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पारंपरिक शॉल की बुनाई से अपनी आमदनी बढ़ाने वाली डोंगरिया कोंध आदिवासी महिलाएं

ओड़िशा में डोंगरिया कोंध आदिवासी समुदाय में आदिवासी मोटिफ के साथ शॉल की बुनाई और कढ़ाई करना एक पुरानी प्रथा रही है। सालों पुरानी यही कला रायगडा जिले में 18,00 आदिवासी महिलाओं के लिए आय का एक अहम जरिया भी बन गई है। उनके पारंपरिक शॉल दूर-दूर तक बेचे और खरीदे जा रहे हैं। वे अब अपनी इस मेहनत के लिए जीआई टैग के इंतजार में हैं।
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मलाडी पुसिका की उंगलियां रुक नहीं रहीं हैं। पारंपरिक शॉल पर कढ़ाई करते हुए उनके हाथ लगातार चल रहे हैं। वह अपने गाँव सालपझोला की उन तीस महिलाओं में से एक हैं, जो डोंगरिया कोंध जनजाति के एक स्वयं सहायता समूह की मदद से बुनाई करती हैं। 49 साल की पुसिका ने गाँव कनेक्शन को बताया, “शॉल बनाना हमारी पारंपरिक प्रथा रही है और अब हम उन्हें बनाकर बेच रहे हैं।”

कपाड़ा गुंडा शॉल, जिसे रायगडा जिले के नियमगिरि हिल रेंज की महिलाएं पुराने समय से अपने हाथों से बुनकर तैयार करती आई हैं। वह इस शॉल को उन लोगों के सामने पेश करती हैं जो उन्हें प्यार, सम्मान और आदर देते हैं। यह डोंगरिया कोंध के लोगों के बीच एक सदियों पुरानी परंपरा है। यह समुदाय रायगडा जिले के बिसामकटक, मुनिगुडा, के सिंहपुर ब्लॉक और कालाहांडी जिले के लांजीगड़ा ब्लॉक के कुछ हिस्सों को कवर करने वाले आदिवासी बहुल क्षेत्र में एक विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (पीवीटीजी) में आता है।

रायगड़ा जिले के धमनपंगा गांव के सनारी कद्रका ने गाँव कनेक्शन को बताया, “हमारे गांव में बुनाई की एक लंबी परंपरा रही है और शॉल की गुणवत्ता आमतौर पर बहुत अच्छी होती है।” 38 वर्षीय डोंगरिया कोंध के मुताबिक 15 से 60 साल की उम्र की सभी महिलाएं इन शॉलों को बुनती हैं। उन्होंने कहा, महत्वपूर्ण बात यह है कि अब जिले में कम से कम 18,000 आदिवासी महिलाएं बुनाई के जरिए अपनी आमदनी बढ़ा रही हैं।

सरकार के ओडिशा PVTG सशक्तिकरण और आजीविका सुधार कार्यक्रम के तहत जनवरी 2022 से प्रत्येक बुनकर को हर महीने 3000 रुपये स्टाइपंड दिया जाता है। साथ ही सरकार आगे बेचने के लिए उनसे शॉल भी खरीदती है। राज्य सरकार ने डोंगरिया कोंध जनजाति के पारंपरिक शॉल बेचने के लिए राज्य के विभिन्न हिस्सों में शिल्प मेले भी शुरू किए हैं। इससे इन बुनकरों को काफी राहत मिली है।

डोंगरिया कोंध जनजाति

संख्या के तौर पर देखा जाए तो डोंगरिया कोंध ओडिशा की 62 जनजातियों में सबसे बड़ी है। वे अपने प्रसिद्ध मेरिया त्योहार, अपने रंगीन पोशाक और कुवी (एक द्रविड़ बोली) नामक अपनी अलग भाषा के लिए जाने जाते हैं।

वे इलाके की वनस्पतियों और जीवों के बारे में गहन जानकारी रखने वाले विशेषज्ञ प्रकृतिवादी हैं। रायगडा जिले के सुरम्य पहाड़ी इलाकों में लगभग 10,200 डोंगरिया कोंध 2,300 घरों में रहते हैं।

ओडिशा पीवीटीजी सशक्तिकरण और आजीविका सुधार कार्यक्रम के तहत आने वाली डोंगरिया कोंध डवलपमेंट एजेंसी (डीकेडीए) के प्रोजेक्ट मैनेजर सुदर्शन पाढ़ी ने गाँव कनेक्शन को बताया, “उनकी संस्कृति, जीवन जीने का तरीका और प्रकृति के लिए उनका प्यार उनके द्वारा बुने गए शॉल में नजर आता है।”

पाधी बताते हैं, “आमतौर पर, हरे, लाल, पीले और भूरे रंग के धागों से शॉल को तैयार किया जाता है। हरा रंग जैव विविधता का प्रतिनिधित्व करता है, लाल उनके धार्मिक विश्वास को दिखाता है तो पीला शांति का प्रतीक है। डोंगरिया के लिए सबसे महत्वपूर्ण भूरा रंग धरणी पेणु देवी का प्रतिनिधित्व करता है।”

