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लंबा इंतजार: 16 सालों में वन अधिकार अधिनियम के तहत सिर्फ 50 फीसदी दावों का निपटारा किया गया

14 दिसंबर को, राज्यसभा में जनजातीय मामलों के मंत्रालय की तरफ से पेश किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि 2006 के अधिनियम के तहत राष्ट्रीय स्तर पर दायर कुल दावों में से सिर्फ 50 फीसदी को ही मंजूर किया गया है. उच्च जनजातीय आबादी वाले महाराष्ट्र, राजस्थान और मध्य प्रदेश में व्यक्तिगत वन अधिकारों के लिए अनुमोदन दर तो 50 प्रतिशत से भी कम है। वन अधिकार अधिनियम, 2006 में आखिर ऐसी क्या कमी है?
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उत्तराखंड के पशुपालक समुदाय के वान गुर्जर अमीर हमजा के लिए एक जगह से दूसरी जगह पर भटकना कोई नई बात नहीं है। 2019 के बाद से ऋषिकेश के पास राजाजी टाइगर रिजर्व की गौरी रेंज में रह रहे 28 साल के अमीर अपने वह अपने समुदाय को कानूनी रूप से मिलने वाले स्थानीय जंगलों पर अधिकार पाने के लिए दर-दर भटक रहे हैं।

पहाड़ी राज्य में खानाबदोश समुदायों के अधिकारों की वकालत करने वाले वन गुज्जर आदिवासी युवा संगठन के संस्थापक ने 2019 से देहाती समुदाय के लिए 12 सामुदायिक वन अधिकार दावे और 2 हजार से ज्यादा व्यक्तिगत वन अधिकार दावे दायर किए हैं। ये अधिकार अगर उन्हें मिल जाते हैं, तो वन गुर्जरों (उत्तराखंड में ओबीसी के रूप में वर्गीकृत) को जंगलों और उनके संसाधनों तक पहुंच बनाने की अनुमति मिल जाएगी। ये घुमंतू समुदाय पीढ़ियों से जंगलों और उनसे मिलने वाले संसाधनों पर निर्भर रहा है।

हमजा ने दुखी मन से कहा, “चार साल बाद भी हमारे दावे SDLC (उप-विभागीय स्तर की समिति) या DLC (जिला स्तरीय समिति) स्तर के पास लंबित पड़े हैं।”

उत्तराखंड के वन गुर्जर समुदाय की तरह देश भर में सैकड़ों हजार आदिवासी अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के तहत अपने दावों को निपटाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इस कानून को आमतौर पर वन अधिकार अधिनियम या एफआरए के रूप में जाना जाता है।

यह ऐतिहासिक अधिनियम वन में रहने वाले आदिवासी समुदायों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के वन संसाधनों के अधिकारों को मान्यता देता है, जिन पर ये समुदाय आजीविका, आवास और अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक जरूरतों के लिए निर्भर रहे हैं।

यह कानून वनवासियों को वन संसाधनों तक पहुंचने और उनका इस्तेमाल करने का अधिकार देता है। यह वह काम है जिसे वह परंपरागत रूप से करते आए हैं। इसके अलावा ये कानून वनों की रक्षा, संरक्षण एंव प्रबंधन और वनवासियों को गैरकानूनी बेदखली से बचाते हैं।

लेकिन केंद्रीय कानून के लागू होने के सोलह साल बाद भी इसका कार्यान्वयन बेहद अच्छी स्थिति में नहीं है। बड़ी संख्या में आदिवासी समुदायों को अभी भी जंगलों पर उनके पारंपरिक अधिकार नहीं दिए गए हैं।

नए आधिकारिक आंकड़ों में यह स्थिति साफ तौर पर नजर आती है। 14 दिसंबर, 2022 को राज्यसभा में जनजातीय मामलों के मंत्रालय की तरफ से पेश किए गए डेटा से पता चलता है कि राष्ट्रीय स्तर पर, जून 2022 तक अधिनियम के तहत दायर कुल दावों में से सिर्फ 50 फीसदी का ही निपटारा किया गया है.

