज्यादा जमीन है, जिसमें मौसम्मी और अनार की बाग लगी है। यहां आखिरी बार 2015 में अच्छी बरसात हुई थी। पिछले दो साल से वो अपने गाँव से 35 किलोमीटर दूर से पानी टैंकर से लाते हैं। जाकिर बताते हैं, "मौसम्मी की फसल में गर्मियों में 10 जून तक पानी देना होता है। गर्मियों के चार महीने में इस खेती पर करीब सात लाख से साढ़े सात लाख रुपए खर्च हो जाते हैं। जबकि पिछले साल सूखे और अच्छा रेट मिलने से सिर्फ तीन लाख की मौसम्मी बिकी थी, यानि चार लाख का कम से कम घाटा। अब ऐसे में किसान कैसे कर्ज चुकाएगा और कैसे घर चलाएगा। परेशान शेतकारी जान दे देता है।"


महाराष्ट्र की फणनवीश सरकार ने जून 2017 में 34,000 करोड़ की कर्जमाफी की थी। एक आरटीआई के अनुसार करीब 4500 किसानों ने कर्जमाफी के बाद जान दी। यानि कर्ज़माफी किसानों को संकट से उबार नहीं पाई। किसानों की आत्महत्या की ये जानकारी मुंबई के आरटीआई कार्यकर्ता जितेंद्र गड़ने के सवाले के जवाब में दी। भारत में किसानों और खेतिहर मजूदरों की आत्महत्या के ताजा आंकड़े सिर्फ महाराष्ट्र से ही उपलब्ध होते हैं।

राजनैतिक दलों की खेती और किसानों की उपेक्षा किए जाने के बारे में वरिष्ठ कृषि विशेषज्ञ योगेन्द्र यादव ने गाँव कनेक्शन से कहा, "फरवरी तक ऐसा लग रहा था कि इस बार के चुनावों में गाँव, गरीब और किसान हावी रहेंगे, लेकिन चुनाव नजदीक आते-आते मुद्दे ऐसे बदले जैसे एक्जाम से पहले सिलेबस बदल दिया गया हो। लगता है पूरे चुनाव का पटरी से उतारे की साजिश है।"

किसानों की आत्महत्या के आंकड़े गृह मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट में दर्ज किए जाते हैं, लेकिन 2016 के बाद नए आंकड़े जारी नहीं हुए। जिसे लेकर किसान नेता और जनप्रतिनिधि लगातार सवाल उठाते रहे हैं।

वर्ष 2018 के शीतकालीन सत्र में कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री राधा मोहन सिंह ने लोकसभा में कृषि संकट पर चर्चा के दौरान एक सवाल के जवाब में बताया था, "कृषि मंत्रालय के पास 2016 के बाद से किसानों की आत्महत्या के आंकड़े उपलब्ध नहीं है। मंत्रालय के मार्च 2016 के अपने आंकड़ों के अनुसार 11,300 किसान और मजदूरों ने आत्महत्या की।" राधा मोहन सिंह टीएमसी के सांसद और पूर्व रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी के सवाल का जवाब दे रहे थे।

एनसीआरबी 'भारत में दुर्घटनावश मृत्यु तथा आत्महत्या' नामक रिपोर्ट में इसका उल्लेख करता है। लेकिन 2015 के बाद प्रकाशित रिपोर्ट में किसान आत्महत्या के आंकड़े दर्ज नहीं है।

भारत में आत्महत्याओं के आंकड़ों को दर्ज करने वाली संस्था नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की पुरानी रिपोर्ट के मुताबिक 2013 में पूरे देश में 11172, वर्ष 2014 में 12,360 और 2015 में 12,602 किसानों ने जान दी। जिसमें 8,002 किसान और 4,595 खेतिहर मजदूर शामिल थे। एनसीआरबी द्वारा रिपोर्ट न जारी किए जाने को लेकर सरकार लगातार कठघरे में रही है।

