गांव का एजेंडा: प्रिय नरेंद्र सिंह तोमर जी, ये समस्याएं दूर हो जाएं तो बदल सकते हैं कृषि क्षेत्र के हालात

गांव का एजेंडा: प्रिय नरेंद्र सिंह तोमर जी, ये समस्याएं दूर हो जाएं तो बदल सकते हैं कृषि क्षेत्र के हालात

खेती-किसानी से लेकर पशुओं को पालने तक किसानों को क्या समस्याएं आ रही हैं ? क्या है उन समस्याओं का हल ? इस स्पेशल सीरीज में गाँव कनेक्शन केंद्र की नई मोदी सरकार के सामने उठा रहा है गाँवों के उन मुद्दों को जिनसे देश की एक तिहाई आबादी हर रोज जूझती है। आज की खबर के केंद्र में हैं खेती और किसान

Arvind Shukla

Arvind Shukla   10 Jun 2019 5:34 AM GMT

प्रिय नरेंद्र सिंह तोमर, ( Narendra Singh tomar कृषि, सहकारिता एवं किसान कल्याण मंत्री, भारत सरकार)

भारत के किसान आपसे कुछ कहना चाहते हैं...

ग्रामीण भारत की अर्थव्यवस्था के केंद्र में खेती और किसान हैं। देश के करीब 60 करोड़ लोग प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रुप से खेती से जुड़े हैं। किसान दूसरों का पेट भरता है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से कृषि प्रधान देश में कृषि और किसान संकट में हैं। गांव और किसान केंद्रित भारत के सबसे बड़े ग्रामीण मीडिया प्लेटफार्म होने के चलते गांव कनेक्शन कुछ सुझाव दे रहा है, जो इस क्षेत्र में बड़ा बदलाव ला सकते हैं।

कृषि को संकट से उबारना और किसानों की आमदनी को वादे के मुताबिक बढ़ाना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने दूसरी पारी में सबसे बड़ी चुनौती होगी। नई सरकार ने पहले दिन जो काम किए वो किसानों में उम्मीद जगाते हैं, सभी किसानों को साल में 6,000 रुपए की सीधी आर्थिक मदद, बुजुर्ग किसानों को पेंशन और पशुपालन का अलग से मंत्रालय बनाना सार्थक कदम है, लेकिन चुनौती ये भी पिछले डेढ़ दशक में कृषि विकास दर निचले स्तर पर है।

ऐसे में देश के विकास को रफ्तार और किसानों को संकट से उबारने के लिए सरकार को कई बड़े कदम उठाने होंगे। पिछले तीन वर्षों में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र और कर्नाटक समेत कई कृषि प्रधान राज्यों में कुछ शर्तों में साथ लाखों किसानों कर्ज़ माफ हुआ था, बावजूद इसके साढ़े चौदह करोड़ किसानों वाले भारत में किसान परेशान हैं।


महाराष्ट्र में मुंबई से करीब 400 किलोमीटर दूर सांगली जिले में तहसील वाल्वा में कारनबाड़ी के सुरेश कबाड़े (50 वर्ष) देश के सबसे अच्छे गन्ना किसानों में एक हैं। कृषि संकट पर बात करने पर सुरेश कहते हैं, "महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी महराज शेतकारी योजना में कई पेंच थे, लाखों किसानों को योजना का लाभ नहीं मिला। हम कहते हैं चलो कर्ज़माफी न करो लेकिन कम से कम हमारी फसलों का अच्छा दाम तो दे दो, बाकी सब किसान खुद कर लेगा।"

सुरेश काबड़े कमोबेश वही कह रहे जो भारत के करोड़ों किसान अपने शब्दों में कहते आए हैं। बढ़ती लागत के बोझ तले दबे किसानों और खेती को फायदा का रोजगार बनाने के लिए नई सरकार ये कदम उठा सकती है।

1.किसानों को गांव में रोके रखना (पलायन)

