"दलित शब्द का प्रयोग वर्जित होना चाहिए"

यदि हम गैरबराबरी को मिटाने की बात करेंगे तो दलित और दलनकर्ता कहां से बराबर होंगे और यदि हम जातिविहीन समाजकी कल्पना करेंगे तो अनुसूचित नाम की जाति मनु ने बनाई ही नहीं

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दलित शब्द का प्रयोग वर्जित होना चाहिए

चुनाव आयोग ने आजम खां, योगी आदित्यनाथ, मेनका गांधी और मायावती को अमर्यादित बयानों के लिए चुनाव प्रचार से कुछ समय के लिए रोक दिया तो मायावती ने कहा यह दलित समाज का अपमान है । चार बार मुख्यमंत्री रहने के बावजूद वह अभी तक दलित हैं ऐसा कोई नहीं मान सकता। राजस्थान के मुख्यमंत्री गहलोत ने तो महामहिम राष्ट्रपति के लिए भी कुछ ऐसी ही शब्दावली का प्रयोग किया।

भारत में इंसानों को रौंदने कुचलने का काम ना तो पहले कभी हुआ है और न अब हो सकता है इसलिए दलित समाज की कल्पना धूर्ततापूर्ण और मूर्खतापूर्ण है यहां तो हिमालय कहता है '' दलित इेसे करना पीछे पहले मेरा सिर उतार "। जो लोग अपने समाज को दलित समाज कहते हैं वे बच्चों में हीनभाव पैदा कर रहे हैं, शायद न्हें इनका इल्म नहीं है।

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भारत में वर्ण व्यवस्था के अनुसार जिन्हें शूद्र कहा जाता था वे अब शूद्र नहीं रहे और उस शब्द का प्रयोग भी वर्जित हो गया। महात्मा गांधी ने हरिजन शब्द का प्रयोग किया जो दलित की अपेक्षा सम्मानसूचक है फिर भी वह संबंधित समाज को पसंद नहीं आया और वह भी वर्जित हो गया। दक्षिण भारत में एक वर्ग था ''पारिया'' जिसकी परछाई सवर्ण पर पड़ जाय तो वह तुरन्त जाकर नहाता था। अब कोई पारिया नहीं है।

यदि हम गैरबराबरी को मिटाने की बात करेंगे तो दलित और दलनकर्ता कहां से बराबर होंगे। और यदि हम जातिविहीन समाजकी कल्पना करेंगे तो अनुसूचित नाम की जाति मनु ने बनाई ही नहीं। और फिर ''अनु'' का अर्थ है छोटी।

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ऐसा लगता है कुछ लोग अपनी जाति बताने के बजाय दलित कहने में गर्व का अनुभव करते हैं। सोचिए जिनके हाथ में देश की हुकूमत और खजाने की चाभी हो उन्हें किसी हालत में दलित नहीं माना जा सकता। इस मामले में लालू यादव की शब्दावली ठीक है ''गरीब गुरगबा', यह सेकुलर शब्द है।

चुनाव आयोग ने जिन लोगों पर प्रचार का प्रतिबंध लगाया उनमें मोहम्मद आजम खां भी सम्मिलित हैं। उनके बेटे ने कहा कि आजम खां पर प्रतिबंध इसलिए लगा कि वह मुसलमान हैं। यह कुतर्क के अलावा कुछ नहीं है। मुसलमानों का कोई विषेशाधिकार नहीं जो उन पर प्रचार की मर्यादा लागू न हो।

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कोई भी शब्द चाहे जातिसूचक हो या नहीं उसमें तिरस्कार भाव चिपकाता है हमारा समाज। शब्द अपने साथ अर्थ नहीं लाता। जब कर्मानुसार जाति व्यवस्था बनी तो कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं माना जाता था। यदि कोई व्यक्ति अपने को गर्व के साथ चर्मकार, रविदास, रैदा, चौधरी, जाटव कहे तो ये शब्द गर्व से बोले गए दलित से छोटे हैं। यदि हम अपने को दलित कहेंगे जो कोई जाति नहीं होती तो जातीय आरक्षण के हकदार कैसे हो जाएंगे।

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जब कोई अरबपति महिला अपने को दलित की बेटी कहती है तो यह परिचय कितना सार्थक है, सोचकर देखिए। दलित की बेटी या दलित का बेटा कहने से वह स्वयं दलित नहीं हो जाता उसके पूर्वज कमजोर भले ही रहे हों। यदि हम अतीत की बेड़ियों को काटकर नई शुरुआत नहीं कर सके तो मुसलमानों के साथ तो हिन्दुओं का शुत्रुभाव कभी समाप्त ही नहीं होगा। मेहरबानी करके अपने को दलित न कहिए अन्यथा आपके बच्चों में अपूरणीय हीनभाव पैदा हो जाएगा ।

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