तहज़ीब, बाग़ात और लज़ीज खानों के लिए मशहूर नवाबों का शहर लखनऊ।
पुराने लखनऊ में भूल भुलैया, इमामबाड़ा, क्लॉक टॉवर, रूमी दरवाज़ा और न जाने कितनी ही पुरानी ऐतिहासिक इमारतें लोगों को लुभाती हैं, लेकिन पुराने लखनऊ के पसंद बाग में कुछ और भी है, जिसके बारे में कम लोग ही जानते हैं।
पसंद बाग की तंग गलियों में मल्लिका-ए-ग़ज़ल, पद्म भूषण बेगम अख़्तर की मज़ार भी है।
लाल ईंटों की चार दीवारी में हरसिंगार के पेड़ के नीचे अपनी माँ की संगमरमर की कब्र के पास ही बेगम अख्तर की भी कब्र है। अक्टूबर के महीने में जब हरसिंगार के फूल खिलते हैं, उसी महीने की 7 तारीख, साल 1914 को फैज़ाबाद में पैदा हुई थीं बेगम अख़्तर। जिनका नाम पहले अख़्तरी बाई रखा गया।
कुछ समय बाद वो अपनी माँ के साथ कलकत्ता चली गईं, और फिर वहाँ से मुंबई, जहाँ न जाने कितनी ठुमरियों और गज़ल को अपनी आवाज़ से अमर कर दिया।
और आख़िर में 30 अक्टूबर 1974 को अहमदाबाद में उनकी मौत हो गई, लेकिन उनकी ख़्वाहिश थी कि उन्हें उनकी माँ के साथ पसंदबाग में दफ़नाया जाए।
अब इसकी देखरेख का ज़िम्मा लखनऊ की संस्था सनतकदा ने लिया है। इस संस्था की फाउंडर माधुरी कुकरेजा गाँव कनेक्शन से बताती हैं, “उन्होंने पहले ही कहा था कि उनकी मौत के बाद उन्हें उनकी अम्मी के पास ही दफ़नाया जाए। उनकी शागिर्द शांति हीरानंद और सलीम किदवई ने उनकी आखिरी ख़्वाहिश को पूरा किया। उनको वहाँ दफ़नाने के बाद करीब 30 साल तक उनकी कब्र ऐसी ही पड़ी रही।”
“आहिस्ता -आहिस्ता आम की बाग के साथ ही पूरे पसंद बाग के आसपास बस्तियाँ बस गईं, करीब की ज़मीने बिक गईं या फिर लोगों ने कब्ज़ा कर लिया। लखनऊ शहर में कभी उन्हें याद नहीं किया गया, न उनके नाम पर कोई सड़क है न ही कुछ और जबकि इस शहर को बेगम अख़्तर ने बहुत कुछ दिया।” माधवी ने आगे कहा।
बेगम अख़्तर की मज़ार को पहचान दिलाने पर माधवी बताती हैं, “साल 2012 की बात है, उस समय शांति आपा, सलीम और हम लोगों ने बैठकर बात की अगर अब भी ध्यान नहीं दिया तो ये सब भी ख़त्म हो जाएगा। क्योंकि वो बहुत ही बुरी स्थिति में था।”
उस समय पर्यटन विभाग की एक योजना से पाँच लाख रुपए मिल गए और पाँच लाख बेगम अख़्तर के चाहने वाले लोगों ने मिलकर इकट्ठा किया और काम शुरू हो गया। पेशे से आर्किटेक्ट आशीष थापर ने बेगम अख़्तर की आख़िरी ख़्वाहिश के हिसाब से इसे पूरा डिजाइन किया।
जिस दिन मकबरे को नया रूप दिया गया उस दिन को याद करके माधवी कहतीं हैं, “उस दिन को मैं कभी नहीं भूल पाऊँगी, शांति आपा और श्रुति सडोलीकर दोनों एक दूसरे को पकड़कर खूब रोईं थीं। उन्होंने उस दिन कहा कि किसी शहर में किसी कलाकार को ख़ासकर कोई ख़वातीन हो तो उसे कोई याद नहीं करता है।”
तब से हर साल 30 अक्टूबर को बेगम अख़्तर की बरसी के दिन यहाँ पर उनके चाहने वाले इकट्ठा होते हैं।
