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बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के लिए ‘इकोसन’ टॉयलेट: एक इको कथा

क्या हो, अगर एक दिन आप उठे और ख़ुद को कमर तक पानी में पाएँ, आपका टॉयलेट गंदे बाढ़ के पानी में डूबा हुआ हो? और इसी तरह जीना है, एक या दो दिन नहीं, बल्कि कई हफ्तों तक..
#Bihar

हम सुबह उठते हैं और सीधे टॉयलेट की तरफ जाते हैं। आमतौर पर ये टॉयलेट हमारे बेडरूम से जुड़ा होता है। खुद को राहत देने के बाद, हम तरोताज़ा महसूस करने लगते हैं। यह हमारा रोजाना का काम है।

लेकिन क्या हो, अगर एक दिन आप उठे और खुद को कमर तक पानी में पाएँ और आपका टॉयलेट गंदे बाढ़ के पानी में डूबा हुआ हो? और इसी तरह जीना है। एक या दो दिन नहीं, बल्कि कई हफ्तों तक…

फिर आप शौच कैसे करेंगे?

इससे भी खराब बात यह है कि अगर आप एक महिला हैं और आपको पीरियड आ रहे हैं, तो आप क्या करेंगी? आप अपना गंदा कपड़ा/सैनिटरी पैड कैसे बदल पाएँगी?

ये कोई कल्पना नहीं है बल्कि उत्तर बिहार में रहने वाले लाखों लोगों की वास्तविक चिंताएँ हैं, जो भारत का सबसे अधिक बाढ़-प्रभावित क्षेत्रों में से एक है। जब आप यह लेख पढ़ रहे होंगे, तो उत्तर बिहार में ऐसे कई गाँव होंगे जो बाढ़ या बाढ़ जैसी स्थिति का सामना कर रहे होंगे।

गैर-लाभकारी मेघ पाइन अभियान (एमपीए) के मुताबिक, उत्तर बिहार में भारत-नेपाल सीमा से सटे ऐसे कई गाँव हैं जो एक साल में 66 बार बाढ़ का सामना करते हैं (मानसून के मौसम के अलावा भी)। हर बार की बाढ़ बारिश (नेपाल में स्थानीय और अपस्ट्रीम) और कुछ अन्य कारणों के चलते कई दिनों तक बनी रहती है।

बाएं: छठी देवी 2016 में नया टोला भिशंभरपुर गाँव में फायदेमंद शौचालय का निर्माण करने वाली पहली महिला थीं। 
दाएं: साल 2023 में छठी देवी में शौचालय दिखाते हुए, जो अभी भी काम का है।

बाएं: छठी देवी 2016 में नया टोला भिशंभरपुर गाँव में फायदेमंद शौचालय का निर्माण करने वाली पहली महिला थीं।

दाएं: साल 2023 में छठी देवी में शौचालय दिखाते हुए, जो अभी भी काम का है।

उत्तरी बिहार की लाखों ग्रामीण महिलाओं के इन प्राकृतिक आपदाओं के दौरान अपने खुद के कई संघर्ष होते हैं। वो बाढ़ जो अब जलवायु परिवर्तन और वर्षा के बदलते पैटर्न के चलते और भी बदतर हो गई हैं। बाढ़ के दौरान महिलाओं को मैदान जाने (शौच के लिए एक स्थानीय शब्द) के लिए कोई सुरक्षित जगह नहीं होती है। स्वच्छ भारत मिशन के तहत बनाए गए अंडरग्राउंड ट्विन- पिट टॉयलेट बाढ़ की स्थिति में बेकार साबित हो जाते हैं।

उत्तर बिहार में 2008-09 की भीषण बाढ़ ने एक नई शुरुआत को जन्म दिया। यह बाढ़-प्रभावित इलाकों में स्वच्छता क्षेत्र में एक इनोवेशन था। स्थानीय परिस्थितियों और सामुदायिक प्रतिक्रिया के आधार पर, ‘मेघ पाइन’ अभियान ने एक अनोखा इकोसन (पारिस्थितिक स्वच्छता) टॉयलेट डिजाइन किया, जिसे फायदेमंद शौचालय कहा जाता है। इसे खासतौर पर उत्तर बिहार के बाढ़ प्रभावित इलाकों को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था।