उत्तराखंड में 2006 में कानून के लागू होने के बाद से सिर्फ 184 व्यक्तिगत वन अधिकार (IFR) और एक सामुदायिक वन अधिकार (CFR) के दावे का निपटारा किया गया है, जो देश में सबसे कम है. आधिकारिक आंकड़ों से पता चलता है कि हिमालयी राज्य में कुल 3,587 आईएफआर और 3,091 सीएफआर दायर किए गए हैं।

वन पंचायत संघर्ष मोर्चा के संयोजक तरुण जोशी ने कहा “जिस एकमात्र दावे को स्वीकार किया गया है वह उत्तरकाशी के डूंडा के चौंडियात गांव का है। इसे 2012 में दायर किया गया था, लेकिन मंजूरी 2016 में मिल पाई. राज्य सरकार डेटाबेस को शायद ही अपडेट करती हो। जिस सीएफआर दावे का निपटारा किया गया है वह एक तालाब का इस्तेमाल करने की मंजूरी को लेकर था।”

कुछ अन्य राज्यों में भी स्थिति ज्यादा बेहतर नहीं है। उदाहरण के लिए, उच्च जनजातीय आबादी वाले महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश में एफआरए के तहत व्यक्तिगत वन अधिकारों के लिए अनुमोदन दर क्रमशः 45.5 प्रतिशत, 50.14 प्रतिशत, 46.78 प्रतिशत और 45.55 प्रतिशत है (बार ग्राफ देखें)।  

मध्य भारत में छत्तीसगढ़ ने एफआरए 2006 के तहत सबसे ज्यादा सीएफआर दावों का निपटान किया है। 871,457 आईएफआर दावों में से 446,041 (51.18 %) को मंजूरी दी गई है। इसी तरह से 50,889 सीएफआर दावों में से 45,764 (89.9 प्रतिशत) स्वीकृत किए गए हैं।

अप्रूवल और रिजेक्शन की प्रक्रिया

एफआरए की तीन स्तरीय अनुमोदन प्रक्रिया है. इसमें सबसे पहले ग्राम सभा स्तर पर दावे दर्ज किए जाते हैं। इसके बाद इन्हें उप-विभागीय स्तर की समिति (SDLC) और आगे जिला स्तरीय समिति (DLC) को सौंप दिया जाता है। दोनों कमेटियों का नेतृत्व सरकारी अधिकारियों द्वारा किया जाता है। 

एसडीएलसी अधूरी कागजी कार्रवाई या किसी साक्ष्य दस्तावेज की कमी के मामले में दावे को वापस भेज सकता है, लेकिन अस्वीकार करने का अधिकार पूरी तरह से ग्राम सभाओं के पास होता है। अधिनियम बताता है कि किसी भी दावे को अस्वीकृति करते समय दावेदार को उसकी पूरी जानकारी देनी होगी। इसके बाद अस्वीकार किए गए दावे को प्राप्त करने के 60 दिनों के भीतर फिर से अपील की जा सकती है।

श्रुति (सोसाइटी फॉर रूरल, अर्बन एंड ट्राइबल इनिशिएटिव) के सह-निदेशक सत्यम श्रीवास्तव ने कहा, “दुर्भाग्य से कम्युनिकेशन नहीं हो रहा है।” यह जनजातीय मामलों के मंत्रालय की एक सलाहकार समिति का भी हिस्सा रहा है। जनजातीय मंत्रालय एफआरए के लिए मुख्य कार्यान्वयन प्राधिकरण है।

झारखंड वन अधिकार मंच के संयोजक सुधीर पाल के अनुसार, कई दावे एसडीएलसी या डीएलसी स्तर पर चार साल से अधिक समय तक लटके पड़े रहते हैं। लेकिन दावेदार को इसकी कोई कोई जानकारी नहीं दी गई होती है।

उदाहरण के लिए, झारखंड में, व्यक्तिगत वन अधिकार दावों का केवल 55.9 प्रतिशत और 2,57,154.83 एकड़ वन क्षेत्र पर सामुदायिक वन अधिकारों के 56.4 प्रतिशत दावों का निपटान किया गया है।