मैग्सेसे पुरस्कार विजेता देश के दिग्गज ग्रामीण पत्रकार पी. साईनाथ लगातार कहते रहे हैं किसानों की बढ़ती आत्महत्या को छिपाने के लिए सरकार आंकड़े जारी नहीं कर रही है।

किसानों के मुद्दों पर गांव कनेक्शन का स्पेशल पेज यहां पढ़ें-



29 और 30 नवंबर-2018 को दिल्ली में देशभर के किसानों ने किसान मुक्ति संसद का आयोजन किया। इस आयोजन में कई लाख किसान दिल्ली पहुंचे थे। प्रदर्शन में शामिल हुए पी. साईनाथ ने गाँव कनेक्शन से विशेष बातचीत में कहा था, "पिछले 20-25 सालों से सरकार खेती किसानों से छीन रही है। किसानों का संकट अब उनका नहीं रह गया है ये पूरे समाज का संकट है।' साईनाथ किसान आत्महत्या, सूखा और खेती के दूसरे मुद्दों को लेकर तीन हफ्ते का संसद का विशेष सत्र भी बुलाए जाने की मांग करते रहे हैं।

"किसान आज आईसीयू में है। उसे सबसे पहले इंजेक्शन देके आईसीयू से बाहर लाना होगा। उसके बाद जनरल वार्ड में बाहर आने पर बीमारी की दवा देनी होगी, जब अस्पताल के बाहर आ जाए तो मार्निंग वाक, प्राणायाम और डायट भी दीजिए।" योगेंद्र यादव

कृषि के जानकार और किसान नेता लगातार ये भी आरोप लगाते रहे हैं कि आंकड़े इसलिए देरी से प्रकाशित किए जा रहे हैं ताकि उनमें उलटफेर किया जा सके। दिसंबर 2018 में ही गाँव कनेक्शन के अपने कॉलम 'जमीनी हकीकत' में देविंदर शर्मा ने आंकड़ों पर सवाल उठाते हुए लिखा था, "पंजाब में कुल 271 आत्महत्याएं दिखाई गई हैं। लेकिन यह आंकड़ा उसका एक तिहाई है जो तीन विश्वविद्यालयों ( पंजाब एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी, लुधियाना, पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला और गुरू नानक देव यूनिवर्सिटी) ने अमृतसर ने घर-घर जाकर जुटाया था।

इसके मुताबिक, सन 2000 से 17 वर्षों के बीच 16,600 किसानों और खेतिहर मजदूरों ने अपनी जान दी थी। दूसरे शब्दों में, इन विश्वविद्यालयों ने आधिकारिक तौर पर एक साल में औसतन 1000 आत्महत्याओं की बात कही थी, लेकिन एनसीआरबी के आंकड़ों ने इन्हें बहुत कम करके, महज 271 दिखाया है। मुझे भरोसा है कि दूसरे राज्यों के शोधकर्ता भी इसी तरह की विसंगतियों को उजागर करेंगे।

भारत में किसानों की दुर्दशा के बारे में योगेन्द्र यादव कहते हैं, "किसान आज आईसीयू में है। उसे सबसे पहले इंजेक्शन देके आईसीयू से बाहर लाना होगा। उसके बाद जनरल वार्ड में बाहर आने पर बीमारी की दवा देनी होगी, जब अस्पताल के बाहर आ जाए तो मार्निंग वाक, प्राणायाम और डायट भी दीजिए।"

कर्ज़ में डूबे किसानों की आमहत्या का सिलसिला 1990 से चला और 1995 से एनसीआरबी ने इन्हें अलग सेक्शन में लिखना शुरु किया था। किसानों की आत्महत्या पर यूपीए नीत मनमोहन सरकार भी घिरी थी। तत्कालीन कृषि मंत्री शरद पवार के बयानों पर काफी हंगामा भी हुआ। किसानों की आत्महत्या पर मौजूदा कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह की भी काफी आलोचना हुई, मीडिया रिपोर्ट के अनुसार राधामोहन सिंह ने कहा कि किसान मीडिया में आने के लिए आत्महत्या करते हैं।