2016 में, मैंने उत्तर बिहार के पश्चिम चंपारण जिले के गाँवों का दौरा किया। वहाँ मैंने पहली बार नौतन और गौनाहा ब्लॉक के कुछ गाँवों में फायदेमंद शौचालयों को देखा। मेघ पाइन अभियान ने स्थानीय समुदायों के सहयोग से और स्थानीय राजमिस्त्रियों को प्रशिक्षण देकर इनका निर्माण कराया था।

एक पर्यावरण पत्रकार के रूप में मैं इन शौचालयों के डिजाइन से काफी प्रभावित हुई थी। इसमें बहुत कम पानी की जरुरत होती है और यह खेती के लिए मानवीय कचरे से बनी खाद भी पैदा करता है।

सीधे शब्दों में कहें तो, फायदेमंद शौचालय में दो विशेष रूप से डिजाइन किए गए इकोसन टॉयलेट पैन होते हैं जो दो कंक्रीट चैंबर के ऊपर रखे जाते हैं। इनके बीच एक दीवार होती है। टॉयलेट और उसके चैंबर को काफी ऊंचाई पर बनाया जाता है ताकि अत्यधिक बाढ़ के दौरान भी फायदेमंद शौचालय काम करते रहें। यही इसका लिटमस टेस्ट है।

शौचालय और उसके कमरों को किसी ऊंची जगह पर बनाया जाता है।

शौचालय और उसके कमरों को किसी ऊंची जगह पर बनाया जाता है।

हर पैन के केंद्र में 10 इंच डायमीटर की जगह होती है, जो नीचे के चैंबर की ओर जाती है। यहां मल एकत्र किया जाता है। इस खुली जगह से दूर ढलान पर आगे और पीछे दो बेसिन हैं जिनकी अपनी जल निकासी है। ये यूरिन और वाश वाटर को अलग-अलग इकट्ठा करते हैं।

शौच करने के बाद व्यक्ति को मल पर कुछ राख या चूरा छिड़कना होता है और फिर वह मल के छेद का ढक्कन बंद कर देता है। कीड़ों के हमले को रोकने के लिए, वाश वाटर या यूरिन की एक बूंद भी मल चैंबर के अंदर नहीं जानी चाहिए।

परिवार पहले पाँच से छह महीनों के लिए इकोसैन शौचालय के एक चैंबर का इस्तेमाल करता है। और एक बार जब वह भर जाता है, तो वह दूसरे चैंबर का इस्तेमाल करने लग जाता है। उधर, पहले चैंबर में मल स्वाभाविक रूप से समय के साथ मानव निर्मित खाद में बदल जाता है। फिर इसे निकाला जाता है और खेतों में डाला जाता है। इससे परिवार द्वारा उर्वरक और कीटनाशकों पर किए जाने वाले खर्च में भी कमी आती है।

यूरीन को भी इस्तेमाल में लाया जाता है। इसे एक अलग कंटेनर में इकट्ठा किया जाता है। इसे पानी में मिलाकर, खेतों में छिड़का जाता है।

फायदेमंद शौचालय के साथ मेरी पहली मुलाकात 2016 में हुई थी। इसके बाद, मैंने 2016 और 2018 के बीच पश्चिम चंपारण के गाँवों में इन शौचालयों का दोबारा दौरा किया। मैं कई ग्रामीण महिलाओं से मिली। उन्होंने कहा कि उन्हें राहत मिली है। अब उनके पास बाढ़ के दौरान भी शौच के लिए एक सुरक्षित और साफ जगह है। सबसे ज्यादा फायदा किशोरियों को हुआ है।

