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बिहार: ग्रामीण क्षेत्रों में लॉकडाउन से प्रभावित हुई शिक्षा व्यवस्था अब किस हाल में है?

कोरोना काल में डिजिटल साक्षरता की भूमिका अहम हो गयी। लेकिन बहुत से परिवारों के पास स्मार्ट फोन ही नहीं थे, ऐसे में जब स्कूल खुल गए तब ग्रामीण क्षेत्रों में पढ़ाई की क्या स्थिति है।
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नवादा (बिहार)। किरण देवी के ऊपर जिम्मेदारियों का पहाड़ टूट गया जब पिछले साल उनके पति गनौरी मांझी की मौत ‘बुखार’ से हो गई। किरण देवी तब से अपने परिवार का दोहरा बोझ ढो रही हैं। वह घर चलाने के लिए मजदूरी करती हैं और साथ ही घर के काम भी निपटाती हैं। उनके चार बच्चे हैं। बड़ा बेटा दूसरे राज्य में काम करता है और बाकी तीन बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं।

सरकार की तरफ से स्कूली बच्चों को विभिन्न स्कीमों के तहत मिलने वाले रुपए गनौरी मांझी के बैंक अकाउंट में आते थे। लेकिन, उनकी मौत के बाद रुपए आ रहे हैं कि नहीं किरण देवी को नहीं पता।

मुसहर समुदाय से आने वाली किरण देवी आर्थिक तौर पर बेहद पिछड़ी हुई हैं। उनके घर पर न तो टीवी है, न मोबाइल फोन। बेटे से बात करनी हो, तो पड़ोसी से मोबाइल फोन लेना पड़ता है। ऐसे में किरण देवी के बच्चों को पूरे कोरोना काल में ऑनलाइन शिक्षा मिल नहीं पाई। लेकिन एक बार फिर स्कूल खुल जाने के बाद भी अभी हालात सुधरे नहीं हैं।

लॉकडाउन में काम लगभग बंद था, जिससे कमाई भी रुकी हुई थी, तो किरण अपने बच्चों के लिए किताबें भी खरीद नहीं पाईं। “किताब क्यों लेते, स्कूल बंद था और कमाई भी सीमित ही है” ,किरण देवी ने बताया।

अपने घर में बैठी पढ़ाई करते हुए ज्योति कुमारी

तीसरी कक्षा में पढ़ रही इसी गांव की ज्योति कुमारी के घर में भी ऑनलाइन शिक्षा के लिए जरूरी स्मार्ट फोन नहीं है। स्मार्टफोन के अभाव में शिक्षा हासिल करने में पिछड़ चुके लाखों विद्यार्थियों के आंकड़ों में एक नाम ज्योति का भी है।

हरला पिछड़ी जाति बहुल गांव है और अधिकांश घरों में स्मार्ट फोन नहीं हैं। अप्रैल 2020 से 31 मार्च 2021 तक चलने वाले अकादमिक सत्र में इस गांव के बच्चे कोविड-19 प्रतिबंधों के चलते स्कूल जाने से वंचित रह गये और घर में स्मार्ट फोन नहीं होने उनकी पढ़ाई लिखाई पूरी तरह बर्बाद हो गई।

गैर सरकारी संगठन प्रथम की एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर) की (ग्रामीण) 2020 की रिपोर्ट के मुताबिक, सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले महज 49.4% घरों में मोबाइल फोन है, वहीं प्राइवेट स्कूल के छात्रों के मामले में ये आंकड़ा 62.4% है। बिहार के लिए ये आंकड़ा देश के राष्ट्रीय औसत से भी कम है।

हरला गांव के ही रहने वाले राजा चौधरी को दो बेटे हैं- एक पांचवीं और दूसरा आठवीं में पढ़ता है। राजा चौधरी कहते हैं, “घर में अगर एक स्मार्ट फ़ोन लाया गया, तो बच्चे आपस में लड़ाई कर लेंगे और दो फोन लेना या टीवी खरीदना उनकी हैसियत से बाहर है।” “हम खुद भी बड़ा फ़ोन नहीं रखे हैं, लड़ाई-झगड़ा का जड़ ही खत्म,” उन्होंने कहा।

