दुनियाभर में मशहूर बिहार के बांका की हथकरघा कलाः गरीबी से जूझ रहे रेशम बुनकरों की आखिरी पीढ़ी का दर्द

हथकरघों की कानों में घुलने वाली वो आवाजें, जो सुंदर तसर सिल्क के बनने का अहसास कराती थीं, अब और नहीं सुनी जा सकेंगी। बांका के पारंपरिक बुनकरों का भविष्य एक पतले से धागे पर लटका हुआ नजर आ रहा है। पहले पावरलूम, और अब महामारी ने इनकी स्थिति भयावह बना दी है। आज यह कला लुप्त होने के कागार पर है।
tussar silk

बांका, बिहार। सूरज की कुछ किरणें छत के पास बने एक छोटे से सुराख से अंदर आने की कोशिश कर रही हैं। बिना प्लास्टर वाली दीवारों और लकड़ी से बने दो करघों पर पड़ने वाली ये हल्की सी रोशनी बुनकरों के हालातों को बयां करने के लिए काफी है। उबड़-खाबड़ मिट्टी के फर्श पर उथले से गड्ढे में खड़े करघे सालों से घिस-घिस कर चिकने हो गए हैं। 40 की उम्र के दो पुरुष एक-दूसरे के आमने- सामने बैठकर, इन्हीं करघों पर बुनाई कर रहे हैं। करघा चलाते हुए उनके हाथ और पैर लगातार एक ताल में चलते रहते हैं।

जैसे ही हथकरघा चलना शुरु हुआ, उदास कमरा इसकी ‘खट-खट-खट-खट’ आवाज़ से गूंजने लगता है। धीरे-धीरे एक तसर सिल्क की, सुनहरे बॉर्डर वाली सफेद साड़ी- आकार लेने लगी है। इसके लिए दो बुनकर अपने-अपने करघों पर चुपचाप बैठे, घंटों से काम कर रहे हैं। सिर्फ धागों को ठीक करने के लिए उनके हाथ रुकते हैं। सिर्फ ये दो ही नहीं हैं। उनके जैसे कम से कम एक हजार कारीगर हथकरघा पर बड़ी ही बारीकी से, एक जगह बंधकर काम करते आपको नजर आ जाएंगे।

45 साल के बुनकर सलामुल अंसारी ने गांव कनेक्शन को बताया, “हम घंटों तक ऐसे ही बैठकर करघे पर बुनाई करते हैं। दिन के बारह घंटे काम करते हैं और केवल सौ रुपये कमाते हैं।” अंसारी ने अपने वालिद साहब (पिता) से इस कला को सीखने के बाद 20 साल की उम्र में बुनाई शुरू कर दी थी। वह आगे कहते हैं, “मेरे पास घर पर भी एक हथकरघा है। पंद्रह साल हो गए हैं, जब मैंने उसे बांध कर रख दिया था। क्योंकि मेरे पास कोई काम ही नहीं है। मैं अब एक दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करता हूं।” सलामुल अंसारी, बांका के अमरपुर ब्लॉक के शोभनपुर कटोरिया गांव में रहते हैं।

पावरलूम के आने से हथकरघा पर काम करने वाले बुनकरों का रोजगार छिनने लगा है। सभी फोटो: यश सचदेव

बिहार का बांका जिला, जो पहले भागलपुर जिले का एक हिस्सा था, अपने बांका टसर सिल्क के लिए जाना जाता है। दुनियाभर में मशहूर रेशम का ये धागा तसर ककून से बनाया जाता है। जो अपने अधूरे रूप में कॉपरी गोल्ड और बनावट में खुरदरा दिखता है।

दक्षिण बिहार के बांका और भागलपुर जिलों में ग्रामीण आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपने ककूनों के लिए रेशम के कीड़ों को पालने में लगा हुआ है। ये रेशम के कोकून स्थानीय पारंपरिक बुनकरों को बेचे जाते हैं – जो पहले चरखे से कताई करके रेशम का धागा बनाते हैं और फिर हथकरघा पर रेशम की साड़ियां बुनते हैं। टसर सिल्क से बनी साड़ियां, दुपट्टे, कुर्ते, स्कार्फ की कीमत काफी ज्यादा होती है। इनकी देश और विदेश दोनों ही जगह काफी मांग है।

एक तसर सिल्क साड़ी तैयार करने में दो से तीन दिन लग जाते हैं, बुनकर का परिवार प्रति साड़ी 500 रुपये कमाता है। 

