गाँव के लिए अभिशाप बनी नाचने की कसम

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गाँव के लिए अभिशाप बनी नाचने की कसमgaonconnection

दुदइयाखेड़ा (लखनऊ)। नौटंकी, आरकेरस्ट्रा या नाच कुछ भी कहें मगर ये उनके जीवन का सबसे बड़ा हिस्सा बन गया है। एक कसम जवानी की दहलीज पर लड़कियों और लड़कों दोनों को खानी पड़ती है।

वो कसम होती है कि अपनी आने वाली जिंदगी अब नाच कर ही बिताएंगे। शादियों में और समारोहों में उनको बुलाया जाता है। कुछ रुपए लेकर ये परिवार नाचते हैं और अपना पेट पालते हैं। इनके पास न तो खेती है और न ही अपनी जमीन। सरकारी योजनाएं और विकास के दावे इनसे दूर होकर निकलते हैं। जिंदगी नांचते हुए और लोगों के मजाक, तानें और अश्लील फब्तियों को सुनते हुए ही बीत जाती है।

कहीं बहुत दूर की नहीं उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में ही मुख्य शहर से करीब 35 किलोमीटर दूर बंथरा में दुदइयाखेड़ा गाँव के एक मजरे की बस यही कहानी है। इस मजरे में रहने वाले एक खानदान एक दर्जन परिवारों का बस यही काम हैं। बच्चे बड़े होते हैं और उनको अपनी खानदानी परंपरा नाच गाने में शामिल होना पड़ता है। शुरुआत में तो ये बहुत आसान होता है मगर जिंदगी में उम्र बढ़ने पर कुछ रुपए तो मिलते हैं मगर साथ ही मिलती है बेइज्जती।

आगरा के पास फतेहपुर के मूल निवासी नचनिया परिवार के ये लोग खुद को बृजवासी बताते हैं। अपने नाम के आगे बृजवासी ही लिखते हैं। रमेश कुमार (40 वर्ष) के चार बच्चे हैं। बेटी संजना जो करीब 11 वर्ष की है, उनके साथ खड़ी है। पास के बेसिक स्कूल में चौथी कक्षा में पढ़ती है मगर उसको उम्मीद कम है कि वह अब आगे भी पढ़ पाएगी।

वजह ये है कि खानदानी रवायत को उसे भी आगे बढ़ाना ही होगा। पिता रमेश कुमार बृजवासी बताते हैं, “अपनी कोई खेती जमीन नहीं है। हम सब आदमी-औरत नांचने गाने का ही काम करते हैं। बच्ची अभी पढ़ रही है। कोशिश है कि ज्यादा पढ़े, मगर कमाई का कोई जरिया हमारे पास नहीं है। खेती भी नहीं है। एक जगह जाते हैं ते ज्यादा से ज्यादा 3000 रुपए मिलते हैं। जिसमें करीब 10 लोगों की मंडली होती है। ऐसे कार्यक्रम भी बहुत नहीं मिलते हैं। हम इसके अलावा और कुछ नहीं कर सकते हैं। इसलिए हमको यही काम करना है।”

हम कला बेचते हैं कुछ और नहीं

महिलाओं और लड़कियों के नृत्य के दौरान होने वाली अश्लीलता और फब्तियों को लेकर गाँव की ही मीरा देवी बताती हैं, “हमारी नाचने की कला है हम कुछ और नहीं बेचते हैं। अश्लीलता का मुंह तोड़ जवाब देते हैं। वैसे तो मेजबान की सारी जिम्मेदारी होती है। कोई यू हीं हमारी बेइज्जती नहीं कर सकता है। मगर लोग परेशान करने की कोशिश जरूर करते हैं।”

टीचर बनना चाहता है हरिओम

गाँव के बाहर सबसे किनारे के मकान में 13 वर्ष का हरिओम अपनी विधवा मां के साथ रहता है। वह छठी कक्षा में स्थानीय सरकारी स्कूल में पढ़ रहा है। बहुत कुरेदने पर उसने बताया कि मैं मास्टर बनकर गरीब बच्चों को पढ़ाना चाहता हूं। अपने परंपरागंत काम से वह नहीं जुड़ना चाहता है।

पहले लोकगीतों पर नाचते मगर अब फिल्मी गीतों पर

यहां के लोग बताते हैं कि पहले वे लोकगीतों पर नाचा करते थे मगर अब वे फिल्मी गीतों पर नाचते हैं। लोगों के बीच अब फिल्मी गीतों की डिमांड भी बढ़ी है। इसलिए अब नये गानों पर नाचते हैं। गवैये, ढोलकिए वगैरह भी होते हैं।

रिपोर्टर - ऋषि  मिश्र

स्वयं प्रोजेक्ट डेस्क

 

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