तब होली कोई दो दिनों की बात न थी…

‘पानी बचाना है’ ये ख़्याल तब कहाँ किसी बुद्धिजीवी के दिमाग में आया था इसलिए होली से कई दिन पहले चबूतरों और छतों पर पानी के ड्रम भरकर रख दिये जाते। क्योंकि तब होली कोई दो दिनों की बात तो थी नहीं।
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हफ्तों पहले स्कूल से वापस लौटते हम बच्चे ना जाने कहाँ-कहाँ से थैलियों में गोबर इकट्ठा करते और शाम होते ही घर की छत पर गुलरियाँ बनाने बैठ जाते। उस समय हमारे बीच इस बात का कॉम्पटीशन होता कि किसने कितनी गुलरियाँ बनाई। व्हाट्सएप था नहीं इसलिए देखने के लिए एक दूसरे की छत पर दौड़ लगाते। इधर ऊपर छत पर हमारी गुलरियाँ बनतीं और उधर नीचे चौके में अम्मा की गुजिया … पर भोग से पहले अम्मा हाथ तक ना लगाने देतीं और भोग के बाद हमारे हाथों में भागते – दौड़ते बस गुजिया ही नजर आतीं । ये बड़ा ताज़्जुब ही था कि तमाम जतनों के बाद भी अपने घर की गुजियों का स्वाद मोहल्ले के बाकी घरों की गुजियों से फीका ही लगता था इसलिए होली से पहले हम बच्चों के बीच गुजियों की अदला – बदली भी चलती रहती क्योंकि तब होली कोई दो दिनों की बात तो थी नहीं…

होली को अभी हफ़्ता बचता पर लाल – हरा  रंग किसी ना किसी पर रोज पड़ता। कभी पापा रंगे आते तो कभी चाचा इसलिए ढुंढाई होती पुराने कपड़ों की … घर में ना जाने कहाँ – कहाँ से  पुराने कपड़े निकलते और हिदायत मिलती कि अब यही पहनकर बाहर निकलो …अब जो होली आने को है तो रंग तो पड़ेगा ही। क्योंकि तब होली कोई 2 दिनों की बात तो थी नहीं।

गाँव कस्बों से शहरों में जा बसे लोग घर लौट आते। यातायात सुविधाएं कम थीं पर इतनी कम कभी नहीं थीं कि त्यौहार पर घर आना मुश्किल होता। चाचा बाहर नौकरी करते थे और मुझे याद है उन्होंने त्यौहार पर घर आने का फैसला कभी लॉन्ग वीकेंड देखकर नहीं किया… वो 2 दिन पहले आते और 2 दिन बाद ही जाते। पर उनके घर आने का इंतज़ार हम हफ्तों भर पहले से करते… क्योंकि तब होली कोई दो दिन की बात तो थी नहीं। 

बाज़ार में तब होली के हैम्पर्स नहीं होते थे और ना ही हर्बल रंगों वाला चक्कर। जहाँ तहां दुकानें और फड़ें रंग-गुलाल से सजी होतीं और किसी एक शाम अखबार की पुड़ियों में बँधे तमाम रंग घर चले आत … ख़्याल इस बात का रखा जाता कि कि पक्का हरा रंग कहीं छुपाकर रखा जाए, क्योंकि ये वही ढीठ रंग था जो महीनों बाद भी नहाते हुए बालों से निकलकर गुसलखाने को रंगीन करता और पानी उड़ेलते-उड़ेलते हाथ थक जाते ….

‘पानी बचाना है’ ये ख़्याल तब कहाँ किसी बुद्धिजीवी के दिमाग में आया था इसलिए होली से कई दिन पहले चबूतरों और छतों पर पानी के ड्रम भरकर रख दिये जाते। क्योंकि तब होली कोई दो दिनों की बात तो थी नहीं।

इधर एक कन्फ्यूजन हमेशा रहा… होली जलेगी कब और खिलेगी कब? तब भी होता था… ख़ैर जलाने से हमारा रत्ती भर वास्ता नहीं था, पर इंतज़ार इसलिए रहता कि जिस रात होली जलती उसकी अगली सुबह कई दिनों से संभालकर रखी पिचकारी मम्मी आखिरकार थमा देतीं। इधर पापा – चाचा होली की आग लेकर आते और उधर हम पिचकारी लेकर चबूतरों पर भागते …  इस बीच घर के आँगन में जलती होली पर गेहूँ की बालें डालते हुए मैंने ना जाने कितनी मन्नते माँगी है …. हालाँकि ये अब तक नहीं पता कि माँगनी भी चाहिए या नहीं पर माँगी ख़ूब हैं… मासूम मन जो ना कराए … उस वक़्त उस आग में मेरी मन्नते जातीं और कढ़ाई में बनता अम्मा का हलवा भी … शायद ये हमारे यहाँ की परंपरा है कि होली के दिन हलवा उसी आंच पर बनता है और हमने उसी आंच पर बाद में आलू भूनकर अपनी नई परम्परा गढ़ी।

इधर ये सब खत्म होता तो घरवालों की आवाजें चबूरते पर होली खेलते हम बच्चों के कानों में धसती , ये वो वक़्त था जब सड़को पर होली खिलने का सिलसिला शुरू होता और इससे पहले कि बौराई भीड़ रंग फेंकती मौहल्ले से गुजरती , किबाड़ बन्द कर हम बच्चों को छत पर भेज दिया जाता … हम वहीं छत पर टंगे हुए घंटों होली खेलते और जब भूख के आगे हार जाते तो बैठ जाते वहीं किसी कोने में रंग छुड़ाने ल… ऐसे में चौके से कढ़ी बनने की ख़ुशबू आती … होली के बाद कढ़ी – चावल बनना भी घर की परंपराओं का हिस्सा है और उस दोपहरी गन्ने चबाना भी… वैसे तो परम्पराओं के नाम पर होली में भाँग का भी जिक्र होता है पर जो लोग रंग खेलकर, नहाने के बाद खाना खाकर होली वाले दिन सोए हैं वो जानते होंगे कि नशा क्या होता है …

नींद का ऐसा नशा बस होली के दिन ही चढ़ता था और शाम होते-होते उतर भी जाता पर जो होली गुजरने के हफ्तों भर बाद भी ना उतरता वो था बालों में भरा पक्का हरा रंग जो हर बार नहाते हुए गुसलखाना रंगीन करता … क्योंकि तब होली दो दिनों की बात थोड़ी ना थी। 

(पूजा व्रत गुप्ता लेखिका हैं और अभी ऑस्ट्रेलिया में रहती हैं)

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