आंकड़ों के मुताबिक भारत के करीब 57 फीसदी आबादी यानी 60 करोड़ लोग खेती पर निर्भर हैं। दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था कृषि संकट से गुजर रही है। भारत शहरीकरण की लहर से जूझ रहा है और लगभग एक करोड़ लोग हर साल शहर और कस्बों की तरफ रुख कर रहे हैं। विश्व बैंक ने इसे इस सदी का विशालतम ग्रामीण और शहरी पलायन कहा है। खेती छोड़कर किसान शहरों में मजदूरी करने जा रहे। ऐसे में सरकार के सामने सबसे ब बड़ा संकट किसान को गांव में रोके रखना है, उसे ग्रामीण स्तर पर रोजगार देना है।

"सरकार ने साल के 6000 रुपए दिए वो अच्छी बात है लेकिन सिर्फ इतने में किसानों को गांव में रोका नहीं जा सकता है। बढ़ती महंगाई के लिए आमदनी का विकल्प देना होगा। मनरेगा को ग्रामीण विकास में सार्थक उपयोग के लिए खेती से जोड़ना होगा, छोटे किसानों की आमदनी बढ़ानी होगी।" ग्रामीण मामलों के जानकार देश के वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह फोन पर बताते हैं।

ऑर्गेनाइजेश फॉर इकनामिक कॉपरेशन एंड डेलवमेंट ( OSDC) की जुलाई 2018 में आई रिपोर्ट के मुताबिक 2004-12 के बीच भारत में सेल्फ एम्पलाई वर्कर (self employed worker किसान) कम हो गए हैं और हैं और कैजुअल वर्कर यानि मजदूर बढ़ गए हैं, इसकी एक बड़ी वजह बहुत सारे कृषि उत्पादों की बाजार में अच्छी कीतम न मिलना भी है। किसान का मुनाफा लगातार कम होता जा रहा है।

भारत की 2011 की जनगणना के मुताबिक साल 2001 से 2011 के बीच 86 लाख किसान कम हो गए थे। ये कमी ही पलायन का रुप है। इसके लिए ग्रामीण उद्योग, मंडियों का निर्माण, बेहतर सिंचाई जैसे कई निम्न बिंदुओं पर गंभीरता से काम करना होगा-





2. न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद

भारत में 23 जिंस (कृषि उपज) की सरकारी खरीद होती है। लाभकारी मूल्य पर की चर्चा से दूर अगर सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की बात करें तो कुल उत्पादन का सिर्फ 35 ही सरकार खरीद पाती है। पिछले 15 वर्षों के आंकड़े यही कह रहे हैं।

वर्ष 2002-03 से 2017-18 तक भारत में 13 सौ 40 मिलियन टन गेहूं पैदा हुआ, जबकि सरकारी खरीद हुई 358.82 मिलिटन टन की। इसी तरह देश की प्रमुख फसल धान का इसी समय अवधि में 1557.75 मिलियन टन का कुल उत्पादन हुआ, लेकिन सरकारी एजेसियों द्वारा सिर्फ 487.60 मिलियन टन की खरीद हुई। बाकी फसलों की दशा और खराब है।

कई सरकारी रिपोर्ट में माना गया है कि महज कुछ फीसदी किसानों को एसएमएपी का लाभ मिलता है। बिचौलिए इसका फायदा उठाते हैं। हरियाणा में सरसों और राजस्थान में मूंगफली खरीद में किसान काफी परेशान हुए। राष्ट्र स्तर की बात करें तो नई खरीद में आधार, फिंगरप्रिंट (थंब) और जैसी कई व्यवस्थाएं लागू हुईं लेकिन इसे और पारदर्शी और किसान अनुकूल बनाए जाने की जरूरत है।

200 से ज्यादा किसान संगठनों की समिति किसान संघर्ष समन्वय समिति के संयोजक वीएम सिंह कहते हैं, "संसद को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानून बनाना चाहिए, ताकि तय रेट से कोई कारोबारी किसान की फसल खरीद न सके, और खरीदे तो उसे जेल हो, साथ ही किसानों को फसल बुवाई से पहले बताया जाए कि उनकी फसल किस दर पर बिकेगी।"