"भारत की आधी से ज्यादा जनसंख्या सीधे खेती पर निर्भर है। यानी करीब 60 करोड़ लोगों के लिए खेती बड़ा मुद्दा है। बावजूद इसके किसानों की आत्महत्या का चुनावों में मुद्दा न बनना, उस पर सवाल न उठना गंभीर विषय है।"देविंदर शर्मा कहते हैं।

पानी जो सूखता जा रहा

आधा भारत पानी के संकट से जूझ रहा है। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और बिहार के कुछ हिस्से भीषण सूखे की चपेट में हैं। इन राज्यों के सैकड़ों जिलों में लोग बूंद-बूंद पानी को तरस रहे हैं। सरकारी आंकड़ों, शोष संस्थानों की रिपोर्ट पढ़ने से पहले देश के 4 राज्यों के 4 गांवों की स्थिति समझ लीजिए।

1. मध्य प्रदेश के उज्जैन के रानी पिपलिया गांव दुला बाई पिछले दिनों अपने गांव से दूर कुएं से पानी लेने गई थीं। गहरे कुएं में गिरने से उन्हें चोट लग गई। यहां लोग 40-50 फीट गहरे कुओं में उतर पर पानी लाने को मजबूर हैं। मध्य प्रदेश के देवास, पन्ना और समना समेत कई जिलों में सूखे की स्थिति है।

2. उज्जैन से 475 किलोमीटर दूर महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के पारंडु गांव के जाकिर शेख मौसमी की बाग में जो पानी लगा रहे हैं, वो 6 रुपए लीटर पड़ रहा है। शेख के मुताबिक वो गांव से 35 किलोमीटर दूर एक डैम से पानी लाते हैं। जहां 20 हजार लीटर पानी लाने में 3000 रुपए का खर्च आता है। जबकि अभी बारिश आने में तीन महीने बाकी है।

3. औरंगाबाद से 1600 किलोमीटर दूर आदिवासी बाहुल्य झारखंड के कोडरमा के कई इलाकों में जनवरी-फरवरी महीने में ही कुएं सूखने लगे थे। मरकच्चो प्रखंड के डगरनवा पंचायत के अरैया गांव में के गदौरी कुमार बताते हैं, "हमारे गाँव में 90 हाड़िया (परिवार) हैं, दो चापाकल (हैंडपंप) हैं, जो सूख पड़े हैं, एक कुआं है, जो फरवरी आते-आते सूख जाता है, तब हम गाँव वालों को दो किमी. दूर से पानी लाना पड़ता है। मानसून आने तक यही हमारी जिंदगी का हिस्सा है।" यहां गांवों से दूर खेत के गड्ढों और तालाबों का पानी पीने को मजबूर हैं।

4. उत्तर प्रदेश का सोनभद्र जिले के दुद्धी तहसील नगवा की रहने वाली रीता अपने गांव से काफी मैदान में हाथ से गड्ढा खोदकर पानी लेकर आती हैं। यहां पर महिलाओं और बच्चों के जिम्मे पूरे दिन का काम है कि वो पानी लाकर परिवार की जरूरत पूरा करें।

"मौसम विभाग 15 या 16 अप्रैल को मानसून को लेकर अपना पूर्वानुमान जारी करेगा। मानसून के बारे में तभी कुछ जानकारी मिलेगी।" डॉ.एस.पई, वैज्ञानिक, भारत मौसम विभाग पुणे


कृषि प्रधान देश में खेती का बड़ा हिस्सा मानसून पर निर्भर है। यानि पानी होगा तो खेती होगी। मॉनसून अच्छा होगा तो खेती अच्छी होगी, जो उत्पादन पर असर डालेगी। यानि किसानों का ये साल कैसा होगा, अर्थ व्यवस्था, महंगाई से लेकर जीडीपी तक सब मानसून पर प्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष रूप से निर्भर करते हैं। अकेले झारखंड में 85 फीसदी जमीन ऐसी है जहां बारिश होने पर ही एक फसल होती है।

