उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के देवरा गाँव के जाने-माने भूविज्ञानी डॉ शिव बालक मिसरा के लिए 1967 का साल एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ था। उस साल वह एक वैज्ञानिक के रूप में अपने करियर के शिखर पर पहुंचे थे और फिर उसी साल उन्होंने अपनी जड़ों की ओर लौटने और दूसरे सपने को पूरा करने का फैसला किया। वह अपने गाँव में एक स्कूल खोलना चाहते थे।
डॉ मिसरा और उनकी पत्नी निर्मला मिसरा के ‘भारतीय ग्रामीण विद्यालय’ ने इस साल मई में अपनी स्वर्ण जयंती मनाई। क्या वजह रही कि भूवैज्ञानिक ने कनाडा में अपनी आरामदायक नौकरी छोड़ दी और एक स्कूल स्थापित करने के लिए उत्तर प्रदेश में अपने गाँव लौट आए?
इसके पीछे उनके संघर्ष की एक लंबी कहानी है। डॉ मिसरा के गाँव का सबसे नजदीकी स्कूल 12 किलोमीटर दूर था। उन्होंने बताया, “उस समय मैं प्राथमिक विद्यालय में पढ़ता था। तब स्कूल सुबह सात बजे शुरू होता था। कक्षा में समय पर पहुंचने के लिए मुझे सुबह चार बजे उठना पड़ता और 12 किलोमीटर पैदल चलकर मैं वहां तक पहुंचता था। चांद को देखकर समय का अंदाजा लगाया करता था।” डॉ मिसरा अपने बेटे नीलेश मिसरा को ‘कन्वर्सेशन्स विद माई फादर’ में अपनी कहानी सुना रहे थे। प्रसिद्ध कहानीकार नीलेश मिश्रा इस इंटरव्यू सीरीज के मेजबान हैं। यह एक तीन पार्ट वाली एक लघु वीडियो श्रृंखला है, जिसे यूट्यूब पर देखा जा सकता है। इसे डॉ शिव बालक मिसरा की आत्मकथा ‘ड्रीम चेजिंग’ के आधार पर तैयार किया गया है।
डॉ मिसरा कहते हैं, “मुझे भारत लौटने के लिए मजबूर होना पड़ा। क्योंकि मैं जान गया था कि मेरी सबसे बड़ी आकांक्षा अपने गाँव के बच्चों के लिए एक अच्छा स्कूल उपलब्ध कराने की है।”
1967 में कनाडा के मेमोरियल यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यूफाउंडलैंड में स्कॉलरशिप पाने के बाद डॉ मिश्रा ने एवलॉन प्रायद्वीप में एक जीवाश्म की खोज की। यूनाइटेड नेशन एजुकेशनल, साइंटिफिक एंड कल्चरल ऑर्गेनाइजेशन (यूनेस्को) के अनुसार, ‘यह दुनिया में कहीं भी बड़े जीवाश्मों का सबसे पुराना ज्ञात संग्रह’ है।’
डॉ मिसरा ने एक ‘इंप्रिंट जैसी सॉफ्ट बॉडी जेलिफ़िश’ की खोज की सूचना दी थी। इसे 2007 में भूविज्ञानी के सम्मान में ‘फ्रैक्टोफुसस मिसराई’ के रूप में नामित किया गया और 2016 में इस एरिया को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया था।
यूनेस्को इस विश्व धरोहर स्थल के बारे में लिखा है, “ये जीवाश्म पृथ्वी पर जीवन के इतिहास में एक वाटरशेड का वर्णन करते हैं: बड़े, जैविक रूप से जटिल जीवों की उपस्थिति, लगभग तीन अरब वर्षों के सूक्ष्म-प्रभुत्व वाले विकास के बाद।”
अपनी जड़ों की ओर वापसी
लेकिन एक भूविज्ञानी के रूप में डॉ मिसरा की सफलता उन्हें कनाडा में लंबे समय तक बनाए रखने के लिए काफी नहीं थी। रोजाना कई किलोमीटर पैदल चलकर स्कूल जाने की उनकी बचपन की यादें उन्हें परेशान करती रहीं थीं।
डॉ मिश्रा ने ‘कन्वर्सेशन्स विद माई फादर’में साझा किया है, “एक दिन, मैं यह सोचकर अंधेरे में जाग गया कि जब तक मैं स्कूल पहुंचुंगा तब तक सूरज निकल चुका होगा। मैं चलता रहा, लेकिन सूरज कहीं दिखाई नहीं दिया। दो घंटे बाद भी नहीं। मेरे स्कूल पहुंचने के बाद भी आसमान में सूरज नहीं था!”