3. हर खेत तक सिंचाई की सुविधा

कृषि योग्य जमीन के मामले में भारत दुनिया में अमेरिका के बाद दूसरे नंबर पर है। भारत में 14.2 करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य (आर्थिक सर्वेक्षण-2018) जमीन पर खेती होती है। लेकिन ज्यादातर हिस्सा बारिश के पानी पर निर्भर है। महाराष्ट्र, गुजरात, झारखंड जैसे राज्यों में मॉनसून खेती का आधार है। पूरे देश की बात करें तो 52 फीसदी हिस्सा अनियमित सिंचाई और बारिश पर निर्भर है। ऐसे में खेत तक पानी पहुंचना अनिवार्य है।

यहां नहरें खेती के लिए जीवनदायिनी हो सकती थीं लेकिन ज्यादातर नहरें सूखी पड़ी हैं। 40 साल बाद भी यूपी के पूर्वांचल की सरयू नहर परियोजना पूरी नहीं हो पाई है। महाराष्ट्र में खेत तालाब योजना लगभग फेल हो गई है। कम बारिश और अवैध खनन से जूझ रही नदियों के हालात को देखते हए सिंचाई की परियोजनाओं पर नए सिरे से विचार की जरूरत है।

कृषि संकट के उपाय खोजते वक्त सरकार को महाराष्ट्र जैसे सूखा प्रभावित (अंसिचिंत क्षेत्र) को ध्यान में रखना होगा। महाराष्ट्र का मराठवाड़ा इलाके में सूखे से तबाही आ गई है। तो बदलते मौसम में कोसी और गंगा जैसी नदियों की जमीन बिहार में सूखा से किसानों का हलक सूख रहा है। ऐसे में सबसे जरूरी हो जाता है कि सिंचाई को केंद्र में रखकर योजना बनें।

आईटीसी में एग्री बिजनेस के प्रभागीय मुख्य कार्यकारी शिवकुमार सुरमपुड़ी अपने एक लेख में लिखते हैं,

"हर खेत तक पानी पहुंचाने के लिए राष्ट्रीय सिंचाई प्राधिकरण की स्थापना करना होगा। जल आपूर्ति (विभिन्न क्षेत्रों में जल संचय) और खपत (कुशल पंपों और सुक्ष्म सिंचाई) के लिए खाका (ब्लूप्रिंट) और प्राकृतिक जल निकायों के पुनरोद्धार के लिए रोडमाप तैयार करना होगा।"

भारत की पानी की समस्या से निपटने के लिए जानकार और विशेषज्ञ दो चीजों पर जोर दे रहे पेड़ लगाओ और पानी बचाओ। "पानी की समस्या से बिना वाटर कंजरवेशन नहीं निपटा जा सकता है। महाराष्ट्र की तरह गुजरात के आदिवासी बाहुल्य पहाड़ी इलाके पानी की संकट से जूझ रहे हैं। दाहोद, पंचमहल, गोधरा, अरावली, डांग पहाड़ी इलाके हैं। डांग में गुजरात का सबसे ज्यादा पानी बरसता है लेकिन सब बह जाता है हमें पानी बचाने के तरीकों युद्ध स्तर पर काम करना होगा।" गुजरात के अहमदाबाद में रहने वाले डॉ. दीपक आचार्य कहते हैं। डॉ. दीपक आदिवासियों की दुनिया को काफी करीब से समझते हैं।


4. क्रॉप पैटर्न में बदलाव

ऐसे में जबकि भारत में दिनों दिन पानी की समस्या विकराल होती जा रही है तो हमें उन फसलों को विकल्प तलासने होंगे, जिनमें ज्यादा पानी की जरूरत होती है। दक्षिण से इतर उत्तर भारत में भी पानी की समस्या दिनों तक गहराती जा रही है। हरियाणा-पंजाब में लोग पानी न होने के चलते खेती तक बेच रहे हैं। फतेहाबाद के दिलीप सिंह के पिता ने अपनी 20 एकड़ जमीन सिर्फ इसलिए बेच दी क्योंकि वहां पानी नहीं था। इसी तरह गुजरात के बनासकांठा जिले के चतराला गांव में कई किसानों ने खेतों को खाली छोड़ रखा है क्योंकि पानी नहीं है।