बेगम अख़्तर की ज़िंदगी पर ‘अख़्तरी: सोज़ और साज़ का अफ़साना’ किताब लिखने वाले यतींद्र मिश्रा बेगम अख़्तर से जुड़ा क़िस्सा साझा हुए कहते हैं, “हुआ ये था जब अयोध्या के राज दरबार होते थे 1933 से लेकर 1947 तक वो दरबार में गायकी के लिए आती रहीं। उस दौरान तत्कालीन राजा जगदम्बिका प्रसाद नारायण सिंह जी उनके फन पर मुरीद होते हुए और तमाम सारे कार्यक्रम को देखते हुए उन्हें 50 एकड़ ज़मीन दे दी।”
वो आगे कहते हैं, “बेगम साहिबा ने उसे बहुत सम्मान के साथ स्वीकार किया, उसे अपने पास रखा और उसमें बागात लगाई, लेकिन सन 1947 में जब फैज़ाबाद से जाने लगीं तो वो राजा साहब के पास अपनी ज़मीन वापस करने आयीं, तब राजा साहब चौंक गए।”
राजा साहब ने अख़्तरी बाई से कहा हम आपको दे चुके हैं, आप इसे बेंच दें या किसी और के नाम कर दीजिए, लेकिन बेगम ने कहा कि राजा साहब ऐसा नहीं हो सकता, ऐसा करूँगी तो ख़राब बात होगी।
बेगम ने कहा कि राजा साहब जब भी फैज़ाबाद (अयोध्या) का ज़िक्र होगा तो एक इतिहास लिखा जाएगा की एक अख़्तरी बाई फैज़ाबादी थीं और एक राजा साहब थे राजा साहब ने बड़प्प्न दिखाया लेकिन एक बाई ने अपनी जात दिखा दी छोटापन कर दिया। इस वज़ह से उन्होंने वो ज़मीन वापस लौटा दी।
“ये कहानी एक प्रापर्टी के वापस आने की नहीं हैं ये कहानी एक कलाकार के किरदार की कहानी बयाँ करती है और ये सच बात है कि अवध, अयोध्या, फैज़ाबाद और लखनऊ का जब भी नाम लिखा जाएगा बेगम अख़्तर की उदारता के क़िस्से हवा में तैर रहेंगे।” यतींद्र मिश्रा ने आगे कहा।
अयोध्या में बेगम अख़्तर का घर तो नहीं रहा लेकिन उनकी यादें हमेशा रहेंगी।
पिछले कई साल से लखनऊ के पसंदबाग में बेगम अख़्तर की मज़ार की देख रेख कर रहे हामिद अली गाँव कनेक्शन से बताते हैं, “यहाँ बाहरी लोग ज़्यादा आते हैं और दो-दो घंटे तक बैठे रहते हैं, यहाँ पर इतना सुकून मिलता है, तभी तो लोग यहाँ आते हैं।”
पद्म श्री और पद्म भूषण से सम्मानित बेगम अख़्तर ने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत एक दिन का बादशाह से की थी लेकिन उनकी यह फिल्म नहीं चल सकी। इसके कुछ समय बाद वो लखनऊ लौट आईं जहाँ उनकी मुलाक़ात निर्माता-निर्देशक महबूब खान से हुई। बेगम अख्तर की प्रतिभा से महबूब खान काफी प्रभावित थे और उन्हें मुंबई बुला लिया। इस बार जब वो मुंबई गईं तो उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा और फिल्मों के साथ साथ है अपने गायकी के शौंक को भी बरकार रखा।
आज भले ही बेगम अख़्तर इस दुनिया में न हों, लेकिन अपनी ठुमरी और गज़ल के ज़रिए वे हमेशा रहेंगी। देश ही नहीं दुनिया भर से इनके चाहने वाले लखनऊ आते रहते हैं।
और सलीम किदवई का लगाया हरसिंगार का पेड़ हर दिन इन्हें श्रद्धांजलि देता रहता है।
माधवी कहती हैं, “पता नहीं क्यों वो छोटी सी जगह है, लेकिन उसमें कुछ जादू सा है, अचानक से उस भीड़ भाड़ वाले इलाके में एक जगह मिल जाती है जहाँ पर सुकून मिल जाता है। तभी तो लोग यहाँ आकर घंटों बैठे रहते हैं।”