उन्होंने कहा, “तब मुझे एहसास हुआ कि मैं बहुत जल्दी जाग गया हूं। शायद यही वह क्षण था जब मुझे लगा कि मेरे गाँव को एक स्कूल की सख्त जरूरत है। जब मैं विदेश गया तब भी उस विचार ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा और यह मेरे जीवन का मिशन बन गया।”
1967 में, विश्व मंच पर एक भूविज्ञानी के रूप में मान्यता प्राप्त करते हुए उन्होंने अपने देश में तीव्र सूखे और अकाल के बारे में जाना था। इसने ग्रामीण जड़ों की ओर लौटने की उनकी लालसा और अपने गाँव में प्रारंभिक शिक्षा पाने के लिए सहन की गई कठिनाइयों की यादों को फिर से जागृत कर दिया था।
पांच साल बाद, 1972 में डॉ मिसरा ने अपनी नवविवाहित पत्नी निर्मला के सहयोग से राज्य की राजधानी लखनऊ से लगभग 40 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश के कुनौरा गाँव में ‘भारतीय ग्रामीण विद्यालय’ की स्थापना की। आज स्कूल में लगभग एक हजार छात्र पढ़ रहे हैं। इस स्कूल ने हाल ही में अपनी स्वर्ण जयंती मनाई है।
चुनौतियां
डॉ मिसरा 1970 में भारत लौटे आए। उन्होंने अपने गाँव के बाहरी इलाके में एक स्कूल खोलने के लिए जमीन खरीदी। उन्होंने 1972 में निर्मला मिसरा से शादी की। दंपति ने स्कूल को चलाने और स्थानीय बच्चों को मुफ्त शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए इसे अपना मिशन बना लिया।
स्कूल शुरूआत में छप्पर वाले कमरों में चलता था। अपने सीमित संसाधनों से बस वो इतना ही खर्चा उठा पा रहे थे। तब निर्मला ने स्कूल चलाने की जिम्मेदारी उठाने का फैसला किया और अपने पति से नौकरी करने के लिए कहा ताकि स्कूल का खर्च उठाया जा सके।
डॉ मिश्रा ने बताया, “निर्मला एक किसान परिवार से ताल्लुक रखती थीं। कई बार वे अपने माता-पिता से मिले अनाज को बेचकर, स्कूल के लिए पैसा जुटाया करती थीं।”
डॉ मिसरा ने कहते हैं, “अब मुझे एहसास हुआ कि पढ़ाई के लिए मेरा प्यार ही था जिसने मुझे आगे बढ़ाया। मेरे मन में अपने शिक्षकों के प्रति गहरा सम्मान था। मेरा मानना था कि शिक्षा ही सफलता की कुंजी है। पढ़े-लिखे लोगों के लिए मेरे मन में आदर का भाव था। मैं जीवन में ‘कुछ’ बनने के लिए पढ़ाई के अलावा और कोई रास्ता नहीं सोच सकता था। मुझे लगता है कि शिक्षाविदों के लिए मेरा लगाव ही था, जिसने मुझे बचपन में मुश्किलों से हार न मानने के लिए प्रेरित किया।”
उन्होंने कहा, ” इस सीखने की भावना और मेरे गांव में बच्चों को बेहतर शिक्षा के अवसर प्रदान करने की इच्छा ने मुझे आगे बढ़ाया।”
गाँव का एक आदर्श स्कूल
भारतीय ग्रामीण विद्यालय आज प्री-प्राइमरी से लेकर 12वीं तक की कक्षाएं चलाता है। स्कूल का उद्देश्य बेहतर शिक्षा के जरिए ग्रामीण छात्रों को आत्मनिर्भर बनाना और बुजुर्गों, महिलाओं और बच्चों के लिए कल्याणकारी योजनाएं चलाना है। इसमें सामाजिक-आर्थिक कल्याण और पर्यावरण जागरूकता से संबंधित योजनाएं भी शामिल हैं।
