पढ़िए बुंदेलखंड की महिलाओं की अनकही कहानियां...
दो रिपोर्टर, एक दुपहिया, एक यात्रा। थोड़ी यायावर, थोड़ी पत्रकार बनकर गाँव कनेक्शन की जिज्ञासा मिश्रा और प्रज्ञा भारती ने बुंदेलखंड में पांच सौ किलोमीटर की यात्रा की और महिलाओं की नज़र से उनकी ज़िन्दगी, मुश्किलों और उम्मीदों को समझा।
Pragya Bharti 3 April 2019 9:43 AM GMT
भाग 4:
शादी करने की सलाह देने से लेकर शादी नहीं कर खुश रहने की प्रेरणा देने तक, अपने इस सफर में हम तमाम उन औरतों से मिले जो हर रोज़ अपने लिए, बच्चों और परिवार के लिए लड़ रही हैं। उनकी ज़िन्दगी नहीं बदलती लेकिन इसे बदलने के लिए वो हर दिन छोटी-छोटी कोशिशें जरूर कर रही हैं।
चित्रकूट, सतना, पन्ना (उत्तर प्रदेश/मध्यप्रदेश)।
"ब्याह हो गओ तुम्हाओ मोड़ी?
(तुम्हारी शादी हो गई है बेटी?)
नहीं अम्मा, अबे तो न भओ...
(नहीं अम्मा अभी नहीं हुई है)
ब्याह कल ल्यो, ताड़ जैसन तो गई रई हो।
(शादी कर लो, इतनी बड़ी तो गई हो)
हओ अम्मा पर ब्याह इकलौतो मकसद तो न है ज़िन्दगी को..."
(हां पर ज़िन्दगी का सिर्फ एक मकसद शादी करना तो ही नहीं है अम्मा)
कैमासन गाँव में रहने वाली 18 वर्षीय रोशनी गोंड की नानी विदा लेते हुए मुझे शादी करने की सलाह देती हैं। रोशनी ने दसवीं कक्षा तक पढ़ाई की है, उसने बताया कि दसवीं में उसकी तबीयत खराब हो गई और उसे पढ़ाई छोड़नी पड़ी। इसके बाद उसकी शादी करा दी गई।
कैमासन, पन्ना -
मध्य प्रदेश के पन्ना जिले से लगभग 30 किलोमीटर दूर कैमासन गाँव में हमने बच्चियों की स्कूली शिक्षा पर बात की। इसी के चलते रोशनी से हमारी मुलाकात हुई। जब उससे बात करके मैं निकल रही थी तो उसकी नानी तपाक से बोल पड़ीं, 'ब्याह हो गओ तुम्हाओ मोड़ी?'
'दो दीवाने' प्रोजेक्ट के तहत हम लोग चित्रकूट, उत्तर प्रदेश से बढ़ते हुए मध्य प्रदेश के सतना जिले की ओर बढ़े। सतना से महकोना गाँव होते हुए पन्ना पहुंचे। इस यात्रा के दौरान हमने कुछ महिलाओं से बात कर यह जानने की कोशिश की कि उनकी दिनचर्या क्या है? या क्या करना चाहती हैं?
1. दीप्ति बाई: शादी के बाद भी जारी रखे हैं पढ़ाई और बैंक में नौकरी करने का सपना है
उत्तर प्रदेश राज्य के चित्रकूट कस्बे से लगभग सात किलोमीटर आगे बढ़ने पर हमारी मुलाकात राजौला गाँव में दीप्ति बाई से हुई। लाल शॉल ओढ़े, हिचकिचाकर कुर्सी पर बैठते हुए वो बोलीं कि बीकॉम के दूसरे साल में पढ़ रही हैं। उनकी शादी हो गई है और घर की ज़िम्मेदारी निभाते हुए वो अपनी पढ़ाई जारी रखे हुए हैं। दीप्ती स्नातक (ग्रेजुएशन) करने के बाद बैंक में नौकरी करना चाहती हैं। बारहवीं पास करते ही दीप्ति की शादी कर दी गई। उन्हें लगा कि वो आगे पढ़ नहीं पाएंगी लेकिन पति और ससुराल वालों ने न सिर्फ समर्थन किया बल्कि आगे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित भी किया।
'दो दीवाने' सीरीज़ की पहली खबर- "गांव में तो बिटिया बस बूढ़े बच रह गए, सबरे निकल गए शहर को..."
