उत्तर प्रदेश के सोनभद्र के बहुआरा गाँव में करीब 6 हज़ार 8 सौ किलोमीटर दूर से आई एक ख़बर के बाद से जश्न का माहौल है।
ख़बर गाँव के एक युवा के इतिहास रचने की है जो चीन के हांगझोऊ से आई है।
भारतीय सेना में तैनात हवलदार राम बाबू ने 35 किलोमीटर लंबी रेस-वॉक प्रतियोगिता में भारत के लिए कांस्य पदक जीता है। बाबू के पिता घर चलाने के लिए दिहाड़ी खेत मज़दूर का काम करते हैं।
राम बाबू बहुआरा गाँव के एक भूमिहीन परिवार से हैं, जिन्होंने घर चलाने के लिए दिहाड़ी मजदूर और वेटर के तौर पर भी काम किया है। उनका गाँव रॉबर्ट्सगंज उपमंडल में पड़ता है।
ऐसा ही उत्साह राम बाबू के गाँव से करीब 500 किलोमीटर दूर, मेरठ जिले में है। यहाँ 31 साल की अन्नू रानी और 28 वर्षीय पारुल चौधरी ने एशियाई खेलों में भाला फेंक और 5,000 मीटर दौड़ में स्वर्ण पदक जीता है।
अन्नू रानी और पारुल चौधरी दोनों ने गन्ने के खेतों में अभ्यास करके अपनी एथलेटिक यात्रा शुरू की। पश्चिमी उत्तर प्रदेश गन्ने की खेती का बेल्ट है। यहाँ इसकी काफी खेती होती है।
अन्नू बहादुरपुर गाँव की रहने वाली हैं जो मेरठ शहर से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
शुरुआत में उनके लिए अपने पिता को खेल में करियर बनाने के लिए मनाना काफी मुश्किल था, क्योंकि उनके बड़े भाई पहले से ही बड़ा एथलीट बनने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे थे।
अन्नू के पिता अमरपाल सिंह कहते हैं ऐसा इसलिए था क्योंकि वह एक साधारण किसान थे और उनके लिए किसी बच्चे को एथलीट बनाना मुश्किल था। अन्नू रानी एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला एथलीट बन गई हैं।
“मेरे दो बेटे और तीन बेटियाँ हैं। मेरा बड़ा बेटा उपेन्द्र पहले से ही खेलों में अपनी किस्मत आजमा रहा था, तभी अन्नू को भाला फेंक में रुचि हो गई। यह उपेन्द्र ही थे जिन्होंने महसूस किया कि उनकी बहन में खेल के प्रति स्वाभाविक प्रतिभा है। लेकिन मेरी बेटी को प्रतिस्पर्धा और अभ्यास के लिए दूर-दराज के शहरों में भेजना आसान नहीं था।” अमरपाल सिंह ने कहा।
“मेरे लिए ये यकीन करना भी मुश्किल था कि प्रशिक्षण और पोषण से जुड़ी जरूरतों का ख़र्च उठा सकता हूँ। मेरे लिए इन चुनौतियों से पार पाना आसान नहीं था। उसका भाई उपेन्द्र अपनी बहन को सुबह-सुबह मेरे गन्ने के खेतों में छिपकर ट्रेनिंग देता था। इस तरह यह सब शुरू हुआ, लेकिन मैं बहुत खुश हूँ कि मेरी बिटिया ने इस देश को गौरवान्वित किया है। ” उन्होंने कहा।
इस बीच, रानी के गाँव से करीब 25 किलोमीटर दूर दौराला क्षेत्र के इकलौता गाँव की पारुल चौधरी भी गन्ने के खेतों के किनारे पगडंडियों पर अपना रास्ता तय कर रही थीं।
28 साल की पारुल ने 2011 में अपने स्कूल में एक प्रतियोगिता में 800 मीटर की दौड़ जीतकर अपनी एथलेटिक यात्रा शुरू की। ये वह जीत थी जिसने उनके पिता को अपनी बच्ची में बेहतर खिलाड़ी बनने की क्षमता के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया। “मेरे पिता ने ज़ोर देकर कहा कि मुझे सुबह खेतों में दौड़ने जाना चाहिए। मुझे इस बात का जरा भी एहसास नहीं था कि मेरे पिता की जिद मेरे लिए गोल्ड मेडल पाने का रास्ता खोल देगी।” पारुल कहती हैं।
2015 में पारुल चौधरी को मुंबई में वेस्टर्न रेलवे में नौकरी मिली और वे ग्रांट रोड रेलवे स्टेशन पर टिकट परीक्षक के रूप में तैनात हुईं।
पारुल कहती हैं, “मैंने सुना था कि अगर आप खेल में अच्छा प्रदर्शन करते हैं, तो आपको अच्छी नौकरी मिल सकती है। यही मेरा मकसद था। सच कहूँ तो मेरी प्लानिंग जॉब (नौकरी) मिलने के बाद खेल छोड़ने की थी, लेकिन मेरे दोस्त और गुरुओं ने मुझे खेलना जारी रखने के लिए इतना प्रोत्साहित किया कि 2016 में, मैंने फिर से खेलना शुरू कर दिया।”
चीन के हांगझोऊ में चल रहे एशियाई खेलों में पंजाब के खोसा पांडो गाँव के तजिंदरपाल सिंह तूर ने भी कमाल कर दिया है। शॉटपुट इवेंट में उन्होंने गोल्ड मेडल जीत लिया है।
तजिंदरपाल किसान परिवार से हैं, और वे अपने पिता के कहने पर क्रिकेट छोड़ शॉट पुट में आए।
अविनाश साबले ने पुरुषों की 5,000 मीटर दौड़ में स्टीपलचेज़ में रजत पदक जीता है । वह महाराष्ट्र के बीड जिले के मांडवा गाँव के किसान परिवार से हैं। छह साल की उम्र में वह अपने घर और अपने स्कूल के बीच छह किलोमीटर की दूरी तय करते थे क्योंकि उनके गाँव में कोई परिवहन सुविधा नहीं थी।
12वीं की पढ़ाई के बाद वे भारतीय सेना की 5 महार रेजिमेंट में सिपाही के रूप में शामिल हो गए। अविनाश साबले 2015 से सिक्किम, राजस्थान और दुनिया के सबसे ऊँचे युद्ध क्षेत्र सियाचिन में तैनात रहे हैं।