ये जगह वाकई बेहद खूबसूरत है, लेकिन इसका नाम थोड़ा विचित्र है—कन्थालूर। मैंने ग्राम पंचायत के सरपंच पी. टी. मोहनदास से पूछा, “इसका नाम कन्थालूर कैसे पड़ा?”
सरपंच ने मुस्कुराते हुए बताया, “मान्यता है कि एक बार भगवान शिव और माता पार्वती हिमालय से यात्रा करते हुए यहाँ आए। यहाँ की अद्भुत प्राकृतिक सुंदरता देखकर माता पार्वती ने शिवजी से इस स्थान का नाम पूछा। शिवजी ने उत्तर दिया, ‘इसका नाम कांता वल्लूर है,’ जिसका अर्थ होता है ‘पहाड़ों में अनुपम सुंदरता।’ तब से इस जगह का नाम कन्थालूर पड़ गया।”
कन्थालूर का जादू
कन्थालूर, केरल की राजधानी कोच्चि से 243 किलोमीटर दूर स्थित, केरल का सबसे ऊँचा और अंतिम गाँव है। यह मुन्नार से लगभग 40 किलोमीटर और ऊँटी से लगभग 70 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। कन्थालूर, दक्षिण भारत के केरल राज्य के इदुक्की जिले में बसा एक रमणीय पहाड़ी गाँव है। यहाँ की ठंडी जलवायु, हरे-भरे पहाड़, और जैविक खेती पर्यटकों को आकर्षित करती है। पहाड़ियों की ऊँचाई पर तैरते बादलों का दृश्य देखने का अनुभव रोमांच से भर देता है।
गाँव कनेक्शन का सफर
गाँव कनेक्शन, जो कि ग्रामीण भारत को समर्पित एक रूरल कम्युनिकेशन प्लेटफार्म है, अपने विशाल नेटवर्क के माध्यम से सुदूर क्षेत्रों में कार्य करता है। इसी कड़ी में मैं टीम के साथ, दिल्ली से 2700 किलोमीटर दूर इदुक्की जिले के इस गाँव में आया। यह यात्रा गाँव कनेक्शन, कोच्चि की संस्था “डीआईएन”, बेंगलुरु स्थित “द प्रैक्टिस” और लेनोवो इंडिया के एक साझेदारी प्रोजेक्ट का हिस्सा थी।
हमारे अन्य स्टेक होल्डर्स में, आई.एच.आर.डी कालेज, केरला ऑर्गेनिक, वन विभाग, कृषि विभाग, कन्थालूर ग्राम पंचायत, होम स्टे एसोसिएशन, और कुदुम्ब श्री महिला स्वयं सहायता समूह शामिल थे, जो प्रमुख भागीदार के रूप में सहयोग कर रहे थे।
श्री अन्न की कई किस्मों की पुनरुत्पादन यात्रा
यह प्रोजेक्ट, जिसका नाम “वर्क फॉर ह्यूमन काइंड” था, मुख्य रूप से मोटे अनाजों, जिन्हें “श्री अन्न” कहा जाता है, को पुनर्जीवित करने के लिए था। वर्षों पहले इस क्षेत्र में लगभग 24 प्रकार के मिलेट्स उगाए जाते थे, लेकिन धीरे-धीरे इनकी खेती लुप्त हो गई, और वर्तमान में केवल रागी और बाजरा के बारे में नई पीढ़ी को जानकारी है।
लेनोवो इंडिया का यह प्रायोगिक प्रोजेक्ट पारंपरिक कृषि ज्ञान और आधुनिक तकनीक के समन्वय से मिलेट की खेती को फिर से शुरू करने के लिए था, ताकि किसानों की आय और फसलों की उपज में सुधार हो सके। गाँव कनेक्शन की भूमिका स्थानीय किसानों से मिलकर उन्हें मिलेट की खेती के लिए प्रोत्साहित करना, चौपालों का आयोजन कर ग्रामीणों को जागरूक करना, और इस प्रोजेक्ट की पूरी यात्रा को टेक्स्ट, ऑडियो, और वीडियो स्टोरीज के रूप में कई भाषाओं में डॉक्यूमेंट करना था।
यात्रा की शुरुआत
इस प्रोजेक्ट के लिए यह पहली यात्रा थी। लखनऊ से हमारी टीम लगभग 11 बजे दिल्ली एयरपोर्ट पहुँची, जहाँ हमारी मुलाकात स्तुति बंगा से हुई, जो इस प्रोजेक्ट में बतौर समन्वयक भागीदारी कर रही थीं। अब हम सब दिल्ली से चेन्नई एयरपोर्ट की यात्रा में सहयात्री थे।