2. वंदना द्विवेदी: रोज़ तीन किमी दूर स्कूल जाती हैं, आगे जाकर बनना चाहती हैं पुलिस अफसर
यहां से सतना जिले की ओर आगे बढ़ने पर हम छोटा बरुआ गाँव पहुंचे। यहां हमारी मुलाकात हुई बारहवीं में पढ़ने वाली वंदना द्विवेदी से। वंदना शासकीय हाईस्कूल पिन्ड्रा की छात्रा हैं और रोज़ तीन किलोमीटर दूर स्कूल जाती हैं। उनके गाँव में केवल आठवीं कक्षा तक ही स्कूल है इसलिए उन्हें दूसरे गाँव पढ़ाई के लिए जाना पड़ता है।
बरूआ-
वंदना ने बताया, "स्कूल से आगे की पढ़ाई और भी मुश्किल है। कॉलेज जाने के लिए चित्रकूट, मझगवां या सतना जाना पड़ता है। मझगवां उनके गाँव से आठ किमी दूर है, सतना लगभग 60 और चित्रकूट लगभग 25 किमी। यहां बस से जाने के अलावा कोई साधन नहीं है और बस से जाना बहुत मुश्किल है।"
आगे वंदना ने बताया, "बसें बच्चों के लिए रुकती नहीं, फिर अकेले बस में आना-जाना भी खतरे से खाली नहीं होता। बारहवीं के पेपर देने के लिए ही वो अलग से गाड़ी कर के जाती हैं। जिनके माता-पिता गाड़ी का खर्च दे सकते हैं तो ठीक, नहीं तो लड़कियों की पढ़ाई रुकवा दी जाती है।"
वंदना की बड़ी दीदी की शादी हो गई है और उनसे छोटी दो बहनें और एक भाई है। वंदना रोज़ सुबह खाना बनाकर स्कूल जाती है, वापस आकर भी खाना बनाती है। वंदना ने जो हमें खाना खिलाया वो इतना स्वादिष्ट था कि हम उंगलियां चाटते रह गए।
वंदना ने बताया, "गाँव वाले हमारी शादी कराने के लिए घर पर बोलते हैं क्योंकि छोटी बहने भी हैं, पर मैं आगे पढ़ना चाहती हूं।" तमाम मुश्किलों के बावजूद वंदना अपनी पढ़ाई जारी रखे हुए है और पुलिस में भर्ती होना चाहती है।
3. चुनुवादी बागरी: अकेले अपने बेटों की देखभाल करती हैं (छोटा बेटा यश विक्लांग है)
यहां से आगे बढ़ते हुए जब हम मध्य प्रदेश राज्य में सतना जिले के महकोना गाँव पहुंचे तो चुनुवादी नाम की महिला से मुलाकात हुई। चुनुवादी के पति का देहांत हो गया है और वो दो बेटों के साथ अपने रिश्तेदार के घर एक कमरे में रहती हैं।
महकोना-
कमरे का साइज 10x10 फीट का बमुश्किल होगा और एक खाट पड़ी है, उस पर अस्त-व्यस्त बिस्तर और बगल में पड़ी दो प्लास्टिक की कुर्सियों पर कुछ कपड़े बिखरे हैं। हिलती खाट पर डर-डर के मैं बैठने लगी तो चुनुवादी ने बोला, "बैठ जाओ बिटिया, कुछ नहीं होगा। इधर नेक टेम न मिलो तो इसे ठीक न कर पाई। ढीरो पर गओ है।" (बिटिया बैठ जाओ कुछ नहीं होगा, इधर समय नहीं मिला तो खटिया टाइट नहीं करा पाए, इसलिए ढीला हो गया है)
चुनुवादी के एक बेटे यश को कमर के नीचे लकवा मार गया है। यश कोई काम खुद से नहीं कर पाता, न ही चल पाता है। उसकी देख-रेख के लिए हमेशा किसी न किसी को उसके पास रहना पड़ता है। चुनुवादी पढ़ी-लिखी नहीं हैं, न ही उनके पास आय का कोई साधन है। अपने बेटों के लिए वो घर, समाज, प्रशासन सबसे लड़ रही हैं।