पाल ने कहा, “हमें उम्मीद थी कि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की सरकार में जल, जंगल, ज़मीन अधिकारों के लिए दावा स्वीकृतियों में सुधार आ जाएगा। आखिरकार यह चुनावी मुद्दा था। दुर्भाग्य से, मुझे लगता है कि स्थिति और खराब हो गई है।”

उन्होंने शिकायती लहजे में बताया, “कोविड से पहले हमने सुचारू एफआरए कार्यान्वयन के लिए एक मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) तैयार की थी। इसे सीएम की तरफ से खुद से शुरू किया गया था. लेकिन दो साल से ज्यादा का समय बीत चुका है। न तो विभाग ने एसओपी का कोई संज्ञान लिया, और न ही इसे मंजूरी दी गई या लागू किया गया।” उन्होंने कहा, “सरकार राज्य में एफआरए के प्रति उदासीन है।”

उधर झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन वन (संरक्षण) नियम, 2022 पर सवाल उठा रहे हैं। उनका दावा है कि इससे ग्राम सभाओं की शक्ति कम हो रही है।

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की अध्यक्षता में 17 दिसंबर को हुई पूर्वी क्षेत्रीय परिषद की हालिया बैठक में बोलते हुए, हेमंत सोरेन ने कहा कि 2022 के नियम “देश में लगभग 20 करोड़ आदिवासियों के अधिकारों के अतिक्रमण की तरह हैं।”

मुख्यमंत्री ने 1 दिसंबर, 2022 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को संबोधित एक पत्र में इसी तरह का बयान दिया था। उन्होंने पत्र में लिखा था, “ये नए नियम उन लोगों के अधिकारों को खत्म कर देंगे, जिन्होंने पीढ़ियों से जंगलों को अपना घर माना है, लेकिन उनके अधिकारों को रिकॉर्ड नहीं किया जा सका है।”

नए 2022 नियमों में अधिनियम की धारा 2 के तहत केंद्र सरकार से ‘अंतिम’ अनुमोदन प्राप्त करने के बाद कोई भी “डायवर्जन, पट्टे का असाइनमेंट या डी-रिजर्वेशन” हो सकता है. लेकिन यह अनुमोदन राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के “अन्य सभी अधिनियमों और उसके तहत बनाए गए नियमों के प्रावधानों की पूर्ति और अनुपालन” के बाद ही दिया जा सकता है।

विशेषज्ञों का कहना है कि नए नियम सरकार और वनभूमि के बीच जनजातीय समुदायों की तरफ से निभाई गई इंटरफ़ेस भूमिका को कम करते हैं।

वन अधिकार समितियां कितनी अच्छी हैं?

13 फरवरी, 2019 को सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश ने देश के वनवासी समुदायों को झकझोर कर रख दिया। आदेश में कहा गया है कि उन सभी “अतिक्रमण कर्ताओं” को बेदखल किया जाए, जिनके दावे वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत खारिज कर दिए गए थे। समय सीमा जुलाई 2019 निर्धारित की गई थी।

‘वाइल्डलाइफ फर्स्ट, नेचर कंजर्वेशन सोसाइटी और टाइगर रिसर्च एंड कंजर्वेशन ट्रस्ट’ याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया था कि ग्राम सभा स्तर पर खारिज किए गए 14.77 लाख एफआरए दावे ‘फर्जी दावों’ के सबूत थे। लेकिन दो हफ्ते बाद 28 फरवरी को, शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार की ओर से एक याचिका दायर करने के बाद अपने 13 फरवरी के आदेश पर रोक लगाने का आदेश दे दिया और राज्यों को खारिज किए गए दावों की समीक्षा करने के लिए कहा।

जुलाई 2019 में छत्तीसगढ़ की तरफ से दायर एक एफिडेविट में एफआरए दावों की सत्यापन प्रक्रिया में खामियां पाई गईं। इसके अलावा इसने बताया कि अधिकांश मामलों में आदिवासियों को उनके दावों की अस्वीकृति के आदेशों की जानकारी नहीं दी गई थी. साथ ही यह भी साफ नहीं था कि एफआरए के तहत गठित “तीन स्तरीय निगरानी समिति” ने इन सभी पहलुओं की निगरानी की है या नहीं।