सरकारी अनुदान मिला कि नहीं? पता नहीं

ज्योति कुमारी की मां सुषमा देवी को नहीं पता कि सत्र 2020-2021 के लिए स्कूल यूनिफॉर्म व किताबों का पैसा उनके अकाउंट में आया है कि नहीं। वह सामने बैंक का पासबुक रख देती हैं। पासबुक 2016 का है, लेकिन एक बार भी प्रिंट या अपडेट नहीं हुआ है, इसलिए पासबुक देखकर पता लगाना मुश्किल है कि छात्रवृत्ति के पैसे आये हैं या नहीं। “इस साल अभी स्कूल खुला ही है, इसलिए किताब नहीं लिये हैं। पैसा भी नहीं आया है किताब का।” सुषमा देवी कहती हैं।

बिहार के सरकारी स्कूलों में एडमिशन अप्रैल से 30 सितंबर तक होता है। किसी छात्र को छात्रवृति की राशि तभी मिल सकती है, जब नामांकन के बाद स्कूल में उनकी उपस्थिति 75 प्रतिशत होगी। हालांकि साल 2020 में स्कूल बंद थे और उस दौरान उपस्थिति की बाध्यता नहीं थी। शिक्षकों के मुताबिक, स्कूलों की बंदी के चलते सत्र 2020-2021 की राशि सभी बच्चों के खाते में भेज दी गई है।

लेकिन, ग्रामीण इलाकों में बैंकिंग व डिजिटल साक्षरता की दयनीय हालत के चलते ज्यादातर अभिभावकों को नहीं पता है कि उनके खाते में पैसा आया है।

नवादा जिले के ही नवादा ब्लॉक की पौरा पंचायत निवासी काजल कुमारी, छोटू कुमार, ममता कुमारी और सुषमा कुमारी के परिवार वालों का कहना है कि साल 2021 में उनके बैंक अकाउंट में पैसा नहीं आया है। कुछ अभिभावकों ने बताया कि 2020-21 के सत्र के लिए उन्होंने अपने पैसे से किताबें खरीदीं।

असर की रिपोर्ट के मुताबिक, सरकारी स्कूलों में जाने वाले विद्यार्थियों में से 57.1% विद्यार्थियों के पास ही साल 2020 में किताबें उपलब्ध थीं।

रुपए अकाउंट में आये कि नहीं, इस बारे में पुख्ता जानकारी बैंक से मिल सकती है, लेकिन बैंक शाखाएं गांव से काफी दूर हैं। दूसरी बात ये है कि ज्यादातर घरों के पुरुष सदस्य प्रवासी मजदूर हैं। घर में महिलाएं हैं, जो घर भी संभालती हैं और मजदूरी भी करती है। ऐसे में उनके पास वक्त नहीं होता बैंक तक भागदौड़ करने का।

आईआईपीएस के एक अध्ययन के मुताबिक, बिहार की आधी आबादी जीवनयापन के लिए प्रवासी बन चुकी है। 36 गांवों में किये गए इस सर्वे के मुताबिक, ज़्यादातर घरों से पुरूष बाहर कमाने चले जाते हैं। इनमें से ज्यादातर परिवार ओबीसी (अन्य पिछड़ी जाति), एससी (अनुसूचित जाति) और एसटी (अनुसूचित जनजाति) समुदाय से हैं। नवम्बर और दिसम्बर के महीने इन समुदायों के बच्चे परिवार के साथ धान के खेतों में काम करते हैं।

हरला उत्क्रमित माध्यमिक विद्यालय में चौथी में पढ़ने वाली सुहानी कुमारी के घर में पारिवारिक सदस्यों में सिर्फ दो महिलाएं हैं। सुहानी बताती है, “पापा व चाचा बाहर कमाते हैं।” सुहानी कुमारी के घर पर कई बार जाने के बाद भी उनकी मां से मुलाकात नहीं हो पायी।

