प्याज की राजनीति- 'किसानों के आंसुओं में वो दम नहीं कि सरकार हिला सके'

LokSabha Election 2019: चुनावी घमासान में आरोप प्रत्यारोप का दौर तेज है। पाकिस्तान से लेकर आसमान को मुद्दा बनाया जा रहा है। लेकिन नेताओं की चुनावी रैलियों और पोस्टरों से किसानों के मुद्दे गायब हैं, गांव से जुड़े मुद्दे गायब हैं। गांव कनेक्शन अपनी सीरीज इलेक्शन कनेक्शन के जरिए आपसे जुड़े इन्हीं मुद्दों को प्रमुखता से उठाएगा।

Mithilesh DharMithilesh Dhar   6 April 2019 12:25 PM GMT

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Onion politics, onion farmers in india, potics on onion in indiaप्याज की कीमतों से सरकार को तब परेशानी में आती है जब इससे उपभोक्ताओं को दिक्कत होती है.

लखनऊ। भारत में चुनाव का माहौल हो और प्याज की बात न हो, ऐसा कम ही होता है। भारत की राजनीति में प्याज से निकलने वाले आंसुओं का असर बड़ा गहरा पड़ता है। लेकिन यह ज्यादा असरदार तब होता है जब आंसू उपभोक्ताओं के होते हैं। किसानों के आंसुओं में वो वजन नहीं होता जो सरकार गिरा सके। देश की राजनीति के पुराने पन्ने पलटेंगे तो पता चलेगा कि एक दौर वह भी तब प्याज की बढ़ती कीमतों से सरकारें बनती, बिगड़ती थीं। लेकिन अब कीमतें बढ़ती ही नहीं हैं, प्याज पर राजनीतिक नियंत्रण और मजबूत हो गया है। आंसू किसानों के निकलते जरूर हैं लेकिन वो चर्चाओं से आगे नहीं बढ़ पाती।

सन 1977, आपातकाल के बाद देश में हुए चुनाव में पहली बार गैर कांग्रेस सरकार बनी। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। लेकिन जनता पार्टी में फूट पड़ने के बादये सरकार गिर जाती है। फिर कांग्रेस की ही मदद से चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने, लेकिन समर्थन ज्यादा दिनों तक नहीं रहा।

1980 में फिर से चुनाव होना सुनिश्चित हुआ। इस चुनाव में महंगाई प्रमुख मुद्दा बना। और इसमें प्याज की बढ़ती कीमतों पर सबसे ज्यादा चर्चा हुई। यहां तक की प्याज की बढ़ती कीमतों की तरफ ध्यान खींचने के लिए कांग्रेस के नेता सीएम स्टीफन संसद में प्याज की माला पहन कर गये।

चुनावी भाषणों में इंदिरा गांधी ने प्याज की कीमत को खूब भुनाया, उन्होंने कीमतें कम करने का वादा किया, और इस पर सरकार भी बनी। तब भारत में हुए इस चुनाव में प्याज इतना बड़ा मुद्दा था कि अमरेकी अखबार वाशिंगट पोस्ट ने इस पर खबरी भी लिखी। नौ जनवरी 1980 में छपी खबर में स्टुअर्ट अवरबेक ने लिखा 'Gandhi Win Brings Drop in Onion Price' खबर में लिखा गया कि भारत में बिना प्याज के कुछ बनता नहीं। इंदिरा गांधी प्याज की बढ़ती कीमतों को नियंत्रित करने के वादे के साथ चुनाव जीत गयीं।


यही नहीं प्याज की बढ़ती कीमतों ने राज्यों की राजनीति पर भी व्यापक असर छोड़ा। प्याज की कीमत बढ़ने के कारण ही 1998 में दिल्ली की सरकार गिर गयी थी तब सुषमा स्वराज मुख्यमंत्री थीं। प्याज की कीमत 100 रुपए प्रति किलो से ज्यादा हो गयी और जनता-जनार्दन ने दिल्ली से भाजपा को बेदखल कर दिया।