भारतीय ग्रामीण विद्यालय की ओर से एक नई पहल के तौर पर एक स्किल सेंटर की स्थापना की गई। यहां ग्रामीण छात्रों को भविष्य के रोजगार बाजार के लिए तैयार करने के लिए ग्राफिक डिजाइनिंग जैसे नए कोर्स सिखाए जाते हैं। कोविड-19 महामारी ने दुनिया को ऑनलाइन स्कूली शिक्षा की तरफ आने के लिए मजबूर कर दिया था। लेकिन इस स्कूल में काफी पहले से वर्चुअल क्लासेस चल रहीं हैं।
डॉ मिसरा ने गाँव कनेक्शन को बताया, “बारहवीं कक्षा तक पारंपरिक शिक्षा के बाद, छात्र नौकरियों के लिए शहरों में लक्ष्यहीन भटकते हैं। हमने एक स्किल सेंटर स्थापित कर नए पाठ्यक्रम शुरू किए हैं ताकि वे विभिन्न क्षेत्रों के लिए अपने आपको तैयार कर सकें। उदाहरण के लिए, टैली, हाउसकीपिंग, कैमरा (फोटोग्राफी), रिपेयरिंग (मोबाइल और कंप्यूटर), ट्रिपल सी (CCC या कोर्स ऑन कंप्यूटर कॉन्सेप्ट्स)। उन्होंने आगे कहा, “इस तरह ये ग्रामीण छात्र अपने अंदर आत्मविश्वास पैदा कर सकेंगे और अपने शहरी समकक्षों के साथ प्रतिस्पर्धा कर पाएंगे।”
हाल ही में ‘भारतीय ग्रामीण विद्यालय’ के तीन छात्रों – मोहिनी, सरिता और मधु – को कोलकाता के इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ होटल मैनेजमेंट में दाखिला मिला है। इसके लिए शेफ रणवीर बरार और संस्थान ने इन लड़कियों फेलोशिप दी है, जिसके लिए उनका धन्यवाद।
नीलेश मिसरा ने ट्वीट किया, “यह एक जीवन बदलने वाला इंटरवेंशन है। यह छात्रों के जीवन को बदल देगा, कई लड़कियों को अपने सपनों को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित करेगा।” जो इन लड़कियों के कोलकाता में रहने (प्रति माह 10,000 रुपये) के लिए पॉकेट मनी और उत्तर प्रदेश के गाँव के स्कूल में पढ़ रहे छात्रों का समर्थन करने के लिए संसाधन जुटाने की कोशिश कर रहा है।
कोविड-19 महामारी के कारण शैक्षणिक संस्थानों को बंद करने और ऑनलाइन शिक्षा की तरफ जाने से पहले ‘भारतीय ग्रामीण विद्यालय’ ने 2019 में लांग डिस्टेंस ऑनलाइन क्लासेस शुरू कर दी थी।
This is a life-changing intervention. It needs some help from you as well.
Meet Mohini, Sarita and Madhu, students of Bharatiya Gramin Vidyalaya — the village school set up by my parents in rural Uttar Pradesh 50 years ago.https://t.co/Y9cfgtLgY0 pic.twitter.com/IsbcFkMPKl
— Neelesh Misra (@neeleshmisra) October 29, 2022
नीलेश मिसरा ने गाँव कनेक्शन को बताया, “इंटरनेट गाँवों तक पहुंच गया है। ग्रामीण बच्चे नई चीजें सीखना चाहते हैं और शहरी क्षेत्रों में ऐसे शिक्षक हैं जो उन्हें पढ़ाना चाहते हैं। हम इंटरनेट और वर्चुअल क्लासेस के जरिए उस संबंध को बनाने की कोशिश कर रहे हैं। ” उन्होंने आगे कहा, “जब हमने वर्चुअल क्लासेस शुरू कीं, तो यह दुनिया भर में पहला स्कूल था जो बच्चों को रोजाना इन कक्षाओं के जरिए शिक्षा प्रदान कर रहा था।”
भारत से संयुक्त अरब अमीरात के वॉलियंटर इन छात्रों को अंग्रेजी, फिजिक्स, मैथ पढ़ाते हैं और उन्हें अपने अनुभव बताते हैं। इस वर्चुअल क्लास में 20 छात्रों को पढ़ाया जाता है, जिसमें युवा लड़के और लड़कियों का अनुपात 1:1 है।
भारतीय ग्रामीण विद्यालय को सहयोग और दान करने के लिए, https://graminschool।org पर जाएं
लेख- प्रत्यक्ष श्रीवास्तव