ई-लॉट्स ऐप और टीवी से कितना हुआ फायदा

बिहार सरकार ने मई 2021 में ई-लॉट्स ऐप लॉन्च किया था। लॉन्च के समय बिहार के शिक्षा विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव संजय कुमार ने कहा था, “इसकी मदद से महामारी के दैरान बच्चे किताबें पढ़ सकते हैं। कैच अप कोर्स और ऑडियो मैटेरियल भी इसपर मिल जाएगा।” लेकिन राज्य के ग्रामीण इलाकों में बुनियादी शिक्षा ही मयस्सर नहीं है, तो ये उम्मीद करना बेमानी है कि लोग ऐप से किताबें डाउनलोड कर लेंगे।

हरला गांव के उत्क्रमित माध्यमिक विद्यालय में स्कूल के एक कमरे में 18 बच्चे मौजूद थे। इस एक कमरे में ही सातवीं और आठवीं कक्षा के बच्चे पढ़ रहे थे। बच्चों को पढ़ा रहे शिक्षक पिंटू कुमार ने कहा, “ई-लॉट्स ऐप का पोस्टर स्कूल में टंगा हुआ है। बच्चे चाहें, तो इस ऐप से स्टडी मैटेरियल डाउनलोड कर सकते हैं।” लेकिन, 18 बच्चों में से किसी के घर में अतिरिक्त स्मार्ट फ़ोन नहीं है, जिससे वे पढ़ाई कर सकें या स्टडी मैटेरियल एप्स से डाउनलोड कर सकें। कुछ छात्रों ने बताया, “हमलोगों को कभी कभार पापा, चाचा या भइया से फ़ोन मिलता है, तो गाना सुन लेते हैं।”

स्कूल में लगा स्मार्ट क्लास लेकिन कई कारणों से लॉकडाउन में यह बच्चों के पूर्ण उपयोग में नहीं लाया जा सका।

स्मार्ट फोन का संचालन बहुत शिक्षकों के लिए मुश्किल काम है, तो ऑनलाइन शिक्षा में ये भी एक अवरोध बनकर ही उभरा। नवादा के ही नावदा ब्लॉक के साहेबचक प्राथमिक विधालय के प्रधानाचार्य गौरीशंकर बताते हैं कि उन्हें एंड्रॉयड मोबाइल समझ नहीं आता है।

आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों के लिए सरकार द्वारा तैयार ऐप्स के जरिए कम्प्यूटर से स्टडी मैटेरियल डाउनलोड करने का एक विकल्प जरूर है, लेकिन एनएसओ की एक रिपोर्ट बताती है कि ग्रामीण इलाकों में कम्प्यूटर की पहुंच बेहद कम है।

एनएसओ की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में मात्र 4% ग्रामीण और 23% शहरी घरों में कम्प्यूटर है। इलेक्ट्रॉनिक और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय कहता है कि अगर किसी व्यक्ति में जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में सार्थक कार्यों के लिए डिजिटल तकनीक का उपयोग करने की क्षमता है, तो वो डिजिटल साक्षर है। कोरोना काल में डिजिटल साक्षरता की भूमिका अहम हो गयी है। लेकिन इस रिपोर्ट ने जिन परिवारों और बच्चों से मुलाकात की, उनमें डिजिटल तकनीक के इस्तेमाल की बारीकियों की समझ तो दूर स्मार्ट फोन तक नहीं मिले।

हरला गाँव के निवासी राजेश कुमार की उम्र 23 साल होगी। वे दिहाड़ी मजदूर हैं। उन्होंने कहा, “मुसहरी टोले में एक घर में पढ़ने वाले चार बच्चे हैं, तो हो सकता है एक फोन हो। फोन में भी बड़ा वाला फोन होगा, ये जरूरी नहीं है।” बिहार सरकार द्वारा शिक्षा के लिए बनाये गये ऐप के बारे में पूछने पर राजेश बताते हैं कि उन्हें ई-लॉट्स एप की कोई जानकारी नहीं है।

