श्रीनगर, जम्मू और कश्मीर
शमीमा ने कुछ देर पहले लकड़ियों में आग लगाई थी, जो आकाश में काले धुएं का गुबार बनकर फैल रही है। एक बार आग बुझ जाने पर वह बड़ी ही सावधानी से उस ओर झुकी और गर्म अंगारों पर पानी छिड़क दिया। कुछ ही देर में जली हुई लकड़ियां चारकोल में बदल गईं।
कुछ दिनों बाद शमीमा हाथ से बने इन कोयलों को बाजार में जाकर बेच देंगी। ये कोयले कश्मीर में पारंपरिक रूप से बनाई गई कांगड़ी में इस्तेमाल किया जाता है। कांगड़ी हाथ से बनी बेंत की टोकरी के अंदर रखी गई मिट्टी की अंगीठी है।
50 साल की शमीमा ने बताया, “हर साल, जैसे ही पतझड़ आता है, मैं सूखे पत्तों और पेड़ों की टहनियों से कोयला बनाना शुरू कर देती हूं। इसे बेचकर मुझे जो थोड़ा-बहुत पैसा मिलता है, उससे मैं अपने परिवार के लिए सर्दियों के लिए कुछ सामान खरीद लेती हूं।” दक्षिण कश्मीर के कुलगाम में रहने वाली शमीमा अपने पति के साथ मजदूरी करती हैं।
परिवार के पास थोड़ी सी जमीन है, जिस पर चिनार के पेड़ लगे हैं। उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया कि हाथ से बने इस कोयले में थोड़ा वह अपने पास रख लेती हैं ताकि लंबी सर्दियों के महीनों में उसका परिवार अंगीठी से खुद को गर्म रख सके। उसने सूखे कोयले की एक बोरी भरते हुए कहा, “महंगाई के इस समय में हमें जिंदा बने रहने के लिए कुछ न कुछ तरीके खोजने ही पड़ते हैं।”
जम्मू और कश्मीर में इस इलाके में रहने वाले लोग सर्दियों के मौसम में खुद को गर्म रखने के लिए सदियों से लकड़ी से कोयला बनाने का काम करते आ रहे हैं। कश्मीर में लकड़ी के कोयले का इस्तेमाल कांगड़ी यानी पारंपरिक अंगीठी के अंदर किया जाता है। यह कश्मीर की हजारों महिलाओं की कमाई का जरिया भी है।
पतझड़ या हरुद के दौरान यानी सितंबर के अंत और नवंबर के मध्य के बीच पेड़ अपने पत्ते गिरा देते हैं या फिर उनकी छंटाई की जाती है। कश्मीरी महिलाएं गिरी हुई शाखाओं, पत्तियों और टहनियों को इकट्ठा करती हैं, उन्हें लकड़ी का कोयला बनाने के लिए जलाती हैं और इसे बाजार में बेचती हैं जिससे उन्हें कुछ पैसे मिल जाते हैं।
शमीमा ने कहा, “पुन तसेनी (सूखी पत्तियों और टहनियों से बना कोयला) के एक बोरी की कीमत लगभग 200 से 300 रुपये होती है। उम्मीद है कि इस सीजन में मैं 50 बोरी बना लूंगी।”
शमीमा से अलग, पुलवामा के एक गाँव की रूकैया कुछ अलग तरीके से कोयला बनाती है। वह इसके लिए बागों की छंटी टहनियों और बादाम के खोल का इस्तेमाल करती हैं। इन्हें स्थानीय रूप से क्रमशः काथ तसेनी और बादाम तसेनी कहा जाता है। उन्होंने कहा कि बादाम के छिलके से बना चारकोल सबसे महंगा होता है और इसकी एक बोरी 700 रुपये तक बिकती है।
उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, “कोयले की कीमत उसके जलते रहने के समय पर निर्भर करती हैं। मतलब कि कोयला कांगड़ी को कितनी देर तक जलाए रखता है। बादाम के छिलके से बने कोयला इस मिट्टी की अंगीठी में दो दिनों तक भी जल सकता है।”
रूकैया ने बताया कि फसल खराब होने की स्थिति में हाथ से बने कोयले को बेचकर हम घर को चलाने में मदद कर पाते हैं। उन्होंने कहा, “घाटी में फल उत्पादकों को पिछले चार सालों से भारी नुकसान हो रहा है। हम कोयला बेचकर इस मुश्किल घड़ी में अपने पिता और पतियों की मदद करते हैं। यह हमें आर्थिक रूप से मजबूत बनाता है। “