इसके बाद फिर यहां कांग्रेस की सरकार बनी और शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री की सीट मिली। लेकिन 2013 में जब वे मुख्यमंत्री थीं तब उनकी सरकार को भी प्याज की बढ़ती कीमतों ने घेरा और जिसका नतीजा यह हुआ कि 2014 में उन्हें करारी हार झेलनी पड़ी। 2010 में जब देश में महंगाई दर दो अंकों में थी, तो इसका मुख्य कारण प्याज की कीमतें ही थीं। इसका असर उस समय के चुनाव पर भी पड़ा था।

2002-03 में जब केंद्र में अटल विहारी वाजपेयी की सरकार थी। तब एक समय जब प्याज की कीमत शतक लगाने के करीब थी तब भोजपुरी गायक और इस समय के दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष मनोज तिवारी का गाना 'पियजिया अनार हो गइल' खूब सुना गया था।

तारीख छह जून 2017, जगह मध्य प्रदेश का जिला मंदसौर। मंडियों में प्याज की कीमत एक से दो रुपए तब पहुंच गयी थी। जबकि किसानों को मानना है कि एक किलो प्याज पैदा करने में 8 से 10 रुपए का खर्च आता है। नाराज किसान प्याज की ज्यादा कीमत मांग रहे थे। विरोध के स्वर सड़कों पर पहुंच गया।

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पुलिस ने फायरिंग की और छह निर्दोष किसान मारे गये, लेकिन भाजपा की सरकार को कुछ नहीं हुआ। दो साल बाद 2019 में मध्य प्रदेश में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा हारी जरूर लेकिन बहुत कम अंतर से। जबकि मंदसौर की चार विधानसभा सीटों में से तीन पर भाजपा की विजय हुई।

पिछले दिनों की ही बात है। नासिक के एक प्याज किसान को 750 किलो प्याज के बदले 1064 रुपए मिला तो उन्होंने उसे पीएमओ कार्यालय को भेज दिया, यह उनका अपना विरोध का तरीका था। पिछले चार सालों से देश में प्याज की कीमतें लगातार गिर रही हैं। कहीं-कहीं तो मंडियों में कीमत 50 पैसे प्रति किलो तक पहुंच गयी। लेकिन चूंकी इसका फायदा सीधे से उपभोक्ताओं से जुड़ा है इसलिए प्याज की राजनीतिक महत्ता कम होती दिख रही है।


मध्य प्रदेश का मालवा क्षेत्र प्याज और आलू की खेती के लिए जाना जाता है। मिनी मुंबई के नाम से मशहूर इंदौर से लगभग 40 किमी दूर महू ब्लॉक के हरसोला गांव के किसान कृष्णा पाटीदार ने इस साल दो बीघे () में प्याज की खेती की है। वे गांव कनेक्शन से बात करते हुए कहते हैं "मंडी में प्याज कीमत पांच से छह रुपए प्रति किलो (500 से 600 रुपए प्रति कुंतल) मिल रही है। ऐसे में मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं कि खेत से निकल रहे प्याज का क्या करूं।"

आपको बता दें कि मंदसौर गोलीकांड के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने प्याज की कीमत आठ रुपए तय की थी। मध्य प्रदेश सरकार ऐसा करने वाला पहला प्रदेश बना था।

कृष्णा हमें प्याज की खेती का गणित समझाते हैं। वो बताते हैं कि कैसे प्याज की खेती उनके जैसे किसानों के लिए घाटे का सौदा बनती जा रही है। एक बीघे प्याज की खेती में आने वाली लागत के बारे में कृष्णा कहते हैं "एक बीघा (आधा एकड़) में प्याज की खेती के लिए सबसे पहले तो पांच हजार रुपए की बीज ही लग जाता है। इसके बाद प्याज को चोपने (खेत में लगाने) की पूरी प्रक्रिया में चार से पांच हजार रुपए का खर्च आ जाता है। इसके बाद खाद और दवाओं का खर्च 15 हजार रुपए से ज्यादा हो जाता है।