दूसरी बात यह है कि अगर किसी को ऐप की जानकारी है भी तो किताबें डाउनलोड करने के लिए कम्प्यूटरों तक उनकी पहुंच नहीं है।

हरला गांव से 3 किलोमीटर दूर बहेरा गांव में एक व्यक्ति ने घर में कम्प्यूटर और प्रिंटर का सेट-अप लगा रखा है। कुछ प्रिंट करवाना हो तो वहां जाना पड़ता है। अगर किसी कारण से प्रिंट निकालने वाला व्यक्ति घर पर नहीं है, तो 8-10 किलोमीटर दूर स्थित शहरी मार्केट की तरफ़ जाना पड़ता है।

ई-लॉट्स से कितना फायदा छात्रों को मिल सकता है, इस पर शिक्षक भी सवाल उठाते हैं।

नवादा जिले के अकबरपुर प्रखंड के फतेहपुर गांव में स्थित मध्य विद्यालय में कुल 481 लड़के और 488 लड़कियां नामंकित हैं, जिनमें से दलित और पिछड़े समुदाय से आने वाले बच्चे सबसे अधिक हैं। इस स्कूल के प्रधानाध्यापक ज्ञानचन्द्र दास कहते हैं, ” बच्चों के घरों में फ़ोन ही नहीं है, तो ई-लॉट्स से क्या फायदा होगा।”

लॉकडाउन के चलते बच्चों में स्कूल न जाने की प्रवृति बढ़ गई है, जिसका दूरगामी परिणाम भयावह हो सकता है।

ज्ञानचंद्र दास कहते हैं, “हमारे देश में सर्वहारा वर्ग का एक बड़ा तबका अशिक्षित है। हमलोगों को सरकार से आदेश मिला था कि सब बच्चों को किसी भी तरह लाया जाए। इस गांव के लोग मुख्यतः छोटे किसान हैं। मजदूरी करते हैं। उनके बच्चे उनके साथ काम करने चले जाते हैं। बहुत मुश्किल से उन्हें हम स्कूल लेकर आये थे। लॉकडाउन में उनके स्कूल आने की आदत फिर से ख़त्म हो गयी है।”

मई 2020 में बिहार सरकार ने छठी से बारहवीं की कक्षा दूरदर्शन बिहार चैनल पर शुरू की थी, जिसका ज़मीनी स्तर पर कोई लाभ नहीं दिखता है। असर की रिपोर्ट कहती है, “सरकारी स्कूलों में जाने वाले केवल 30.8% विद्यार्थियों के घरों में टीवी है।” ये रिपोर्टर जिन घरों में गई, उनमें से ज्यादातर घरों में स्मार्ट फोन नहीं मिले, तो इन घरों में टीवी होने का सवाल ही नहीं उठता है।

नेशनल स्टेटिस्टिकल ऑफिस की 2020 रिपोर्ट बताती है कि बिहार साक्षरता दर के मामले में नीचे से तीसरे स्थान पर है। ऐसे में महामारी की मार का प्रभाव शिक्षा पर भयावह है। केंद्रीय शिक्षा विभाग की 20-21 रिपोर्ट के अनुसार 2.46 करोड़ में से 1.43 करोड़ विद्यार्थियों के पास डिजिटल डिवाइस नहीं था। तमिलनाडु सरकार ने डिजिटल शिक्षा के लिए 5.15 लाख लैपटॉप दिये थे, लेकिन बिहार सरकार ने 42 मोबाइल फ़ोन दिए जाने की बात कही।

हालांकि अकबरपुर प्रखण्ड शिक्षा पदाधिकारी शशिकला कुमारी जो गाँव कनेक्शन की रिपोर्टिंग के दौरान प्रखण्ड का भी कार्यभार संभाले थीं का आधिकारिक बयान कुछ और ही है। उनके दफ़्तर से मिली रिपोर्ट के अनुसार elots ऐप कामयाब रहा है। “80% अभिभावकों के पास स्मार्टफोन की सुविधा उपलब्ध थी। जिन के पास स्मार्टफोन नहीं था उन्होंने डीडी चैनल के माध्यम से टीवी से क्लास लीं। जिन के पास यह सुविधा भी नहीं थी उन्होंने पड़ोसी के घर बैठकर पढ़ाई की, “शशिकला कुमारी कहा।