चेन्नई एयरपोर्ट पहुँचते ही “द प्रैक्टिस” टीम के मुख्य सदस्य मनीष माइकल और उनकी सहयोगी से मुलाकात हुई, जो इस प्रोजेक्ट के लिए बेंगलुरु से यात्रा करके आए थे। एक-दूसरे से परिचय के दौरान पता चला कि मनीष मुख्य रूप से इलाहाबाद से हैं, जिससे एक अलग ही जुड़ाव महसूस हुआ। कुछ देर इलाहाबादी बातों के दौर के बाद अगली यात्रा पर विचार-विमर्श हुआ। एयरपोर्ट के पार्किंग में स्तुति जी द्वारा पहले से व्यवस्थित की गई कार ने हम लोगों को रिसीव किया।
लगभग आठ घंटे का सफर शुरू हुआ, जो हमें कार द्वारा चेन्नई के कन्थालूर की ओर ले जाने वाला था। इस यात्रा में हमारे मन में उत्सुकता थी, नए अनुभवों की खोज और कन्थालूर की खूबसूरती का दीदार करने की।
लेकिन हमें इस बात का अंदाजा नहीं था कि हम मंजिल पर पहुँचने के पहले एक बेहद रोमांचक अनुभव से गुजरने वाले है। हमारे मलयाली ड्राईवर साहब जिनका नाम लॉरेंस था, के साथ टूटी फूटी अंग्रेजी और मलयालम मिक्स भाषा में हमारे साथी संवाद करने का प्रयास कर रहें थे, ताकि रास्ते में किसी मार्केट से जरुरत की कुछ चीजें खरीदी जा सके।
खैर किसी तरह हमारे साथी, लॉरेंस को अपनी बात समझाने में कामयाब रहें। लगभग दस किलोमीटर आगे एक ग्रामीण बाजार में लॉरेंस ने गाड़ी रोक दी और बताया की जो भी लेना हो यहाँ से ले लो क्योंकि लगभग तीन घंटे का सफ़र अन्नामलाई टाइगर रिजर्व का जंगल है, जहाँ कुछ नहीं मिलेगा। हम और दूसरी कार में साथ आ रहें हमारे अन्य सहयोगियों ने पानी और खाने पीने का कुछ सामान खरीदा और हम सब लोग पुनः आगे की यात्रा पर चल पड़ें।
अब आगे की यात्रा में लॉरेंस से संवाद करने का जिम्मा हमारे दो साथियों अभिषेक और सलमान ने ये मानते हुए सम्भाल लिया कि हमारी हिंदी की बातचीत में ड्राईवर साहब को कुछ समझ आने वाला नहीं है और मलयालम समझना उनके बस की बात नहीं है। वहीँ टीम वरिष्ठ साथी मो. आरिफ “शोले “ पिक्चर के नायक “जय” वाली स्टाइल में कानों में हेडफोन लगाकर, ये बताते हुए सो गए की वो “ सो नहीं रहें है”
लगभग एक घंटे तक सड़क के दोनों तरफ सामान्य हरियाली दिखी लेकिन जैसे जैसे हम अन्नामलाई एरिया के नजदीक पहुँच रहें थे नजारे बदलने शुरू हो गए, हर तरफ हरियाली और पहाड़ों का नजारा था जहाँ की पहाड़ियों के बीच एक अलग ही जादू बसा था।
लगभग नौ सौ वर्ग किलोमीटर में फैला ये टाइगर रिजर्व एरिया तमिलनाडु और केरल राज्य के बीच फैला हुआ हैं, वन क्षेत्र में प्रवेश करते समय वहाँ के जंगल, पहाड़ी, घुमावदार पहाड़ी रास्ते और हाथियों के झुण्ड के साथ अन्य जंगली पशु पक्षियों को देख कर ख़ासा उत्साहित थे, यह वह जगह है, जहाँ हाथी और अन्य वन्य जीव स्वतंत्रता से घूमते हैं। जैसे-जैसे हम आगे बढ़े, अन्नामलाई की पहाड़ियों ने हमें अपनी ओर खींचना शुरू किया।