ऐसे में साल में 2019 में हरियाणा की मनोहर लाल खट्टर सरकार के उस फैसले और किसानों से अपील पर ध्यान देने की जरूरत है, जिसमें उन्होंने प्रदेश के किसानों के धान न लगाने की अपील की है। बदले में किसानों को2000 रुपए प्रति एकड़ की मदद और वैकल्पिक फसलों (मोटे अनाज) के बीज मुफ्त में देने की बात की है।

ऐसा कई राज्यों में तत्काल किए जाने की जरूरत है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गंगा यमुना क्षेत्र के कई जिलों में भूगर्भ जल लगातार नीचे जा रहा है। लगातार गन्ने की खेती के चलते यहां के कई जिले डार्क जोन में आ चुके हैं। इसी तरह महाराष्ट्र में केला और गन्ने की खेती के किसानों को विकल्प दिए जाने की जरूरत है।

फसल चक्र में बदलाव और मौसम आधारित खेती इसलिए भी जरूरी हो जाती है क्योंकि भारत के बड़े भू-भाग पर जलवायु परिवर्तन का असर दिख रहा है। सूखा, बाढ़ और ओलावृष्टि की बढ़ती घटनाओं से बिना सरकारी दीर्घकालीन मदद और योजना के किसान उबर नहीं पाएंगे।

अरुणाचल प्रदेश के फिरोज त्यांग मौसम को किसानों की राहत बड़ी बाधा बताते हैं, "मौसम के अनुरूप बारिश नहीं होती, मौसम पहले जैसे नहीं रहा। किसानों को अब मौसम के हिसाब (अनुरुप) बोना पड़ेगा। लेकिन हम लोग तो धान, सरसों, अरदक बोते रहे हैं, अब क्या और कैसे बोएं इसकी जानकारी नहीं।"



5. देश में मंडियों का जाल और गांव हाट

साल 2000 से साल 2017 यानि 17 सालों में किसानों को कृषि उत्पादों की कम कीमत मिलने से करीब 45 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। ऑर्गेनाइजेश फॉर इकनामिक कॉपरेशन एंड डेलवमेंट (OECD-ICAIR) की हालिया रिपोर्ट में ये आंकड़े सामने आए थे।

कम कीमत की बड़ी वजह मंडियों की कमी भी है। किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए गठित स्वामीनाथन आयोग ने देश में मंडियों के जाल पर खासा जोर दिया था। आयोग की सिफारिशों के मुताबिक हर पांच किलोमीटर पर एक मंडी होनी चाहिए।

लेकिन मेघालय में एक मंडी से दूसरी मंडी की दूरी 60 किमोमीटर है। राजस्थान, आंध्रप्रदेश, उत्तराखंड और नागालैंड समेत कई राज्यों में ये दूरी 16 किलोमीटर दूर तो अरुणाचल प्रदेश में 46 किलोमीटर के बाद दूसरी मंडी मिलती है।

आयोग की सिफारिशों की माने तो देश में 42 हजार से ज्यादा मंडियां होनी चाहिए थीं लेकिन हैं सिर्फ 6,630 मंडियां। देश के वरिष्ठ कृषि पत्रकार, ग्रामीण मामलों के जानकार और राज्यसभा टीवी में संसदीय मामलों के संपादक अरविंद कुमार सिंह कहते हैं, "राजग सरकार की पहली पारी में ग्रामीण हाट की जो योजना थी वो अच्छी थे लेकिन वो जमीन पर उतर नहीं पाई। उम्मीद है इस कार्यकाल में उस पर काम हो। अब क्योंकि ग्रामीण विकास और कृषि मंत्रालय एक ही मंत्री के पास हो तो उम्मीद है पहले बेहतर सामंजस्य के साथ काम होगा।"



6. किसानों की निश्चित आमदनी

केंद्र सरकार अब सभी किसानों को साल के 6,000 रुपए की सीधी आर्थिक मदद कर रही है। खेती के क्षेत्र में कई सार्थक कदम उठाने वाले दक्षिण भारत के तेलंगाना में किसानों को प्रति एकड़ 8 हजार रुपए दिए जा रहे हैं।