आरा मिलों के बचे हुए लकड़ी के टुकड़ों से भी चारकोल बनाया जा सकता है। हालांकि महिलाएं इसके लिए लकड़ी अपने खेतों, बगीचों से इकट्ठा करना पसंद करती हैं। जिनके पास खुद की जमीन नहीं है, वे खुले इलाकों या सार्वजनिक उद्यानों से टहनियां इकट्ठा करती हैं।
श्रीनगर में शेर ए कश्मीर यूनिवर्सिटी के कृषि विज्ञान के शोधकर्ता आबिद हुसैन ने गाँव कनेक्शन को बताया, “कोयला बेचना किसी भी परिवार के लिए आय का प्राथमिक स्रोत नहीं है, बल्कि आजीविका का एक अन्य अवसर और घरेलू आय बढ़ाने का जरिया है।” उन्होंने कहा कि कोयला बनाने का ये हुनर पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाया जाता रहा है, क्योंकि भीतरी इलाकों में इसकी काफी ज्यादा मांग है और महिलाओं के लिए इसे बेचना आसान है।
मेहनत भरा काम
नवंबर की एक सर्द सुबह है। 42 साल की फातिमा और उनकी छोटी बेटी श्रीनगर के लोकप्रिय मुगल गार्डन ‘शालीमार बाग’ में मौजूद ऊंचे चिनारों से गिरे पत्ते चुन रही हैं। उन्होंने एक लंबी झाडू से इन्हें इक्ट्ठा किया और फिर बोरियों में डालकर, अपने सिर पर उठा कर घर ले गईं।
फातिमा ने गाँव कनेक्शन को बताया, ” पत्तियों को जलाते समय काफी सावधान रहना होता है। अगर हमने इन्हें ज्यादा देर तक जलने दिया तो वे राख हो जाएंगी।”
कोयला बनाना आसान नहीं है। इसमें काफी समय और मेहनत लगती है। महिलाओं को पहले पेड़ की टहनियों को इकट्ठा करना होता है, फिर इन्हें बोरे में भरकर अपने साथ ले जाना होता है। इसके बाद वो इन्हें जलाती हैं। काम यहीं खत्म नहीं होता है. इस बात का भी पूरा ख्याल रखा जाता है कि यह जरूरत से ज्यादा न जल पाएं।
इसके लिए जलते हुए अंगारों पर पानी छिड़का जाता है। अब जो भी बचा है उसे खुली हवा में घंटों तक सुखाया जाता है। फिर उन्हें बड़ी बोरियों में भरकर किसी सुरक्षित स्थान पर संभाल कर रखना होता है ताकि वो आग वाली चीजों से दूर रहे।
फातिमा ने कहा, “यह एक के बाद एक किया जाने वाला काम है। कोयले को बाजार में आने से पहले तैयार करने और स्टोर करने में हमें कई दिन लग जाते हैं” आग से निकलने वाले धुएं और गर्मी से सांस संबंधी परेशानियां और घमौरियां होना आम बात है।
उन्होंने बताया, “कभी-कभी हमारे हाथों और चेहरे पर छाले पड़ जाते हैं। लेकिन हमारी मेहनत बेकार नहीं जाती है। मैं एक सीजन में 25,000 या फिर कभी-कभी इससे भी ज्यादा कमा लेती हूं। इससे हमें अपने परिवार का खर्च उठाने में मदद मिल जाती है।”
पत्तों को जलाने पर रोक
कोयला बनाने वाले इन लोगों के बीच उस समय हड़कंप मच गया था, जब बिगड़ते वायु प्रदूषण को देखते हुए 2017 में जम्मू-कश्मीर सरकार ने पेड़ों से काटे गए पत्तों और लकड़ी को जलाने पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की। सरकार ने कहा था कि यह मानव और पिघल रहे ग्लेशियरों दोनों के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है।
लेकिन आधिकारिक प्रतिबंध के बावजूद लोग आज भी कोयला बनाना जारी रखे हुए हैं।
लकड़ी से कोयला बनाने वाले एक शख्स ने बताया, “यह हमारे परिवारों के लिए आमदनी का एक जरिया है। और हम सालों से ऐसा करते आ रहे हैं। कश्मीर के हर घर में चार से पांच बोरी लकड़ी का कोयला सर्दियों में इस्तेमाल करने के लिए रखा जाता है। हर कोई महंगे बिजली के उपकरण तो नहीं खरीद सकता है।”
उन्होंने कहा कि कांगड़ी कश्मीर की संस्कृति का एक जरूरी हिस्सा है और सर्दियों में लगातार बिजली कटौती ने कोयले को आम कश्मीरी के लिए ठंड से बचने का एक स्रोत बना दिया है।