हम चाय के बागानों के बीच से गुजरे, जहाँ की हरी चादरें जैसे बिखरे हुए सपनों की तरह थीं। हमें यह देखकर आनंद आ रहा था कि यह भूमि कितनी समृद्ध है। हालाँकि यूपी के हिसाब से ये प्रचंड गर्मियो का मौसम था, लेकिन अन्नामलाई के जंगल में कई बार हम छिटपुट बारिश के बीच से गुजरे, असल में ये देश का वो स्थान माना जाता है। जहाँ पर मानसून देश में सबसे पहले प्रवेश करता है, अन्नामलाई टाइगर रिजर्व का दृश्य मंत्रमुग्ध कर देने वाला था। हाथियों के झुंड दूर से ही नजर आ रहे थे। उनकी सुंदरता और विशालता हमें एक अद्भुत अनुभव दे रही थी। हम रुके, और उस पल का आनंद लिया, जब हमने उनके जीवन को करीब से देखा। अन्नामलाई टाइगर रिजर्व पार करने में लगभग तीन घंटे का वक्त जो बेहद खूबसूरत था, जिसने मुझे और सहयोगियों को बेहद रोमांचित किया। लखनऊ से दिल्ली तमिलनाडु होते हुए इस लम्बी यात्रा की थकान को दूर करने के लिए काफी था।
दूसरे दिन सुबह, पक्षियों की चहचहाहट के साथ मेरी नींद खुली। कुछ देर बाद तैयार होकर हम लोग डाइनिंग एरिया में आ गए, जहाँ ब्रेकफास्ट के दौरान हमारी मुलाकात प्रोजेक्ट की सहयोगी संस्था के प्रतिनिधि, कोच्ची के निवासी प्रो. जोशी वार्गेस से हुई। हमारे स्थानीय सहयोगी सीनू एस जो की अगले दो तीन दिन तक हमारी जुबान (ट्रांसलेटर) बनने वाले थे उन्हें साथ लेकर आगे की यात्रा की भूमिका निर्धारित की गई।
दिन में किए जाने वाले कार्यों की भूमिका निर्धारित की गई और ग्राउंड विजिट शुरू हो गई। लगभग तीन दिनों तक स्थानीय किसानों, पंचायत के सरपंच, कार्यकारिणी सदस्यों, कुदुम्ब श्री स्वयं सहायता समूह की मुखिया, और पंचायत में आने वाले मज़रों की विजिट के साथ यह प्रक्रिया पूरी हुई। इस दौरान यह पता चला कि केरल में पंचायती राज व्यवस्था बहुत मजबूत और व्यवस्थित है।
लगभग 20,000 की आबादी वाले इस पहाड़ी ग्राम पंचायत में करीब 12 बड़े गाँव हैं। हर गाँव में सामुदायिक केंद्र, बारात घर, और प्राथमिक विद्यालय व्यवस्थित तरीके से कार्य कर रहे हैं। पंचायत का दफ्तर, जैसे हमारे यहाँ उत्तर प्रदेश में ब्लॉक का दफ्तर होता है, उससे अधिक सुविधाओं और उपकरणों से युक्त है। इस दफ्तर के दूसरे तल पर एक बड़ा आधुनिक ऑडिटोरियम भी मौजूद है, जो बड़ी मीटिंग या प्रेजेंटेशन के लिए उपयोग किया जा सकता है।
यात्रा का प्रथम चरण पूरा हो रहा था। इस यात्रा के दौरान, प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर इस स्थान पर निवास के दौरान यहाँ के लोगों से यह सीखने को मिला कि कैसे मनुष्य और प्रकृति के अन्य जीव-जंतु बिना एक-दूसरे को नुकसान पहुँचाए, बिना उनकी शांति भंग किए, एक साथ आसानी से रह सकते हैं।
असल में, यात्रा का प्रथम चरण इस प्रोजेक्ट की शुरुआत थी, और इसके बाद अगले डेढ़ साल तक यह यात्रा प्रोजेक्ट के पूरा होने तक कई चरणों में चलने वाली थी। प्रत्येक चरण में नए अनुभव, स्थानीय समुदायों के साथ संवाद, और प्रोजेक्ट के उद्देश्यों की दिशा में कार्य किया जाना इस यात्रा के दौरान तय हो चुका था जिससे लेनोवो इंडिया यह प्रोजेक्ट अधिक प्रभावी और स्थायी परिणाम हासिल कर सकें।
आखिर चौथे दिन वापसी का समय निर्धारित हो गया, साथी मनीष माइकल और उनके सहयोगी चेन्नई एयरपोर्ट से बेंगलुरु और दिल्ली के लिए सुबह आठ बजे रवाना हुए और हमें लौटते वक्त कोच्चि एयरपोर्ट से वाया हैदराबाद होते हुए लखनऊ तक के लिए एयर टिकट मिला।
