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कड़ी मेहनत और प्यार से तैयार होता है बंगाल का प्रसिद्ध पटाली गुड़ जानिए कैसे

पश्चिम बंगाल के पारंपरिक खजूर गुड़ को बनाने वाले सर्दियों के महीनों में इसका रस लेने के लिए हर रोज़ कम से कम 60 पेड़ों पर चढ़ते और उतरते हैं, जो जोख़िम भरा काम है।
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लोकेपुर गाँव (बाँकुरा), पश्चिम बंगाल। बाँकुरा के लोकेपुर गाँव के लोग सर्दियों की रातों में जिस वक़्त कंबल लपेटकर सो रहे होते हैं, खुर्शीद आलम, सोयद अली मंडल और इब्राहिम मल्लिक के कदम, जँगल के किनारे ख़ज़ूर के पेड़ों की ओर बढ़ रहे होते हैं।

उन्हें खजूर के रस में खमीर (किण्वित) होने से पहले उसे एक बर्तन में निकाल कर तय समय के अंदर स्वादिष्ट गुड़ तैयार करना होता है, जो सर्दियों में ख़ूब खाया जाता है। इनकी आजीविका का यही जरिया है जिसे स्थानीय लोग पटाली गुड़ के नाम से जानते हैं।

तड़के सुबह अँधेरे में ही, वो चाँद की रोशनी में ख़तरनाक तरीके से खजूर के 20 फ़ीट ऊँचे पेड़ पर चढ़ जाते हैं; सिर्फ इसलिए ताकि पेड़ से टपकते खजूर के रस को अपने बर्तन में इकठ्ठा कर सकें। हर कोई रोज़ कम से कम 60 खजूर के पेड़ों पर चढ़ता और उतरता है।

खजूर के पेड़ पर चढ़ना जितना जोखिम भरा है उतना ही इन्हे खोजना भी है।

इन लोगों ने खजूर के पेड़ों को खोजने और उससे रस निकालने के लिए पश्चिम बंगाल में अपने गाँवों से लंबा सफर तय किया है। खुर्शीद, उनके पिता मंसूर अली भुनया और उनके भतीजे मुर्सलीम दलाल करीब 70 किलोमीटर दूर कोतुलपुर ब्लॉक के गोपीनाथपुर गाँव से लोकेपुर आए हैं।

“बंगाल में कार्तिक महीने के बीच (नवंबर के पहले सप्ताह) में, हम घर छोड़ देते हैं और दूर-दराज़ के गाँवों में चले जाते हैं; हम पता लगाते हैं कि खजूर के पेड़ कहाँ हैं और मालूम चलते ही उनके पास ही कहीं अपना ठिकाना बना लेते हैं। ” 45 साल के खुर्शीद आलम ने गाँव कनेक्शन को बताया।

सिर्फ पेड़ का मिलना ही काफी नहीं है, जिसकी ज़मीन पर वह होता है उससे मौखिक रूप से एक समझौता किया जाता है, कि खजूर के पेड़ से रस निकालने के लिए वे ज़मींदार को प्रति पेड़ तीन किलोग्राम गुड़ तीन महीनों तक देंगे।

इसके अलावा, उन्हें उन तीन महीनों के लिए 6,000 रुपये तक का किराया भी देना होता है जहाँ वे खजूर का रस इकट्ठा कर के गुड़ तैयार करते हैं। स्थानीय लोग गुड़ बनाने वाली इस जगह को ‘माहोल’ कहते हैं, जो पेड़ के करीब ही होता है।

पश्चिम बंगाल के बाँकुरा, पुरुलिया और झाड़ग्राम जिलों के गाँवों में करीब 2,000 माहोल देखे जा सकते हैं, जहाँ पटाली गुड़ बनाया जाता है। खजूर का रस इकट्ठा करने और गुड़ बनाने वालों में ज़्यादातर मुसलमान हैं।

हर साल नवंबर में इन्हें जहाँ गुड़ तैयार करना होता है वहीँ ये छोटी-छोटी फूस की झोपड़ियाँ बनाते हैं और अगले तीन महीनों तक रहते हैं। उनकी कोशिश रहती है कि उनकी झोपड़ियाँ किसी हाइवे या सड़क के करीब हो ताकि गुड़ व्यापारी आसानी से उन तक पहुँच सकें। फरवरी महीने के अंत में वे गुड़ का काम पूरा होते ही वापस अपने अपने घर लौट जाते हैं।

