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यहाँ कुंभकरण और मेघनाथ नहीं सिर्फ रावण का पुतला जलाया जाता है

दुनिया भर में जहाँ भी दशहरा मनाया जाता है, वहाँ पर रावण के साथ कुंभकरण-मेघनाथ के पुतले भी जलाए जाते हैं, लेकिन लखनऊ में नई प्रथा शुरू हुई है सिर्फ रावण का पुतला जलाने की।
#DASSEHARA

भगवान् राम के भाई लक्ष्मण के नगर में कुंभकरण और मेघनाथ को जीवन दान मिल गया है।

जी हाँ, रावण के बेटे मेघनाथ और भाई कुंभकरण को यहाँ के निवासी मारने के मूड में नहीं हैं।

लखनऊ की ऐतिहासिक ऐशबाग रामलीला ने सदियों पुरानी प्रथा को खत्म कर दिया है, पिछले साल यहाँ पर सिर्फ रावण का पुतला जलाया गया था, इस बार भी इसी परंपरा को आगे बढ़ाया जाएगा।

ऐशबाग दशहरा और रामलीला समिति के संयोजक और सचिव आदित्य द्विवेदी इस बारे में गाँव कनेक्शन को बताते हैं, “रामायण में भी इसका उल्लेख है कि कुंभकरण और मेघनाथ ने रावण को भगवान राम के ख़िलाफ़ लड़ने से रोकने की कोशिश की थी, लेकिन उन्होंने भी युद्ध में भाग लिया जब रावण ने उनकी सलाह मानने से मना कर दिया।”

कुंभकरण और मेघनाथ के पुतले को न जलाने का यह विचार करीब छह साल पहले ऐशबाग दशहरा और रामलीला समिति के अध्यक्ष हरिश्चंद्र अग्रवाल और सचिव आदित्य द्विवेदी ने रखा था, लेकिन अन्य सदस्यों ने इसे इस आधार पर ख़ारिज कर दिया कि तीनों का पुतला जलाना 300 साल पुरानी परंपरा का हिस्सा था।

आदित्य द्विवेदी आगे कहते हैं, “गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस रामलीला को शुरू किया था, इसके बाद ही पूरी दुनिया में रामलीला की शुरुआत हुई।”

“रामचरितमानस और रामायण के अन्य संस्करणों के गहन अध्ययन से पता चलता है कि रावण के पुत्र मेघनाद ने उनसे कहा था कि भगवान राम विष्णु के अवतार हैं और उन्हें उनके विरुद्ध युद्ध नहीं करना चाहिए; दूसरी ओर, रावण के भाई कुंभकर्ण ने उसे बताया कि सीता, जिसे रावण ने अपहरण कर लिया था, वह कोई और नहीं बल्कि जगदम्बा थी और अगर वह उसे मुक्त नहीं करते हैं, तो वह अपने जीवन सहित सब कुछ खो सकता हैं। लेकिन रावण ने इन सुझावों को नज़र अंदाज कर दिया और उन्हें लड़ने का आदेश दिया। यही कारण है कि, हमने सोचा, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले जलाना गलत है।” आदित्य द्विवेदी ने आगे कहा।

आदित्य कहते हैं, काफी मुश्किलों के बाद समिति सदस्य इस बात को मानने को तैयार हुए और पिछले साल से मेघनाथ और कुंभकरण को जलाने की पुरानी को खत्म हो गई।

कहा जाता है कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम तक संतों द्वारा दोनों परंपराओं का संचालन किया गया। लखनऊ के नवाब भी रामलीला देखने जाया करते थे। विद्रोह के बाद, सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा समारोह को आगे बढ़ाया गया।

यहाँ पर रावण के पुतले को बनाने में कई महीने का समय लगता है। पिछले कई वर्षों से पुतला बनाने का काम करने वाले राजू फकीरा और उनके साथी कई महीने पहले से रावण का पुतला बनाना शुरू कर देते हैं। उनकी कई पीढियाँ यहाँ पर पुतला बनाती आयीं हैं। इस बार वो रावण अकेले का पुतला बना रहे हैं।

रावण के पुतले को रंग-बिरंगी अबरी से सजाते में व्यस्त राजू फकीरा गाँव कनेक्शन से बताते हैं, “मेरे बाप-दादा के जमाने से हम यही काम करते आ रहे हैं। पहले तो पेड़ की पतली टहनियों से पुतला तैयार किया जाता था।” वो आगे कहते हैं, “रावण का पुतला बनाने में न जाने कितने किलो अख़बार लग जाते हैं, पहले हम बाँस की खपच्चियां से सांचा तैयार करते हैं, उसके बाद उस पर अख़बार चिपकाते हैं।”

यहाँ पर टुकड़ों में पुतला बनाया जाता है, जिसे बाद में दशहरा मैदान में ले जाकर पूरा तैयार करते हैं।

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