देश के किसानों के साथ नीति निर्माताओं को अब मानसून का इंतजार है। इसलिए सबकी निगाहें भारत मौसम विभाग की अगले हफ्ते आने वाली रिपोर्ट पर है। क्योंकि मौसम की जानकारी देने वाली निजी संस्था स्काईमेट ने अलनीनो की आशंका जाहिर की है। जिसमें बारिश कम होने की आशंका है। हालांकि स्काईमेट ने फरवरी महीने में सामान्य मानसून की संभावना जताई थी।

"मौसम विभाग 15 या 16 अप्रैल को मानसून को लेकर अपना पूर्वानुमान जारी करेगा। बारिश कैसी होगी और मानसून के बारे में तभी कुछ जानकारी मिलेगी।" पुणे में आईएमडी के वैज्ञानिक डॉ.एस.पई ने गांव कनेक्शन को बताया। देश में मौसम विभाग का पुणे सेंटर ही मानसून को लेकर रिपोर्ट तैयार करता है।

हाई रेजुलेशन साउथ एशिया ड्रॉट मानिटर ने 6 अप्रैल 2019 को जारी 'ड्रॉट अर्ली वॉर्निंग सिस्टम (डीईडब्ल्यूएस) इंडिया' नाम से जारी अपनी रिपोर्ट में बताया कि भारत का 16.59 फीसदी हिस्सा इस वक्त लगभग भीषण सूखे से जूझ रहा है। जबकि 41 फीसदी हिस्से में सूखे जैसे हालात हैं। इसी रिपोर्ट में बताया गया है कि 6 अप्रैल 2018 को देश का मात्र 10.81 फीसदी हिस्सा भीषण सूखे की चपेट में था।


"महाराष्ट्र के साथ ही आंध्र प्रदेश उत्तरी तमिलनाडु, झाराखंड और बिहार के कुछ जिलों में समस्या ज्यादा गंभीर है। जिन इलाकों में भू-जल की स्थिति ठीक है। वहां ज्यादा समस्या नहीं होगी, बाकि इलाकों में स्थिति बदतर हो सकती है। दूसरी बात इस वक्त ये निर्भर करेगा कि स्टोरेज पानी (जलाशय आदि) का हम उपयोग कैसे करते है।" प्रो. विमल मिश्रा, आईआईटी गांधीनगर

इससे पहले आईआईटी गांधीनगर की वाटर एंड क्लाइमेट लैब ने इस साल भारत में सूखे की स्थिति के आंकड़े जारी कर दिए हैं। उसके मुताबिक इस समय देश का 47 फीसदी हिस्सा यानी करीब आधा देश सूखे की चपेट में है। ये हालात जब है जबकि बारिश आने में अभी तीन महीने का वक्त है। देश में 2015 के बाद के बाद देश में सूखे की चपेट में है। 2017 में जरूर कुछ इलाकों में अच्छी बारिश हुई थी।

आईआईटी गांधीनगर के प्रो. विमल मिश्रा गांव कनेक्शन को बताते हैं "महाराष्ट्र के साथ ही आंध्र प्रदेश उत्तरी तमिलनाडु, झाराखंड और बिहार के कुछ जिलों में समस्या ज्यादा गंभीर है। जिन इलाकों में भू-जल की स्थिति ठीक है। वहां ज्यादा समस्या नहीं होगी, बाकि इलाकों में स्थिति बदतर हो सकती है। दूसरी बात इस वक्त ये निर्भर करेगा कि स्टोरेज पानी (जलाशय आदि) का हम उपयोग कैसे करते है। पानी बिना नहीं रहा जा सकता तो बाकि की उपगियोगिता में 10-15 फीसदी की कटौती की जा सकती है।"