सुबह 9 बजे, हम कन्थालूर से कोच्चि की सड़क यात्रा पर निकले। मारायूर के घने चंदन के जंगलों के बीच से होते हुए, डोलमेंस की प्राचीन संरचनाओं और चिन्नार वाइल्ड लाइफ सैंक्चुरी के वन्यजीवों को निहारते हुए, मुन्नार के हरे-भरे चाय बागानों की ओर बढ़े। रास्ते में अटुकड़ वॉटरफॉल की अद्भुत सुंदरता और वागामोन की हरी-भरी पहाड़ियों ने हमें बार-बार रुकने पर मजबूर कर दिया। इडुक्की आर्क डैम से गुजरते हुए, शाम 9 बजे हम आखिरकार कोच्चि एयरपोर्ट पहुंचे। प्राकृतिक सुंदरता और सर्पाकार रास्तों से भरे इस 12 घंटे के सफर ने हमें समय का आभास ही नहीं होने दिया। सामान्यतः 7 से 8 घंटे का यह सफर, मल्टीमीडिया टीम के लिए विजुअल शूट्स के चलते और भी खास हो गया, क्योंकि हमने हर खूबसूरत स्थान पर रुककर उसका आनंद लिया।
इस प्रोजेक्ट पर काम के लिए अगले लगभग डेढ़ साल की तारीखें पहले से ही तय हो चुकी थीं। आगे का कार्य दूरस्थ पहाड़ी गाँवों में आदिवासी समुदाय के साथ होना था। इन आदिवासी अंचलों में मुथुवन, उराली, और मलासर जैसे समुदाय शामिल हैं, जो मलयालम भाषा को बहुत कम समझते हैं और अपनी कबीलाई भाषाओं का ही अधिकतर उपयोग करते हैं।
वर्क फॉर ह्यूमनकाइंड प्रोजेक्ट की शुरुआत हो चुकी थी। प्रारंभिक चरण में किसानों के साथ कई बैठकें आयोजित की गयी, जिनके परिणामस्वरूप लगभग पचास किसान, जिनमें महिला किसान भी शामिल थीं, इस प्रोजेक्ट के तहत मिलेट की विलुप्त होती प्रजातियों की खेती करने के लिए सहमत हुए। इस पहल का उद्देश्य मिलेट की पारंपरिक प्रजातियों को पुनर्जीवित करना और किसानों को इसके लाभों से अवगत कराना था।
लेनोवो एशिया पैसिफिक के फिलैन्थ्रॉपी प्रमुख प्रतिमा हरिते और लेनोवो इंडिया की कम्युनिकेशन प्रमुख श्रेली डी सिल्वा के नेतृत्व में “वर्क फॉर ह्यूमनकाइंड” प्रोजेक्ट की शुरुआत की गई। इस पहल में चिन्हित किसानों को खेती के लिए मार्गदर्शन, बीज, और बुवाई के बाद देखरेख की जानकारी प्रदान करने के लिए अन्य स्थानीय स्टेक होल्डर्स को शामिल किया गया।
स्थानीय आई.एच.आर.डी कॉलेज की प्राचार्य डॉ. एस. सिंधु के मार्गदर्शन में, वालंटियर छात्राओं की एक टीम बनाई गई। लेनोवो ने कॉलेज में एक टेक सेंटर स्थापित किया, जहां वालंटियर्स ने किसानों को ऑनलाइन और ऑफलाइन प्रशिक्षण दिया। इन मिले जुले प्रयासों से किसानों ने सफलतापूर्वक फसल की बुवाई की, और प्रोजेक्ट एक महत्वपूर्ण कदम आगे बढ़ गया।
जब किसानों ने अपनी फसल की कटाई की, तो उन्हें तमिलनाडु के एक स्टार्टअप के फाउंडर मिनी श्रीनिवास द्वारा मिलेट को वैल्यू एडेड तरीके से बनाने के तरीके सिखाए गए। इसके बाद, किसानों के समूह को मिलेट को प्रोसेस करने के लिए मशीनें उपलब्ध कराई गईं और मरायूर में एक प्रोसेसिंग सेंटर स्थापित किया गया।