कृष्णा आगे कहते हैं "इसके बाद जब फसल पक जाती है तब निकालने के लिए जो मजदूर लगते हैं उसके पीछे भी सात से आठ हजार रुपए खर्च हो जाते हैं। कुल मिलाकर एक बीघा में 30 से 35000 रुपए का खर्च आ जाता है जबकि पैदावार सवा सौ कुंतल (100 कुंतल से ज्यादा) के आसपास होती है, ऐसे में वर्तमान दर पांच रुपए के प्रति किलो के हिसाब कुल 50000 रुपए की फसल होती है। इसमें ट्रैक्टर से मंडी तक जाना, सिंचाई आदि का पानी नहीं जुड़ा है। ऐसे में आप खुद फायदे और नुकसान का आकनन कर सकते हैं। कृष्णा कहते हैं कि एक किलो प्याज पैदा करने में कम से कम 10 से 11 रुपए खर्च आता है। ऐसे में हमें कीमत 1500 रुपए कुंतल तक मिले तो कुछ बात बने।"

कृष्णा को मिली प्याज की कीमत का बिल

भारत दुनिया में चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा प्याज उत्पादक देश है। कृषि उत्पादों के निर्यात पर नजर रखने वाली सरकारी एजेंसी एपीडा के मुताबिक देश में प्याज की फसल दो बार आती है। पहली बार नवम्बर से जनवरी तक और दूसरी बार जनवरी से मई तक। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा प्याज होता है करीब 30 प्रतिशत। इसके बाद कर्नाटक 15 प्रतिशत उत्पादन के साथ दूसरे स्थान पर है। फिर आता है मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात का नंबर। 2015-16 में देश में 2.10 करोड़ टन प्याज का उत्पादन हुआ था। वहीं 2016-17 में करीब 1.97 करोड़ टन।

लेकिन सच्चाई यह भी है कि कीमत न मिलने से प्याज के रकबे में कमी भी आ रही है। कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार 2015-16 में 13,20,000 हेक्टेयर में प्याज उगाया गया था। 2016-17 में गिरकर 13,06,000 हेक्टेयर हो गया। जबकि 2017-18 में यह और घटकर 11,96,000 हेक्टेयर तक पहुंच गया।


देश की मंडियों में प्याज की कीमत क्या है यह पता लगाना अब इतना मुश्किल नहीं रहा है। क्रय-विक्रय का रिकॉर्ड रखने वाली सरकारी वेबसाइट एगमार्केट के अनुसार अगर इस साल देश की सबसे बड़ी प्याज मंडी महाराष्ट्र की लासलगांव में प्याज की कीमत तीन जनवरी को एक रुपए प्रति किलो तक पहुंच गयी थी, जबकि इस साल का औसत देखेंगे तो कीमत पांच रुपए से ज्यादा पहुंची ही नहीं।

प्याज के खेल के बारे में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के एग्री बिजनेस मैनेजमेंट के प्रोफेसर डॉ सेन चंद्र कहते हैं "सरकार से लेकर विपक्ष तक ने प्याज के नाम पर सिर्फ राजनीति की लेकिन प्याज के नाम पर देश में क्या हो रहा है, इसकी सच्चाई कभी सामने लाने की कोशिश नहीं की। चूंकि उपभोक्ता शहरों में रहते हैं इसलिए उनकी आवाज बड़ी आसानी से सुन ली जाती है। जब दाम बढ़ता है तब उपभोक्ताओं के सामने सरकार झुक जाती है लेकिन किसान राजनीति के केंद्र में तो हैं लेकिन उनका इस्तेमाल बस वोटों तक ही सीमित है।"

देश में अभी सबसे ज्यादा प्याज की पैदावार कर्नाटक में होती है। हालांकि वहां प्याज की कीमत देश में अन्य राज्यों से ठीक लगती है। कोलार के रहने वाले प्याज किसान और व्यापारी वसीम खान कहते हैं "हमारे यहां तो प्याज की कीमत 800 से 850 रुपए तक है। लेकिन इसमें मुनाफा नहीं है। हमारे यहां लागत ज्यादा आती है। हालांकि अभी चुनाव में नेता वादा कर रहे हैं कि अब सरकार बनी तो प्याज की कीमत इतनी मिलेगी कि किसान मुनाफे में रहेगा।"