2014 को वजूद में आए तेलंगाना में के. चंद्रशेखर राव सरकार किसानों को फसल के सीजन के आधार पर रुपए देती है। एक एकड़ पर 4000 रुपए देने का प्रावधान है। ये रुपए साल में दो बार (खरीफ और रबी के सीजन में) दिया जाते हैं। ऐसे में किसान को एक एकड़ जमीन पर 8000 रुपए साल में मिलना तय है। अगर किसी किसान के पास 5 एकड़ जमीन है तो साल में 40 हजार रुपए उसे मिलेंगे। ये किसानों के लिए बड़ी राहत है।अलग अलग शब्दों के साथ किसान और किसान हितैषी लगातार ये बात कहते रहे हैं कि फसल का लाभकारी मूल्य (भले मौजूदा एमएसपी) और साल में खेत के अनुपात में एक निश्चित आमदनी की गारंटी दी जानी चाहिए।

कृषि और निर्यात नीति विशेषज्ञ देविंदर शर्मा साल में कम से कम 18000 रुपए किसान को देने की हिमायत करते रहे हैं। प्रधानमंत्री के पूर्व आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमणियम ने भी किसानों को निश्चित आमदनी देने की बात कही थी। इसके लिए उन्होंने quasi-universal basic rural income, (QUBRI) का सुझाव दिया था।

7. कृषि के लिए बनीं संस्थाओं में किसानों की ली जाए सलाह

कृषि प्रधान देश में कोई कृषि आयोग नहीं है। कुछ समितियां बनीं लेकिन उनकी रिपोर्ट को पूर्णत: लागू नहीं किया गया। ऐसे में सबसे जरूरी है इन किसानों की आवाज़, इनके मुद्दों को युद्ध स्तर पर समझने और उनका तर्कसंगत हल निकालने के लिए एक राष्ट्रीय किसान आयोग बने।

कृषि संकट का हल सुझाते हुए देश के प्रख्यात खाद्य एवं निर्यात विशेषज्ञ और देविंदर शर्मा कृषि एवं किसान कल्याण आयोग बनाए जाने का सुझाव देते हैं। ये आयोग कि किसानों की फसल की लागत को देखते हुए दाम तय करे, उनकी समस्याओं के समाधान और दूरगामी नीतियां बनाए।

दूसरा जो आयोग बनें उससें किसानों की भागीदारी हो और उन्हें सिर्फ सलाहकार संस्थाएं न बनाया जाए। एमएसपी तय करने के लिए कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) है लेकिन उसके सुझावों पर अमल नहीं होता। जरूरत है कि सीएसीपी हो या नीति आयोग इनमें न सिर्फ किसानों की भागीदारी हो बल्कि ऐसी संस्थाओं को संविधानिक अधिकार भी दिए जाएं।

8. खेती में निजी निवेश

भाजपा ने अपने संकल्प पत्र में कृषि उत्पादन बढाने के लिए पांच साल में कृषि क्षेत्र में 25 लाख करोड़ रुपए लगाने की बात की थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी लगातार कॉरपोरेट से कृषि में योगदान की बात करते रहे हैं। ऐसे में माना जा रहा है संकल्प पत्र के वादे पर सरकार चलती है तो निजी क्षेत्र की भूमिका अहम हो जाती है।

9. राज्य स्तर पर मॉनिटरिंग और सामंजस्य

केंद्र की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने अपनी पहली पारी में कृषि क्षेत्र के लिए कई सकारात्मक कोशिशें शुरू की थीं। उर्वरकों की आपूर्ति, बीज और कीटनाशकों की उपलब्धता काफी हद तक पूरी हुई। लेकिन प्रधानमंत्री की महत्वाकांक्षी और किसान उपयोगी मृदा परीक्षण जैसी योजना का हाल, व्यवस्था तंत्र में सुधार की मांग करता है।