जहां व्यापारी और बिचौलिए इन खूबसूरत रेशमी धागों से बने कपड़ों को बेचकर मोटी कमाई कर रहे हैं, वहीं इन्हें बुनने वाले गरीबी में अपने दिन गुजार रहे हैं। कोविड-19 महामारी ने उनकी स्थिति को और ज्यादा खराब कर दिया है। उन्हें अपने परिवार को पालने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।

बांका जिले के इनारावरन गांव में रहने वाले किसान भीम नारायण सिंह भी कोकून के लिए रेशम के कीड़ों को पालने का काम कर रहे हैं। उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया, “बांका का टसर सिल्क पूरे भारत में, यहां तक ​​कि विदेशों में भी जाता है। लेकिन महामारी और लॉकडाउन ने हमारे काम को बुरी तरह प्रभावित किया है। हम बेकार बैठे हैं, स्थिति में सुधार के इंतजार में हैं। छह से सात लाख रुपये का भुगतान बकाया है, जिसे मिलने का इंतजार कर रहे हैं।”

हालांकि जिला प्रशासन रेशम के कीड़ों को पालने वाले किसानों के साथ काम कर रहा है ताकि उन्हें उनके कोकून की बेहतर कीमत मिल सके। बुनकरों के बनाए गए उत्पादों को बढ़ावा देने और उनकी आमदनी बढ़ाने के लिए योजनाएं भी बनाई जा रही हैं।

बांका के जिला मजिस्ट्रेट सुहर्ष भगत ने गांव कनेक्शन को बताया,”पिछले साल, बांका जिले ने लगभग पांच करोड़ कोकून का उत्पादन किया था। हम आने वाले सालों में उत्पादन में वृद्धि सुनिश्चित करने के लिए किसानों के साथ काम कर रहे हैं। ताकि किसानों और बुनकरों दोनों की आमदनी बढ़े सके।”

बुनकरों के गांव में पसरती खामोशी

बिहार राज्य की राजधानी पटना से लगभग 250 किलोमीटर दूर, दक्षिण-पूर्व में शोभनपुर कटोरिया गांव है। यह गांव अपने पारंपरिक बुनकरों के लिए मशहूर है, जो पिछली कई पीढ़ियों से रेशम के कीड़ों के कोकून से रेशम निकालते आ रहे हैं। वे इसे अपने करघे पर बुनते हैं ताकि हल्के वजन वाले टसर सिल्क से साड़ी समेत अन्य कई तरीके के उत्पादों को बना कर देश के एक कोने से दूसरे कोने में भेज सकें।

शोभनपुर कटोरिया के एक बुनकर मोहम्मद एजाज ने गांव कनेक्शन को बताया, “हमको होश भी नहीं था तब से ये काम कर रहे हैं (मुझे यह भी याद नहीं है कि जब मैंने यह काम शुरू किया था, तब मैं कितना छोटा था)। लेकिन इतना तो मैं जानता हूं कि मेरे पूर्वजों ने कम से कम 200 साल पहले हथकरघा से टसर बुनना शुरू किया था।”

रेशम का कीट

उन्होंने कहा, “लेकिन हम बुनकरों की ये आखिरी पीढ़ी हैं। युवा पीढ़ी में कोई भी इस पारंपरिक व्यवसाय को आगे नहीं बढ़ाना चाहता है। हथकरघा पर बुनाई के लिए कड़ी मेहनत की जरुरत होती है। लेकिन कमाई काफी कम है।”

एजाज की उम्र 30 साल है। उसके साथ 60 अन्य बुनकर काम करते हैं जो सभी लगभग 40 के आस-पास या उससे ज्यादा उम्र के हैं। वह बड़े अफसोस के साथ कहते हैं, “मजदूरी ही नहीं मिल पाती। बहुत दयनयी स्थिति है। कुछ दिन मैं विलुप्त हो जाएगा यह काम।”

69 वर्षीय हैदर अली ने 15 साल की उम्र में हथकरघा पर बुनाई शुरू कर दी थी। लेकिन पिछले एक दशक से उन्होंने कुछ भी नहीं बुना है। उन्होंने अपना करघा भी तोड़ दिया है। उनके गांव में और भी कई बुनकर हैं जो कहते हैं कि वे बुनकरों की आखिरी पीढ़ी हैं।

मोहम्मद एजाज बताते हैं,”पहले हमारे गांव के हर घर में एक हथकरघा होता था। करघों की आवाज से गलियों गूंजती रहती थी। उनकी आवाज के बिना इन गलियों से गुजरना असंभव था। ” उन्होंने कहा, ” कभी हमारे गांव में 450-500 हथकरघें थे। अब बमुश्किल 150-200 करघे ही बचे हैं। जल्द ही वे भी खामोश हो जाएंगे।”