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राष्ट्रीय किसान मजदूर महासंघ के नेता भगवान मीणा कुछ मुद्दों की तरफ भी ध्यान दिलाते हैं। वे कहते हैं "प्याज के ज्यादातर किसान छोटी जोत वाले होते हैं। ऐसे में वे उसे कीमत बढ़ने तक अपने पास नहीं रख सकते। ऐसे में उन्हें जो कीमत मिलती है उसी पर बेच देते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में महंगाई प्रमुख मुद्दा थी। लेकिन जैसे ही नई सरकार तो उन्हें भी लगा कि कहीं उनके साथ भी वह न हो जो पिछली सरकारों के साथ हुआ। ऐसे में उन्होंने कीमतों पर नियंत्रण लगाना शुरू कर दिया। क्योंकि उन्हें पता है कि टमाटर प्याज की कीमत बढ़ती है तो वो मुद्दा बन जाता है। पांच साल पहले जो फसलें ठीक कीमतों पर बिक रही थीं उन्हें आज सरकार कीमत भी नहीं मिल पा रही है।"

फिर सरकार ने क्या किया

2014 में जब देश में भाजपा की सरकार बनी तो उन्होंने कीमतों पर नियंत्रण के लिए मूल्य स्थिरीकरण फंड (पीएसएफ) बनाया। इसके तहत तीन सालों के लिए 500 करोड़ का कार्पस फंड बनाया गया। इस योजना में होना यह था कि केंद्र सरकार राज्य सरकारों को फंड देती ताकि वे बाजार के मामलों में दखल दे सकें। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि सरकार का यह फैसला भी उपभोक्ताओं को ध्यान में रखकर लिया गया था।

माहाराष्ट्र, नासिक के किसान नीलेश अहेरोरा कहते हैं कि 2013-14 में प्याज की जो कीमत हमें मिल रही थी अब उससे आधा मिल रहा है, जबकि पैदावार बढ़ी है। कई साल तो ऐसा हुआ कि प्याज बेचने के बाद मंडी तक आने-जाने का किराया भी नहीं निकल पाया। ऐसे में हम अब यह भी सोच रहे हैं कि प्याज की जगह किसी और खेती की ओर ध्यान दें।


फरवरी 2018 में देश का बजट पेश करते हुए केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने ऑपरेशन फ्लड की तर्ज पर 'ऑपरेशन ग्रीन' चलाने की घोषणा की थी। इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टॉप प्रायोरिटी (टोमैटो, ओनियन, पोटैटो) का नारा दिया। सरकार की मंशा प्याज, आलू और टमाटर किसानों को राहत देने की थी। योजना थी कि प्याज को तब तक भंडारित रख जायेगा जब तक उसकी कीमत बढ़ती नहीं, लेकिन योजना जमीन पर कहीं नहीं दिखती।

राजनीतिक पार्टी स्वराज इंडिया के मुख्य प्रवक्ता अनुपम कहते हैं "आज की राजनीति ने हर बुनियादी मुद्दे को कमज़ोर किया है। किसानों के नाम पर इस सरकार ने सिर्फ झूठा प्रचार प्रसार और जुमलेबाजी की है। ये भी सही है कि समस्या जब शहरी उपभोक्ता पर आती है तो उसका ज़्यादा असर होता है। टीवी अखबार से लेकर राजनीतिक पार्टियों तक के बयानों में तुरंत जगह बना लेती है। लेकिन किसान को अपनी बात सुनाने के लिए ही बहुत संघर्ष करना पड़ता है। हमारे देश में प्याज़ हमेशा से एक राजनीतिक फसल रही है, लेकिन सिर्फ उपभोक्ताओं के लिए। किसानों के लिए तो कोई भी फसल राजनीतिक फसल नहीं बन पाती।"


  

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