मौजूदा प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना लगातार सवालों के घेरे में है। प्राकृतिक आपदाओं के वक्त जीपीएस आधारित सैटेलाइट मॉनिटरिंग हो और तुरंत क्षतिग्रस्त फसल का मुआवजा देने की जरुरत है।

माइक्रो सिंचाई योजनाओं बूंद-बूंद पानी जैसी योजनाओं पर सरकार 90 फीसदी तक सब्सिडी दे रही है लेकिन सरकारी रेट व्यवस्था में ये उपकरण काफी महंगे पड़ रहे हैं। पिछली सरकारों की कई सिंचाई योजनाओं पर तेजी से काम चला लेकिन उनमें से ज्यादातर 2019 में नई सरकार बनने तक अधूरी ही रहीं।

खेती राज्य का विषय है ऐसे में कई राज्यों और केंद्र सरकार बीच सामांजस्य बढ़ाने की जरूरत है। सरकारी की योजनाएं राज्य सरकार जमीन पर उतारती है, जिस बेहतर मॉनिटरिंग की जरूरत है।


10. तकनीकी से छोटे किसानों की मदद

भारत के ज्यादातर किसान छोटे और मझोले (लघु और सीमांत 2 से 5 एकड़ वाले) किसान हैं। छोटे जोत वाले किसान कम जमीन में ज्यादा उपज ले सकें, इसलिए इन्हें तकनीकी की बहुत जरूरत है। लेकिन इस वर्ग के ज्यादातर किसान सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित रह जाते हैं। सोलर पंप, ड्रिप इरीगेशन, पॉलीहाउस, मशीनीकरण आदि योजनाओं में भारी सब्सिडी है लेकिन इनमें शुरुआती पूंजी किसान को लगानी होती है, छोटे किसान पैसे के अभाव में पीछे रह जाते हैं जबकि बड़े और छद्म किसान इनका फायदा उठाते हैं।

उदाहरण के लिए एक एकड़ खेत में ड्रिप इरीगेशन (बूंद-बूंद सिंचाई) के लिए किसान के पास अगर ट्यूबवेल-पंपिंग सेट है तो 50 हजार रुपए और पंपिंग सेट समेत करीब 90 हजार का खर्च आता है। प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के अंतर्गत 50 हजार के सापेक्ष में करीब 40 हजार का अनुदान मिलता है। इसमें 10 फीसदी अंश किसान और 12 फीसदी जीएसटी होती है, जीसएटी पर कोई छूट नहीं है। योजना अच्छी है, छूट का पैसा भी 15 दिन से एक महीने में किसान के खाते में पहुंच जाता है। गुजरात और राजस्थान समेत कई जिलों में कई जिले पूरी तरह ड्रिप से लाभान्वित हैं लेकिन यूपी और बिहार जैसे राज्यों में अलग नीति की जरुरत है।

ड्रिप इरीगेशन से जुड़ी बड़ी कंपनी जैन इरिगेशन से यूपी में कई जिलों के प्रमुख रविंद्र वर्मा बताते हैं, "योजना बहुत अच्छी है। योजना के तहत बैंक छोटे किसानों को किसी कीमत पर लोन देने से मना नहीं कर सकते, लेकिन ग्रामीण इलाकों की बैंकों को नियम की जानकारी ही नहीं।' ऐसे छोटे किसानों के लिए नियमों को और सरल करने की जरूरत है।





11. खाद्य प्रसंस्करण और पोस्ट क्रॉप हार्वेटिंग

इसके अलावा खाद्य प्रसंस्करण, फल और सब्जियों के कोल्ड चेन, विशेष भंडार गृह बनाए जाने की जरूरत है। इस कार्य में निजि क्षेत्र की मदद ली जाए और स्थानीय स्तर पर युवाओं को सस्ता कर्ज देकर प्रस्ताहित किया जा सकता है। मुद्रा जैसी योजनाएं यहां सार्थक हो सकती है।

पोस्ट क्रॉप हार्वेटिंग यानि फसल कटाई के बाद फसल का एक बड़ा हिस्सा बर्बाद होता है। मशीनी करण ने कुछ राह आसान की है लेकिन इस क्षेत्र में किसानों को प्रशिक्षित करने की जरूरत है।

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