किसानों के प्रोसेस किए गए उत्पाद को “कन्थालूर ब्रांड” का नाम दिया गया। स्थानीय मार्केट से कनेक्ट करने के लिए लगभग 150 होम स्टे संगठनों के प्रतिनिधियों के साथ मीटिंग की गई, जिसमें उन्होंने अपने स्थानों पर मिलेट उत्पादों के प्रमोशन और बिक्री के लिए सहमति दी। इस प्रोजेक्ट में लेनोवो इंडिया के कई वालंटियर्स और स्थानीय पंचायत के प्रेसिडेंट ने भी भागीदारी की, जिससे किसानों की संख्या कई गुना बढ़ गई और प्रोजेक्ट एक अविस्मरणीय अनुभव बन गया।
15 दिसंबर, 2023 को हमारी अंतिम यात्रा थी। इस दिन हम “गाँव कनेक्शन” के माध्यम से “द प्रैक्टिस” और लेनोवो इंडिया के साथ एक परिवर्तनकारी प्रोजेक्ट का हिस्सा बने। यह प्रोजेक्ट स्थानीय किसानों के जीवन में आर्थिक स्थिरता और सामाजिक बदलाव लाने का एक अद्भुत प्रयास था।
लॉन्चिंग के दिन हमने देखा कि आदिवासी महिलाएँ और किसान अपने हाथों में “कन्थालूर ब्रांड” के पैकेट लिए खड़े थे। उनके चेहरे पर आत्मनिर्भरता और गर्व की चमक थी। यह दृश्य हमारे दिलों को छू गया। उनकी मेहनत का फल अब साफ-साफ दिख रहा था।
हालाँकि, आदिवासी भाषा को समझना हमारे लिए आसान नहीं था, लेकिन उनकी आँखों में जो संतोष था, वह हमारे दिल की गहराइयों तक पहुँचा। यह संतोष न केवल उनके लिए, बल्कि इस प्रोजेक्ट से जुड़े सभी सहयोगियों के लिए खुशी और आत्मसंतोष की एक बड़ी वजह बना।
यह प्रोजेक्ट कभी खत्म न होने वाली एक पारिश्रमिक की तरह था। जब हमने देखा कि किसान अपनी मेहनत के फल को अपने हाथों में महसूस कर रहे थे, तो हमें विश्वास हो गया कि हम सही दिशा में बढ़ रहे हैं। यह सिर्फ एक प्रोजेक्ट नहीं था, बल्कि एक यात्रा थी। इसने हमें यह सिखाया कि जब हम मिलकर काम करते हैं, तो जीवन में सच्चा परिवर्तन संभव है।
अनुभव की डायरी का यह पन्ना मेरे लिए एक सच्ची सीख की तरह है, कि कैसे एक छोटे से गाँव की कहानियाँ और उसके लोग बड़े बदलाव ला सकते हैं।
द प्रैक्टिस की सौम्य और व्यवहारकुशल लीडर नंदिता जी, लेनोवो की तरफ से प्रोजेक्ट की लीडर प्रतिमा हरिते और श्रेली डिसिल्वा, लेनोवो टीम, डीआईएन के हमारे हँसमुख प्रोफेसर जोशी, आई.एच.आर.डी की प्राचार्य डॉ. एस. सिन्धु, टेक सेंटर की हेड आई.एच.आर.डी की अध्यापिका राधिका, प्रोजेक्ट की मुख्य समन्वयक वंदना दास, मनीष माइकल, स्तुति बंगा, पंचायत अध्यक्ष पी.टी. मोहनदास, और स्थानीय किसान, होम स्टे के प्रतिनिधि के साथ हम और हमारी टीम इस पूरी कहानी के विभिन्न पात्रों के रूप में कार्यरत थे, जो एक अद्वितीय अनुभव था।
कन्थालूर की यात्रा ने मुझे यह एहसास कराया कि जब हम एकजुट होकर काम करते हैं, तो किसी भी चुनौती को पार किया जा सकता है। इस अनुभव ने मुझे प्रेरित किया और यह विश्वास दिलाया कि टीम वर्क से एक बेहतर भविष्य की ओर बढ़ सकते हैं। अगर आपको कभी केरल जाने का मौका मिले, तो “कन्थालूर ब्रांड” सेंटर ज़रूर विजिट करें। यहाँ के किसान द्वारा बनाए गए मिलेट आपको जरूर पसंद आएंगे।
हमारी ये पूरी होती हुई यात्रा, कन्थालूर के किसानों की एक नयी और लम्बी चलने वाली एक सुखद यात्रा की शरुआत है, जो आदिवासी महिलाओं, किसानो के चेहरे के मुस्कान बनकर उनके समुदाय को हर दिन आर्थिक मजबूती के साथ आगे बढ़ाते रहने वाली है। यह बदलाव की एक ऐसी कहानी है जो निरंतर नयी बदलाव की कहानियों के निर्माण की वजह बनती रहेगी।