रायपुर स्थित छत्तीसगढ़ वन अधिकार मंच के संयोजक विजेंद्र अजनाबी ने कहा, “अस्वीकृत दावों की समीक्षा पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद एफआरसी (वन अधिकार समितियों) का गठन किया गया था, लेकिन समिति के कई सदस्यों को तो यह भी नहीं पता था कि वे इसका हिस्सा है। इन एफआरसी के लिए किसी दावे को सत्यापित करने के लिए पर्याप्त प्रशिक्षण या रिकॉर्ड नहीं है।”

समुदाय की ओर से दायर दावों को प्राप्त करने, स्वीकार करने और बनाए रखने और इन दावों को सत्यापित करने के कार्यों में सहायता के लिए ग्राम सभा द्वारा वन अधिकार समितियों (एफआरसी) का गठन किया जाता है. ये समितियां ग्राम सभाओं की ओर से सीएफआर दावों को तैयार करने के लिए भी जिम्मेदार हैं।

परस्पर विरोधी दावों के मामले में, दावों की प्रकृति पर विचार करने और अपने निष्कर्ष प्रस्तुत करने के लिए संबंधित गांवों के एफआरसी संयुक्त रूप से मिलते हैं।

हालांकि छत्तीसगढ़ में एफआरए के तहत निपटाए गए मामलों की दर काफी ज्यादा है लेकिन सीएफआर के आसपास के कुछ मुद्दे अनसुलझे हैं. अजनाबी ने कहा, “छत्तीसगढ़ में प्रति शीर्षक (title) औसतन दो एकड़ जमीन दी गई है। इस तथ्य के बावजूद कि राज्य अन्य राज्यों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन कर रहा है, IFR दावों को संभालने में सुधार की बहुत गुंजाइश है क्योंकि यह उनके चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा था।”

छत्तीसगढ़ वन अधिकार मंच के संयोजक ने कहा कि वन अधिकार समितियों को मजबूत करने की जरूरत है ताकि उनके अधिकारों को बेहतर तरीके से समझा जा सके. कानूनी तौर पर, एफआरसी का एक तिहाई हिस्सा महिलाओं का होना चाहिए, लेकिन यह प्रयास सिर्फ कागजों तक सिमट कर रह गए हैं. क्योंकि जब “महिलाओं को ज़मींदार के रूप में मान्यता नहीं दी गई है और उन्हें पता नहीं है कि वे किस अधिकार का दावा कर सकती हैं, तो फिर इसका कोई मतलब नहीं रह जाता है।”

और भी समस्याएं हैं। एफआरए के तहत, हर तीन महीने में दावों की समीक्षा करने और उसका फॉलोअप करने के लिए एक राज्य स्तरीय निगरानी समिति का गठन किया जाना होता है। झारखंड वन अधिकार मंच के पाल ने कहा, “जुलाई 2019 से झारखंड में ऐसी कोई बैठक आयोजित नहीं की गई है। और न ही इस निगरानी समिति की अनुपस्थिति में एफआरए दावों पर कोई फॉलोअप किया गया है।”

2006 का अधिनियम यह भी निर्दिष्ट करता है कि एफआरए प्रक्रिया की शुरुआत में ग्राम सभा को “अधिकारों की प्रकृति” और “अधिकारों की सीमा” के बारे में भी बताया जाना चाहिए। अजनाबी ने कहा कि सामुदायिक अधिकारों के तहत क्या आता है, और प्रासंगिक प्राधिकारी कौन है, इस बारे में जानकारी की कमी पूरे विचार को कमजोर बना देती है।

छत्तीसगढ़ सीएफआर कार्यान्वयन में सबसे आगे

हालांकि चुनौतियां बनी हुई हैं. लेकिन छत्तीसगढ़ ने एक टाइगर रिजर्व (धमतरी में सीतानदी-उदंती) में सामुदायिक वन संसाधन अधिकार (CFRR) को मान्यता देने और “एकल महिला को IFR उपाधियों का वितरण” करने के संदर्भ में कुछ अच्छी प्रथाओं का उदाहरण प्रस्तुत किया है।