चुनाव में पानी के मुद्दा बनाने न चर्चा न होने पर प्रो. विमल कहते हैं, "पानी का मुद्दा चुनाव से खत्म नहीं होगा। इसके लिए जनचेतना और दीर्घकालीन योजनाएं चाहिए। सरकारें आती जाती रहेंगी, पानी तय है कि कितना है। उसका अच्छे से इस्तेमाल करना है। किसानों को ऐसी फसलें, ऐसे तरीके बताने होंगे कि वो कम पानी में बेतहर उपज ले पाएं।"

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देश के खाद्य विशेषज्ञ और कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा कहते हैं "सूखे इलाकों पर नजर दौडाएं तो इन इलाकों में भारत की करीब 50 करोड़ जनता रहती है। लेकिन अफसोस चुनाव में इसे मुद्दा नहीं बनाया गया। सूखग्रस्त किसान कैसे खेती करेगा, कर्ज के दलदल में फंसेगा और फंसता जाएगा।'

पानी संकट से सबसे ज्यादा परेशानी महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश में है। महाराष्ट्र में शेतकारी संगठन (किसान संगठन) के संस्थापक सदस्य विजय जावंधिया बताते हैं, "महाराष्ट्र में खेती तो दूर पीने का पानी का संकट हो गया है। हमारे यहां 90 फीसदी एरिया वन क्रॉप (एक फसली क्षेत्र) है। जब पिछले वर्ष बारिश नहीं हुई थी तो मार्च-अप्रैल में कुएं सूखे हैं। अगर ‍इस वर्ष अच्छी बारिश नहीं हुई तो आगे जाने क्या होगा।"

पिछले कुछ वर्षों में भारत में बारिश का रुख बदला-बदला है। पिछले साल अरुणांचल प्रदेश, झारखंड, दक्षिणी आन्ध्र प्रदेश और तमिलनाडु के उत्तरी इलाकों में बहुत कम पानी गिरा था। यही इलाके अब भीषण सूखे की चपेट में हैं। वाटर एंड क्लाइमेट लैब ने मौसम विभाग के आंकड़े, मिट्टी की नमी, और भूजल की स्थिति का गुणाभाग लगातार सूखे का आंकलन किया है।

पिछले दिनों कई अंतरराष्ट्रीय रपटें भारत में आने वाले भूजल संकट को लेकर चेता भी चुकी हैं। उन रपटों के मुताबिक आने वाले वर्षों में भारत में कई इलाके ऐसे पाए जाएंगे जहाँ भूजल समाप्त हो चुका होगा। देश के चुनावी माहौल में पानी भी किसान के दूसरे मुद्दों की तरह चर्चा से बाहर है। देश में सूखा भी घोषित नहीं हुआ है। सूखा घोषित होने पर सरकारों को कई तरह की सहूलियतें देनी होती है।

एमएसपी जो मिलती नहीं

बिहार का सीमांचल क्षेत्र देश में मक्के की खेती के लिए जाना जाता है। लेकिन आश्चर्य वाली बात यह है कि यहां मक्के की खरीद सरकारी दर यानि एमएसपी पर होती ही नहीं। पटना से करीब 450 किलोमीटर किशनगंज के तूलिया गांव के पूर्व मुखिया और किसान बीएन ठाकुर बताते हैं, "मक्का हमारी मुख्य फसल है। लेकिन दुर्भाग्य ये कि किसानों को इसका अच्छा रेट नहीं मिलता। हमारे यहां सरकारी खरीद ( न्यूनतम समर्थन मूल्य, एमएसपी) नहीं होती। तो मजबूरी में जब फसल कटती है किसान 900 से लेकर 1000 रुपए प्रति कुंतल तक में उसे बेच देता है।"

देश में एमएसपी की त्रासदी कोई नई बात नहीं हैं। जब भी किसी फसल की पैदावार अच्छी होती है तो बाजार में उसकी कीमत गिर जाती है। इससे किसानों को नुकसान न हो इसीलिए सरकार ने 24 प्रमुख फसलों की एमएसपी तय की है। लेकिन जमीन पर इसके बेहतर क्रियान्वयन न होने के कारण इसका लाभी किसानों को मिल ही नहीं पाता।