इन इकोसैन टॉयलेट को दोबारा देखने का एक कारण यह जांचना भी था कि क्या वे “अभी भी काम कर रहे हैं” (हम पत्रकारों को हर चीज को शक की निगाह से देखने वाले प्राणी के तौर पर जाना जाता है)। और मुझे हैरानी हुई कि क्षेत्र में बाढ़ की कुछ घटनाओं के बावजूद ये टॉयलेट काम कर रहे थे।

फिर महामारी आई और दुनिया लड़खड़ा गई। कोरोना वायरस ने हमारे जीवन को हमेशा के लिए बदल दिया। मेरी दिली इच्छा थी कि मैं फायदेमंद शौचालयों को फिर से देखूं और पता लगांऊ कि क्या वे “अभी भी काम कर रहे हैं” (रिपोर्टर भी उत्सुक होते हैं!)।

आखिरकार, एक महीने पहले मुझे पश्चिम चंपारण में गंडक नदी के तटबंध के भीतर स्थित नया टोला बिशंभरपुर गाँव में फिर से जाने का मौका मिला। इस गाँव में बार-बार बाढ़ का आना सामान्य है। यहाँ 2017 में आठ फायदेमंद शौचालय बनाए गए थे।

इकोसैन शौचालय इन ग्रामीण महिलाओं की रोजमर्रा की ज़िदंगी का एक अहम हिस्सा बन गया है।

इकोसैन शौचालय इन ग्रामीण महिलाओं की रोजमर्रा की ज़िदंगी का एक अहम हिस्सा बन गया है।

जिन गाँव वालों से मैं महामारी से पहले के सालों में मिली थी, उनसे दोबारा मिलना हुआ। उनके परिवारों को सुरक्षित देखना एक जबरदस्त अहसास था। लेकिन मुझे सबसे ज्यादा खुशी इस बात से हुई कि 134 घरों वाले गाँव में छह इकोसैन शौचालय अभी भी काम कर रहे थे। महिलाएँ और उनके परिवार वाले, जिनसे मैं पाँच-छह साल पहले मिली थी, अभी भी उनका इस्तेमाल कर रहे थे।

गीता देवी बड़े ही उत्साह के साथ मुझे अपना फायदेमंद शौचालय दिखाने ले गईं। उसकी दीवारों पर टाइलें लगीं थीं। उन्होंने कहा, “मेरे पति ने शौचालय को और भी अच्छा बनाने के लिए ये टाइलें लगाई हैं। हमने अपने घर को और बड़ा बना लिया है और अब शौचालय हमारे घर से जुड़ा हुआ है।”

गीता देवी ने भी हाल ही में अपने शौचालय से मानवीय कचरे से बनी खाद को निकाला था और इसे अपने गन्ने के खेतों में लगाने के लिए सुरक्षित रखा हुआ था।

छेत्ति देवी नया टोला बिशंभरपुर गाँव में फायदेमंद शौचालय बनवाने वाली पहली महिला थीं। उन्होंने मुझे अपना शौचालय भी दिखाया- साफ-सुथरा, जिससे बिल्कुल भी गंध नहीं आ रही थी।

देखा जाए, तो इकोसैन टॉयलेट इन ग्रामीण महिलाओं की रोजाना की जिंदगी का एक हिस्सा बन गए हैं। उन्होंने कहा कि आखिरकार शौच करने के लिए उन्हें एक सुरक्षित और स्वच्छ जगह मिल गई। इसे वह तब भी इस्तेमाल कर पाते हैं जब गाँव बाढ़ से प्रभावित होता है। वरना लगभग हर मानसून में उन्हें परेशानी का सामना करना पड़ता था।

फायदेमंद शौचालय के संस्थापक एकलव्य प्रसाद ने कहा कि नया टोला बिशंभरपुर गाँव में और ज्यादा बाढ़-रोधी इकोसन टॉयलेट बनाने की योजना पर काम चल रहा है। यह पारिस्थितिकी स्वच्छता और प्राकृतिक खेती दोनों के लिए फायदे का सौदा है। है ना?

निधि जम्वाल गाँव कनेक्शन की प्रबंध संपादक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। 

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