डोंगरिया तीन तरह के शॉल बनाते हैं। उनमें से एक सिहाली गुंडा हैं, जिसे कमर के चारों ओर लपेटने के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है। उलांबी गुंडा शरीर के ऊपरी हिस्से पर पहना जाता है। तीसरा शॉल है कपडा गुंडा, इसे सिर पर ओढ़ा जाता है। इसके अलावा एक कपड़े को वह कमर पर बेल्ट की तरह भी बांधते हैं जिसे एनजाइना गुंडा कहते हैं। यह पैसे या फिर चारे की खोज में बाहर जाते समय वनों में मिलने वाली कुछ चीजों को रखने के काम आता है। पुरुष और महिला दोनों ही खास मौकों पर कपडा गुंडा पहनना पसंद करते हैं।

रायगड़ा के अरिशकानी गांव की रहने वाली गुरती वडाका ने कहा, “यह शॉल प्यार का प्रतीक है। मैंने इसे दस साल पहले उस समय अपने पति को दिया था, जब मुझे उससे प्यार हुआ था। अब हम एक सुखी वैवाहिक जीवन जी रहे हैं।”

महामारी के बाद शॉल का प्रचार

खजूरी गाँव के सिंगारी वडाका ने गांव कनेक्शन को बताया, “महामारी का असर बेहद गंभीर था। हममें से कई लोगों को बुनाई बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ा।” लेकिन अब ओडिशा पीवीटीजी सशक्तिकरण और आजीविका सुधार कार्यक्रम के निरंतर प्रयासों के कारण डोंगरिया कोंध के अधिकांश बुनकर अपने काम पर वापस आ गए हैं। वह उन्हें स्टाइपंड भी देते हैं और शॉल बेचने में उनकी मदद भी कर रहे हैं।

सालापझोला गांव की मलाडी पुसिका ने कहा, “महामारी के समय में जब सरकार ने मेले लगाने पर रोक लगा दी थी, तो हमारी आमदनी का प्रमुख जरिया खत्म हो गया था। लेकिन अब शॉल की मांग फिर से बढ़ गई है।”

एक शॉल की कीमत लगभग 2,000 रुपये है। एक बुनकर को एक शॉल तैयार करने में दो दिन लगते हैं। डोंगरिया कोंध विकास एजेंसी के पाधी ने कहा, “हम एक बुनकर को एक शॉल बनाने के लिए एक हजार की कीमत के सुई और रंगीन धागे जैसा कच्चे माल प्रदान करते हैं और वह प्रत्येक शॉल की बुनाई पर लगभग 1,000 रुपये कमाती है।” उन्होंने कहा कि पुरानी पीढ़ी के घरों में हथकरघा है और सरकार बुनकरों को बुने हुए कपड़े भी मुहैया कराती है, जिस पर मोटिफ की कढ़ाई की जाती है।

डोंगरिया कोंध डेवलपमेंट एजेंसी, अमा परम्परा-अमा जीविका (संस्कृति का संरक्षण और आजीविका को बढ़ाना) कार्यक्रम के तहत बुनकरों को प्रशिक्षण भी देती है। इस कार्यक्रम के तहत, जनवरी 2022 में लॉन्च किए गए इंटीग्रेटेड ट्राइबल डेवलपमेंट एजेंसी से लगभग 110 डोंगरिया महिलाएं अब प्रशिक्षण ले रही हैं। यह एजेंसी शॉल की मार्केटिंग का काम भी देखती है।

पाधी ने कहा, “हमने नियमगिरि डोंगरिया महिला बुनकर संघ नाम से एक बुनकर समाज का गठन किया है।” प्रशिक्षित 110 महिलाओं से सालाना लगभग 5,000 शॉल खरीदे जाते हैं। सालपझोला में एसएचजी की 30 महिलाएं इस बुनकर संघ के अंतर्गत आती हैं। पुसिका भी इसकी सदस्यों में से एक है।

ओडिशा सरकार ने चेन्नई में जीआई रजिस्ट्री कार्यालय में कपडा गुंडा के लिए भौगोलिक संकेत (जीआई) टैग के लिए आवेदन किया है। एक भौगोलिक संकेत टैग का इस्तेमाल एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र से मिलने वाले उत्पाद के लिए किया जाता है। पाधी ने कहा कि अगर इस शॉल को जीआई टैग मिल जाता है, तो एक अद्वितीय शिल्प के रूप में इसकी प्रतिष्ठा बढ़ जाएगी।

पाधी ने कहा, “हमने रायगढ़ में बुनकरों के लिए शॉल बिक्री केंद्र और कार्यशाला की स्थापना की है। इस केंद्र से कुशल महिला बुनकरों की वित्तीय स्थिति में सुधार की उम्मीद है।” यह केंद्र पर्यटकों को यह देखने का भी अवसर देता है कि शॉल कैसे बुने जाते हैं। साथ ही वे उन्हें सीधे बुनकरों से खरीद भी सकते हैं।

गांदीली गाँव के 48 साल के निवासी कचडी जकेसिका ने गांव कनेक्शन को बताया, “महामारी के कुछ सालों के बाद व्यापार बढ़ रहा है। त्योहारों का मौसम हमारे दरवाजे पर दस्तक दे रहा है और हम शॉल की बुनाई में व्यस्त हैं।”

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