अपने बचपन को याद करते हुए, एजाज बताते हैं कि उन्हें वो समय याद है जब उनके गांव ने जापान और अमेरिका (संयुक्त राज्य अमेरिका) को टसर सिल्क के धागे की आपूर्ति की थी। “मेरे वालिद निर्यात की खेप को पूरा करने के लिए दिन-रात काम करते थे। मुझे, उनका रात को घासलेट (मिट्टी के तेल का दीपक) की रोशनी में करघे पर काम करना आज भी याद है। पीक सीजन में तो गांव की गलियां करघे की आवाज से गूंज उठती थीं।

जिन बुनकरों की पहले इतनी मांग थी, आज वही बुनकर साल के एक बड़े हिस्से में बेकार बैठे रहते हैं। बिजली से चलने वाले करघों (पावर लूम )ने उनके पारंपरिक व्यवसाय को प्रभावित किया है।

60 साल के बुनकर मोहम्मद कामरू 15 साल की उम्र से बुनाई कर रहे है। वह कहते हैं, “एक समय था जब हमें बहुत सारे ऑर्डर मिलते थे और कमाई भी अच्छी होती थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है। महामारी के दौरान पूरे एक साल तक हम बिना काम के घर पर बेकार बैठे रहे। “

पावरलूम बनाम हैंडलूम

पावरलूम के आने और उनकी बढ़ती लोकप्रियता ने हथकरघा बुनकरों के उस हुनर को खत्म होने के कागार पर ला दिया था जो कभी उनकी आमदनी का एक बेहतरीन जरिया था। इस कला के साथ-साथ पारंपरिक बुनकरों की ये जमात भी धीरे-धीरे खत्म होने जा रही है।

बुनकर अंसारी सवाल उठाते हैं, “हम उस पावरलूम से कैसे मुकाबला कर सकते हैं जो एक दिन में पांच से छह साड़ियां बनाता है जबकि हम डेढ़ या दो दिनों में केवल एक साड़ी बुन सकते हैं।”

एजाज के अनुसार, एक टसर सिल्क की साड़ी तैयार करने में पूरा परिवार शामिल होता है। “कोकूनों को पहले उबाला जाता है और फिर करघे पर कताई करके रेशम निकाला जाता है। यह काम ज्यादातर महिलाएं करती हैं।”

वह समझाते हुए कहते हैं,”इसके बाद, पुरुष ताना (लपेटना) और बाना (बुनना) करते हैं। करघे पर धागा चढ़ाना, बड़ी ही बारीकी वाला काम है। इसके बाद बुनाई शुरू होती है।”

पावरलूम के आने और उनकी बढ़ती लोकप्रियता ने हथकरघा बुनकरों के उस हुनर को खत्म होने के कागार पर ला दिया था जो कभी उनकी आमदनी का एक बेहतरीन जरिया था। 

एक टसर सिल्क साड़ी तैयार करने की इस पूरी प्रक्रिया में दो से तीन दिन लग जाते हैं। बुनकर का परिवार प्रति साड़ी 500 रुपये कमाता है। एजाज़ कहते हैं, “क्या कोई परिवार दो से तीन दिनों में 500 रुपये की कमाई पर जीवित रह सकता है? बच्चों का पालन-पोषण करना मुश्किल है। इसलिए युवा पीढ़ी हथकरघा पर काम नहीं करना चाहती।”

एजाज़ ने बताया, “हमारे गांव के युवा लोग बॉम्बे (मुंबई) जैसे शहरों में चले गए हैं। जहां वे दर्जी का काम करते हैं और एक महीने में 25 से लेकर 30 हजार रुपये तक कमा लेते हैं। सिलाई छह महीने में सीखी जा सकती है, लेकिन हथकरघा पर बुनाई करना एक अलग ही कला है। ”

69 साल के हैदर अली इस कला के खत्म होने से खासे चिंतित हैं। स्वाभाविक रूप से, उनकी चिंता करना जायज भी है। वह अफसोसजनक लहजे में कहते हैं, “अगर घर में हथकरघा काम नहीं करेगा, तो युवा पीढ़ी इस कला को कैसे सीख पाएगी? हमारे अधिकांश बच्चे परदेश चले गए हैं। वे करघे पर बैठने के बजाय ,वहां दर्जी का काम करना पसंद करते हैं।”

अंसारी के अनुसार, उनका कोई भी बच्चा हथकरघा पर काम नहीं करना चाहता । उन्होंने कहा, “मेरे बच्चे नहीं जानते कि करघे पर धागे कैसे चढ़ाए जाते हैं। मेरे परिवार में ‘ताना और बाना’ बनाने का कौशल मेरे साथ ही मर जाएगा।”