सुनुकपहाड़ी गाँव के गुड़ बनाने वाले इस्माइल मलिक ने गाँव कनेक्शन से कहा, “हमारे यहाँ रहने का इंतज़ाम बहुत मामूली सा है, जो बहुत ज़रूरी है वहीं पास है; हमारे पास इमरजेंसी लाइटें हैं लेकिन हम उनका इस्तेमाल केवल रात के खाने के दौरान ही करते हैं, हम उन्हें और अपने मोबाइल फोन को यहाँ गाँव के लोगों के घरों में चार्ज करते हैं।”

इस्माइल के मुताबिक एक माहोल में आमतौर पर तीन आदमी होते हैं और वे अधिकतर एक ही परिवार से होते हैं। कभी कभी दूसरे लोग होते भी हैं तो वो हर रोज़ 250 रुपये की दैनिक मज़दूरी पर काम करते हैं।

खजूर का गुड़ इस क्षेत्र के कई गाँवों की अर्थव्यवस्था है, क्योंकि इस पारंपरिक गुड़ को बनाने वाले ज़्यादातर लोगों के पास खेती योग्य अपनी ज़मीन नहीं है।

“हमारे गाँव में करीब 300 परिवार हैं; उनमें से लगभग 250 परिवारों के पुरुष सदस्य हर साल काम के लिए बाहर चले जाते हैं, वे खजूर का गुड़ बनाने के लिए बाँकुरा, पुरुलिया और झाड़ग्राम जिलों के अलग अलग हिस्सों में जाते हैं; कुछ लोग पास के राज्य झारखंड के चाईबासा, धनबाद, जमशेदपुर, चक्रधरपुर भी जाते हैं। ” बाँकुरा के इंदपुर ब्लॉक के सतसगरा गाँव के 70 साल के अब्दुल हक मंडल ने गाँव कनेक्शन को बताया।

अब्दुल हक मंडल, उनके बेटे बकीबुल मंडल और दामाद असदुल मंडल खजूर का गुड़ बनाने के लिए 60 किलोमीटर की दूरी तय करके पुरुलिया जिले के मनबाज़ार गाँव पहुँचे ।

“मेरे पिताजी, दादाजी ने भी यही गुड़ बनाने का काम किया; हम पीढ़ियों से ऐसा करते आ रहे हैं, अगर हमारे पास कमाई का कोई और साधन होता तो इतना कष्ट देने वाला काम क्यों करते। ” सतसगरा गाँव के अक्कर अली मंडल ने कहा, जो खजूर का गुड़ बनाने के लिए बाँकुरा शहर के पास पोयाबागान इलाके में आए थे।

पटालीगुड़ कैसे बनाया जाता है, यह बताते हुए सैयद अली मंडल कहते हैं, “सबसे पहले खजूर के पेड़ों के सूखे पत्तों और शाखाओं को काटकर साफ किया जाता है; फिर पेड़ों के ऊपरी हिस्से को 9-10 इंच तक लंबा खुरच कर हफ्तेभर ऐसे ही छोड़ देते हैं, इसके बाद, खुरचे हुए हिस्से में एक लकड़ी का पाइप डालते हैं और उसके नीचे एक प्लास्टिक का घड़ा लटका देते हैं जिसमें रस गिरता है।”

” समय का इसमें खास ध्यान रखा जाता हैं; खजूर का रस दोपहर के समय वहाँ पेड़ों पर लटकाए गए प्लास्टिक के घड़ों (बर्तन) में इकट्ठा होता है, और अगले दिन सुबह होते ही हटा दिया जाता है, हर घड़े में पाँच लीटर तक जूस जमा हो जाता हैं।” सैयद अली मंडल ने कहा।

वे आगे कहते हैं, “इसके बाद बारी आती है उसे आग पर पका कर गुड़ बनाने की; जिसके लिए उसे बड़े बर्तन में चूल्हे के ऊपर रखा जाता है और देर तक बड़ी कलछी से चलाया जाता है, जूस से गुड़ बनाने में करीब छह घंटे का समय लगता है।”

भले इसे बनाने में धुँआ या प्रदूषण होता हो, लेकिन पश्चिम बंगाल के पारंपरिक गुड़ बनाने वालों के लिए परिवार का पेट भरने का सिर्फ यही एक साधन है।

एक किलो गुड़ बनाने में करीब सात लीटर रस लगता है, हर पेड़ से सप्ताह में तीन बार इसके लिए रस मिल जाता है। एक माहोल के पास आमतौर पर 150-200 खजूर के पेड़ होते हैं। जैसे-जैसे सर्दी बढ़ती है, रस अधिक मिलने लगता है और गुड़ का स्वाद बेहतर हो जाता है।