अजनबी ने समझाया, “लगभग 21,000 एकल महिला वन अधिकारों को मान्यता दी गई है। राज्य सरकार ने महिला लाभार्थियों के लिए एक अलग रिकॉर्ड बनाए रखा है। छत्तीसगढ़ सरकार ने वन विभाग के जमीनी कर्मचारियों के लिए एक मॉड्यूल तैयार किया था. इसमें हाशिए के समुदायों जैसे महिलाओं, देहाती समुदाय, आदि के लिए अलग-अलग खाका तैयार किया गया था. लेकिन दुर्भाग्य से यह एक और भारी दस्तावेज बनकर रह गया है।”

एक स्वतंत्र वन अधिकार शोधकर्ता तुषार दास इस बात से सहमत हैं कि राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ-साथ बेहतर समर्थित नागरिक समाजों के प्रयासों के कारण छत्तीसगढ़ की एफआरए मान्यता अपेक्षाकृत बेहतर है। दास ने कहा, “उनके जनजातीय विभाग के भीतर के निकाय जैसे FRA सपोर्ट सेल जमीनी स्तर पर चीजों को आगे बढ़ाने के लिए मैनुअल और गाइड बनाते हैं. मसलन ग्राम सभाओं को कैसे मजबूत किया जाए आदि। इससे बहुत फर्क पड़ता है।’

वन पंचायत संघर्ष मोर्चा, उत्तराखंड के संयोजक तरुण जोशी राज्य में एफआरए के खराब कार्यान्वयन के लिए “राज्य वन विभाग के रवैये में कमी” को जिम्मेदार ठहराते हैं।

जोशी ने कहा, “कॉर्बेट नेशनल पार्क के वन गुर्जर समुदाय के 43 परिवारों द्वारा दायर एक सीएफआर दावे में सभी दस्तावेज दिए गए थे और डीएलसी स्तर पर उसे स्वीकृत भी मिल गई थी. लेकिन इसके बावजूद वन विभाग ने प्रक्रिया को रोकने के लिए एक उच्च न्यायालय का आदेश प्राप्त कर लिया.हमें शीर्ष अदालत से स्टे मिल गया है, लेकिन नौकरशाही की चुनौतियां बनी हुई हैं।”

उन्होंने बताया कि वन गुर्जरों की लगभग 150 बस्तियों में वन पंचायत का अधिकार नहीं है। वह बताते हैं, “उन्होंने वन पंचायतों के लिए संयुक्त वन प्रबंधन समितियों के दिशानिर्देशों को लागू करने की कोशिश की है, लेकिन लोगों की इसके प्रति नाराजगी और विरोध ऐसा नहीं होने देगा।”

वन पंचायतें या ग्राम वन परिषदें वनों के सतत प्रबंधन के लिए गठित स्वायत्त निकाय हैं। पहली वन पंचायत 1992 में पहाड़ी राज्य में स्थापित की गई थी। उत्तराखंड में 6,000 से ज्यादा वन पंचायत राजस्व कानून के तहत मान्यता प्राप्त हैं जो लगभग 405,000 हेक्टेयर वनों की देखभाल करती हैं।

ओडिशा व्यक्तिगत वन अधिकारों को निपटाने में आगे 

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अनुसंधान और प्रशिक्षण संस्थान की प्रमुख सलाहकार श्वेता मिश्रा ने कहा, “ओडिशा और अधिक जंगल अधिकार व एफआरसी की क्षमता निर्माण के लिए मिशन मोड में है।” जून 2022 तक, ओडिशा में दायर 628,000 आइएफआर और 15,282 सीएफआर दावों में से क्रमशः 452,000 (72.02%) और 7,624 (49.88%) को मंजूरी दी गई है। मिश्रा ने नयागढ़ का उदाहरण दिया जहां गैर-आदिवासी गांवों को भी सीएफआर प्राप्त हुआ था।

एफआरए कार्यान्वयन में सबसे बड़ी बाधा की ओर इशारा करते हुए वह कहती हैं, “वन विभाग की समुदायों के साथ समस्या सीमित सहयोग के कारण बनी हुई है। यह व्यवहार से जुड़ी एक समस्या है। दरअसल अधिकारियों को वन भूमि को एक भूमि के रूप में देखने के बजाय पीढ़ियों से उपयोग की जाने वाली वन भूमि के रूप में देखने की आवश्यकता है. वन विभाग को अपने इस नजरिये को बदलना होगा।”