जनवरी 2016 में नीति आयोग ने 'किसानों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के प्रभाव का मूल्यांकन अध्ययन' शीर्षक से रिपोर्ट पेश की थी। रिपोर्ट में बताया गया कि 81 प्रतिशत किसान विभिन्न फसलों की एमएसपी के बारे में जानते तो जरूर हैं लेकिन उनमें से महज 10 फीसदी ही ऐसे हैं जो बुआई सत्र से पहले सही दर जान पाते हैं। 62 फीसदी किसानों को बुआई सत्र के बाद एमएसपी की जानकारी हो पाती है।


इसी रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि 67 फीसदी किसानों ने अपनी फसल निजी को सीधे बेचा जबकि 21 प्रतिशत ने बिचौलियों के माध्यम से। इसमें सबसे बड़ी परेशानी की बात यह भी है कि जिन किसानों को एमएसपी का लाभ मिलता है उनका समय पर भुगतान ही नहीं हो पाता। 51% किसानों को फसल बेचने के एक हफ्ते बाद राशि मिली जबकि 20 प्रतिशत किसानों को तुरंत।

12 अक्टूबर 2018 को गांव कनेक्शन ने देश में एमएसपी की सच्चाई जानने के लिए सरकार की वेबसाइट एगमार्कनेट डॉट जीओवी डॉट इन के आंकड़ों की पड़ताल की। इस पड़ताल में सामने आया कि देशभर के किसानों को प्रतिदिन दो करोड़ रुपए से ज्यादा का नुकसान हो रहा है, इसमें उन्ही मंडियों की कीमत देखी गयी थी जो ऑनलाइन थ। देश में यह हाल किसानों का तब है जब सरकार 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करना चाहती है।

वर्ष 2018 में देश के कई हिस्सों में स्वराज अभियान संगठन के अध्यक्ष योगेंद्र यादव ने एमएसपी को लेकर सत्याग्रह चलाया था। पिछले दिनों गांव से बातचीत के दौरान उन्होंने कहा था कि एमएसपी मजाक है। देश में ऐसी कोई मंडी ही नहीं है जिस पर किसान सरकार की तय हुई एमएसपी पर अपनी पूरी फसल बेच सके। एमएसपी बढ़ाने को लेकर बहस हो सकती है पर मौजूदा हालात में कॉटन को छोड़कर किसानों को हर फसल के दाम एमएसपी से बहुत कम मिल रहे हैं।

ऐसे में सवाल यह भी है कि जब सरकार ने कीमत तय की है तो उस पर फसल की खरीद क्यों नहीं होती। इस बारे में मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के मंडी अध्यक्ष शेषराव यादव कहते हैं " व्यापारी मंडियों में कीमत बढ़ने ही नहीं देते। पिछली प्रदेश सरकार में तो यहां इसी को देखते हुए भावांतर योजना शुरू कई गयी थी, भाव के अंतर को पाटने के लिए। लेकिन इस सरकार में योजना पर कोई चर्चा नहीं है। अब हमारे यहां उड़द की पैदावार खूब होती है। इसकी सरकार कीमत 5600 रुपए है लेकिन बहुत कम ही बार ऐसा होता है इसकी कीमत 5000 से ऊपर जाती हो।"

देशभर में हुए पिछले साल के आंदोलनों में किसान स्वामीनाथ रिपोर्ट को लागू करने की मांग करते रहे हैं। हालांकि 2018 में बजट पेश करते हुए सरकार ने लागत का 1.5 गुना देने का ऐलान तो कर दिया था लेकिन वित्त मंत्री ने यह नहीं बताया कि लागत को जोड़ा कैसे जायेगा। यह टकरार अब भी बरकरार है जबकि लोकसभा चुनाव 2019 की शुरुआत हो चुकी है, पहले चरण का मतदान 11 अप्रैल से शुरू हो चुका है।

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