सैयद अली मंडल के दो बेटे – आसिफ और तारिक जो सातवीं और पाँचवीं क्लास में हैं, वे भी बाँकुरा शहर के पास जगदोला सोनामेला गाँव में अपने पिता के साथ माहोल में काम करते हैं। उनके पिता कहते हैं, साथ रह कर बच्चे भी अपना ये पारंपरिक काम सीख लेते हैं।

स्थानीय गुड़ कारोबारी बलराम मोदोक और रामगोपाल मिश्रा ने बताया कि खजूर गुड़ की भारी माँग है। मोदोक ने कहा, ”हम इसे पड़ोसी राज्यों को 60 रुपये प्रति किलो की दर से बेचते हैं।”

मिश्रा कहते हैं, “गुड़ को अगर तरल रूप (गुड़ बनने से पहले का रूप) में नाश्ते में खाया जाए तो मल्टीविटामिन की ज़रूरत ख़त्म हो जाएगी। इसमें ग्लूकोज सहित कई तरह के पोषक तत्व होते हैं।”

बाँकुरा के सोनामेला गाँव के निवासी नारायण मंडल ने कहा कि वह पटाली गुड़ सीधे माहोल से खरीदते हैं। “इस साल, खजूर का गुड़ खुले बाज़ार में 75 रुपये प्रति किलोग्राम बेचा जा रहा है; हम माहोल से 60 रुपये की दर से खरीदते हैं।”

गुड़ का थोक रेट 50 रुपये किलो है। दिसंबर के दूसरे सप्ताह से जनवरी के अंत तक गुड़ खूब बिकता है। इस समय में एक माहोल में करीब 50,000 रुपये तक की कमाई हो जाती है। इसमें वहाँ रहने और खाने का खर्च शामिल नहीं है।

बाँकुरा उत्तर प्रभाग के अतिरिक्त जिला वन अधिकारी एके झा ने कहा कि खजूर के पेड़ वन क्षेत्रों के बाहरी इलाके में हैं, इसलिए गुड़ बनाने वालों को अपना पारंपरिक व्यवसाय जारी रखने के लिए वन विभाग से किसी इजाज़त की ज़रूरत नहीं है।

गुड़ के प्रकार

आमतौर पर तीन तरह के गुड़ भारत में बनते हैं; जिसमें गन्ने के अलावा खजूर और नारियल का गुड़ शामिल हैं। इनमें गन्ने का गुड़ सबसे आम हैं। नेशनल सेन्टर फ़ॉर बायोटेक्नोलॉजी इन्फॉर्मेशन की स्टडी के मुताबिक आयरन से भरपूर होने की वजह से यह गुड़ अगर सही मात्रा में लिया जाए तो एनीमिया जैसी बीमारी से बचा सकता है।

खजूर का का गुड़ भारत के पूर्वी राज्य जिनमें पश्चिम बंगाल और झारखंड में सबसे ज़्यादा तैयार किया जाता हैं। इसे पटाली या पाताली गुड़ के नाम से भी जाना जाता है। खजूर के पेड़ों के अर्क से इसे बनाया जाता है।

यूनाइटेड नेशन के फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक खजूर के अर्क में कार्बोहाइड्रेट्स, विटामिन-बी, विटामिन-सी, आयरन और कैल्शियम जैसे कई जरूरी न्यूट्रिएंट्स मौजूद होते हैं। यह सभी तत्व शरीर में कई जरूरतों को पूरा करते हैं।

मीठा होने के साथ ये सभी न्यूट्रिएंट्स की कमी को भी पूरा करता है।

खजूर के गुड़ में मौजूद फाइबर हमारे पाचन तंत्र के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। साथ ही साथ यह एंडोर्फिन के उत्पादन को बढ़ावा देता है, जिसकी मदद से मासिक धर्म के दौरान होने वाली ऐंठन में राहत मिलती है।

यही नहीं, इसका गुड़ माइग्रेन के दर्द में भी बेहतरीन घरेलू उपाय माना गया है।

दक्षिण भारत में नारियल से बना गुड़ ही ज़्यादा खाया जाता है। फूड साइंस एंड न्यूट्रिशन द्वारा प्रकाशित एक जर्नल के अनुसार नारियल से बने रस में कई जरूरी मिनरल्स, एंटीऑक्सीडेंट्स और विटामिनस होते हैं। क्रिस्टलाइन फॉर्म में होने की वजह से यह गुड़ थोड़ा सख्त होता है। नारियल का गुड़ आयरन, पोटेशियम और मैग्नीशियम से भरपूर होता है, जो शरीर के लिए बेहद ज़रूरी है।

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