एक स्वतंत्र वन अधिकार शोधकर्ता दास ने कहा कि वन नौकरशाही के कड़े प्रतिरोध की तरफ जनाजातीय मंत्रालय ने भी इशारा किया था. उन्होंने बताया, “नयागढ़ जैसे मामलों में समुदायों और वन विभाग के बीच संबंधों में काफी हद तक सुधार हुआ है क्योंकि ग्राम सभाएं सशक्त हैं और सालों से अधिकारों का दावा करती आई हैं।”

दास ने बताया कि ओडिशा में वसुंधरा जैसे संगठन बेहतर एफआरए आवेदन के लिए ग्राम सभाओं को मजबूत करने में सहायता करते हैं, लेकिन “ऐसे निकायों के पास सीमित संसाधन क्षमता है।”

दास ने कहा, “कालाहांडी में, तेंदूपत्ता इकट्ठा करने वाले समुदाय को अस्थायी परमिट की समस्या का सामना करना पड़ता है। अधिनियम कहता है कि एक बार सीएफआर वितरित हो जाने के बाद, अस्थायी परमिट ग्राम सभा द्वारा जारी किया जाना चाहिए, लेकिन अब भी वन विभाग इसे नियंत्रित कर रहा है।”

उन्होंने कहा, ” हालांकि ओडिशा में, सार्वजनिक क्षेत्र में उपलब्ध एफआरए एटलस जैसे संसाधनों के कारण जोर है. यह उत्तराखंड जैसे राज्यों के विपरीत जवाबदेही बनाता है।”

डेटा अस्पष्टता

राज्यसभा में हाल ही में पेश किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि मध्य प्रदेश ने आदिवासी समुदायों द्वारा दायर सीएफआर के 66.3 प्रतिशत और आईएफआर दावों के 45.5 प्रतिशत को मंजूरी दी है। दास ने कहा, “मध्य प्रदेश के लिए सीएफआर डेटा भ्रामक है। सामान्य भूमि पर स्कूल, आंगनवाड़ी निर्माण जैसे विकासात्मक अधिकारों को सीएफआर के रूप में दिखाया गया है।”

2019 में, मध्य प्रदेश वन विभाग ने एफआरए दावों को सहज तरीके से सुगम बनाने के लिए एक एप्लिकेशन ‘वन मित्र’ लॉन्च किया था।

श्रुति के सह-निदेशक सत्यम श्रीवास्तव ने बताया, “लेकिन जैसा सोचा था वैसा नहीं हुआ. डिजिटलीकरण ने प्रक्रिया को जटिल बना दिया। आवेदनों की कोई पावती या ट्रैकिंग नहीं थी। इसके अलावा, पटवारियों और वन विभाग के अधिकारियों को इस प्रक्रिया में एक बड़ा हितधारक बनाया गया, जिससे ग्राम सभा की भूमिका कम हो गई।”

लैंड कन्फ्लिक्ट वॉच की ‘लैंड लॉक्ड: इन्वेस्टमेंट्स एंड लाइव्स इन लैंड कॉन्फ्लिक्ट्स’ शीर्षक से दिसंबर, 2022 में जारी एक रिपोर्ट में यह पाया गया कि देशभर में भूमि अधिकारों के आसपास सुरक्षात्मक कानूनी प्रावधानों के उल्लंघन के कारण पैदा हुए कुल भूमि संघर्षों में से 23.65 प्रतिशत घटनाएं एफआरए के कार्यान्वयन के कारण हुई थीं।

इसके अतिरिक्त, रिपोर्ट में कहा गया है कि हालांकि एफआरए सभी संघर्षों (25 प्रतिशत मामलों में) में दूसरा सबसे अधिक बार लागू होने वाला कानून था, लेकिन यह कानूनी विवादों में लागू कानूनों में चौथा था (केवल 18.36 प्रतिशत मामलों में). यह वन अधिकारों के संघर्षों में शामिल समुदायों के लिए न्यायपालिका की कम पहुंच का संकेत देता है।

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