लॉकडाउन के चलते बच्चों में स्कूल न जाने की प्रवृति बढ़ गई है, जिसका दूरगामी परिणाम भयावह हो सकता है। फोटो: दिवेंद्र सिंह

उन्होंने ये भी कहा कि जिन सुदूर गांव में इन में से कोई भी सुविधा नहीं थी वहां विद्यार्थियों की लिस्ट तैयार पर उच्च माध्यमिक विद्यालय में दिया गया। “उच्च माध्यमिक विद्यालय में स्मार्ट क्लास के जरिये टीवी दिखाया गया और कोर्स पूरा किया गया।” शशिकला कुमारी का आधिकारिक बयान है।

पसिया गांव के उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के एक कमरे में स्मार्ट क्लास भी थी। प्रधनाध्यापक महेंद्र प्रसाद ने स्कूल में लगे स्मार्ट क्लास के बारे में कहा था, “कभी कभी कोई बच्चा आता था तो ये दिखा देते थे। नियमित कुछ नहीं है इसके प्रयोग का मामला।” केवल स्मार्ट क्लास के उपकरण दिये गए हैं, लेकिन बच्चों को बैठाने के लिए चटाई बिछाना पड़ता है। उस कमरे के लिए टेबल डेस्क उपलब्ध नहीं करवाया गया था।

जैसे तैसे प्रमोट हो रहे छात्र, शिक्षा पर पड़ेगा भयावह प्रभाव

बिहार में सुविधाहीन बच्चों के लिए काम करने वाला गैर-सरकारी संगठन ‘कोशिश’ के सचिव रूपेश बताते हैं, “गांव और शहर दोनों जगहों पर जो गरीब व पिछड़े तबके के बच्चे हैं, वे ज्यादातर सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। सरकारी विद्यालयों द्वारा लॉकडाउन में उन्हें पढ़ाने के लिए कोई पहल नहीं की गई।”

“हमलोग अलग-अलग इलाकों में काम कर रहे हैं अपने नेटवर्क जो आंकड़ा हमने जुटाया है उससे अनुमान है कि करीब 40% विद्यार्थी पुराना पढ़ा हुआ भूल चुके हैं। कुछ बच्चे लिखना तक भूल चुके हैं। डिजिटल डिवाइस के लगातार प्रयोग से बच्चों को मानसिक रूप से दिक़्क़त हो रही थी। इससे पढ़ाई प्रभावित हुई है, इसलिए 33% बच्चे ही ऑनलाइन पढ़ाई कर पाए। डिजिटल शिक्षा के लिए अभी हमें और तैयारी करने की जरूरत है,” उन्होंने कहा।

पिछले सत्र में सभी सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों को अगले क्लास में प्रमोट कर दिया गया है। इससे बच्चों का साल बर्बाद होने बच गया, लेकिन जैसे तैसे प्रमोट होने से बच्चों की शिक्षा पर भयावह असर पड़ने का अनुमान है। असर की कोरोना वेव-1 की रिपोर्ट कहती है कि बिना शिक्षा ग्रहण का स्तर मापे अगली क्लास में भेज दिए जाने के कारण नुकसान विद्यार्थियों का ही है।

इस संबंध में शिक्षकों का कहना है कि उन्हें सरकार की तरफ से आदेश मिला था कि सभी बच्चों को अगली कक्षा में भेज दिया जाए, तो उन्होंने भेज दिया। 

(यह स्टोरी स्वतंत्र पत्रकारों के लिए नेशनल फांउडेशन फॉर इंडिया की मीडिया फेलोशिप के तहत रिपोर्ट की गई है.)

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