ककून से किसानों की आय बढ़ाने की कोशिश

बांका के इनारावरन गांव की करमीहा, अपनी आजीविका के लिए टसर सिल्क कोकून पालती हैं। दो बेटों की मां करमीहा ने गांव कनेक्शन को बताया,” मैं साल में दो बार, कोकून निकाल कर उन्हें बेचती हूं। अगर काम ठीक-ठाक है तो एक अच्छे साल में, तीस हजार रुपये तक की कमाई हो जाती है।” उनके दोनों बेटे रेशम के कीड़ों की देखभाल और कोकून निकालने में उनकी मदद करते हैं।

वह कहती हैं, “दो हजार कोकूनों के लिए, मुझे चार से छह हजार रुपये मिलते हैं।” रेशम के कीड़ों को पालने के अलावा, वह जमीन के एक छोटे से हिस्से पर धान, मक्का और सब्जियां भी उगाती हैं।

इनारावरन गांव के संतोष कुमार सिंह साल 2000 से रेशम के कीड़ों को पाल रहे हैं। इस काम के लिए उन्हें जिला प्रशासन ने प्रशिक्षित किया था। वह गांव कनेक्शन से कहते हैं, “शुरुआत में हमने जंगल में अर्जुन के पेड़ों पर रेशम के कीड़ों को पालना शुरू किया। साल 2004 में, मैंने 56,000 शहतूत के पेड़ लगाए थे और आज मेरे पास 50,000 पेड़ हैं। ”

वह समझाते हुए कहते हैं, “चूंकि मैं सभी पेड़ों की देखभाल नहीं कर सकता, इसलिए मैंने अपने आधे पेड़ दूसरे किसानों को दे दिए हैं। अब वे उन पेड़ो पर रेशम के कीड़ें पालते हैं और कोकून निकालते हैं। बदले में, मुझे उनकी कमाई का आधा हिस्सा मिलता है।”

प्रशासन रेशम के कीड़ें पालने वाले करमीहा देवी और संतोष कुमार जैसे किसानों की आय को बढ़ाने की कोशिश कर रहा है।

संतोष कुमार खुद एक साल में एक लाख कोकून निकालते हैं। इससे उन्हें 2.5 से 3 लाख रुपये की आमदनी हो जाती है। इसके अलावा वह अपने ग्रेनेज में रेशम के कीड़ों के अंडे तैयार कर, एक साल में 60 से 70 हजार रुपये अलग से कमा लेते हैं। उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया, “साल में दो बार कोकून बनाता हूं। अक्टूबर की कोकून की फसल को रेशम की वस्तुएं बनाने के लिए व्यापारियों को बेचा जाता है। मैं जून-जुलाई की फसल को रेशम के कीड़ों के अंडे बनाने के लिए इस्तेमाल करता हूं।”

ऐसा नहीं है कि जिला प्रशासन, रेशम के कीड़ों को पालने वाले बांका के बुनकरों और किसानों ( ज्यादातर आदिवासी लोग) स्थिति से वाकिफ नहीं हैं।

प्रशासन रेशम के कीड़ें पालने वाले करमीहा देवी और संतोष कुमार जैसे किसानों की आय को बढ़ाने की कोशिश कर रहा है।

जिला मजिस्ट्रेट सुहर्ष भगत ने कहा, “बांका जिले में एक लाख हेक्टेयर क्षेत्र वन भूमि है। हमारे पास बड़ी संख्या में अर्जुन और साल के पेड़ हैं जो कोकून उगाने और रेशम उत्पादन के लिए उपयुक्त हैं। ”

उन्होंने कहा, “राज्य सरकार के जल-जीवन-हरियाली मिशन के तहत, हमने अर्जुन और साल के पेड़ों के वन क्षेत्र को बढ़ाने की योजना बनाई है। जिससे कोकून के उत्पादन को बढ़ावा मिलेगा। इससे किसानों की आय बढ़ेगी और वनों के संरक्षण में भी मदद मिलेगी।”

भगत ने आगे कहा कि जिला प्रशासन अपने बुनकरों और कारीगरों द्वारा बनाए गए रेशम उत्पादों के आमदनी बढ़ाने के तरीकों पर भी विचार कर रहा है।

इन योजनाओं के बाद भी सवाल जस का तस खड़ा है कि क्या बांका के बुनकर बदलते समय में अपनी इस कला को बचा पाएंगे? या फिर रेशमी धागों से बनी उनकी ये कला टूट कर बिखर जाएगी?

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अनुवाद: संघप्रिया मौर्या

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