सतना से आगे हम पन्ना जिले की ओर बढ़ते समय सभी ने बोला कि रास्ते सुरक्षित नहीं हैं, शाम होते ही जहां होना, वहीं रुक जाना। सूरज ढलने के बाद यहां के रास्तों पर चलना सुरक्षित नहीं। हम रात करीब आठ बजे पन्ना शहर पहुंचे।
'दो दीवाने' सीरीज़ की दूसरी खबर- "हम घर-घर जाकर, घंटे भर टॉयलेट ढूंढते रहे…"
अगले दिन जब हम अपने काम पर निकले तो जो सबसे हैरान करने वाली बात थी वो यह कि जिन रास्तों पर चलने के लिए हमें डराया गया था वहां सुबह-सुबह महिलाएं सिर पर लकड़ी का गट्ठर रखे शहर में घूमतीं नज़र आईं। एक के पीछे एक लाइन में चलतीं इन महिलाओं में बुजुर्ग से लेकर 12-14 साल की लड़कियां शामिल थीं। इन्हीं के साथ और छोटी लड़कियां अपने एक-दो साल के भाई-बहनों को गोद में लिए चल रही थीं।
ये महिलाएं पन्ना जिले के आस-पास के गाँव में रहने वाली थीं। उनसे बात करने पर पता चला कि वो जंगल से लड़कियां बीनकर शहर में बेचती हैं। रोज़ सुबह पांच बजे से वो अपने-अपने गाँव से चलना शुरू करती हैं और दोपहर तक लकड़ियां बेच कर वापस गाँव लौट जाती हैं। घर के काम निपटा कर वो फिर जंगल की ओर निकल जाती हैं, लकड़ियां चुनती हैं, गट्ठर बनाती हैं फिर अगले दिन उन्हें बेचती हैं।
4. केशकली यादव: हाइवे पर दुकान चलाने वालीं महिला
जो दूसरी बात यहां हैरान करने वाली थी, वो यह कि इन्हीं खतरनाक रास्तों पर महिलाएं दुकान चलाती हुई मिलीं। हम पन्ना से लगभग सात-आठ किलोमीटर दूर मांझा गाँव के लिए निकले थे, गाँव के बाहर छोटी सी गुमटी (दुकान) मिली। केशकली यादव बिस्किट, नमकीन, पानी की बोतलें, गुटखा, पान आदि की ये दुकान चलाती हैं।
केशकली ने बताया, "मैं और मेरा बेटा मिल कर दुकान चलाते हैं। नेशनल हाइवे के किनारे गुमटी होने के बाद भी मुझे कभी किसी तरह की परेशानी दुकान चलाने में नहीं आई।"
मांझा-
5. माया यादव: गाँव के बाहर सड़क पर चाय की दुकान चलाने वालीं महिला
यहां से वापस आते हुए हम मांझा गाँव के ही तमसानगर मोहल्ले में रुके। यहां भी सड़क किनारे एक छोटी सी चाय की गुमटी चलातीं माया यादव मिलीं। माया यादव ने बताया, बाहर के लोगों के कारण तो कभी परेशानी नहीं हुई लेकिन गाँव के लोग उन्हें अपनी बेटियों को दुकान पर लाने के लिए मना करते हैं। वो लोगों की बातों की परवाह किए बगैर अपनी बेटियों को पढ़ा रही हैं।
माया यादव से मिल कर एहसास हुआ कि सारा डर हमारे भीतर होता है। अगर हम हिम्मत दिखाएं और ठान लें तो कुछ भी कर सकते हैं। बुंदेलखण्ड के जिन रास्तों को सुरक्षित नहीं माना जाता उन पर हम दो महिला रिपोर्टर हफ्ता भर दोपहिया वाहन से गाँव-गाँव घूमे लेकिन कहीं भी ऐसी कोई घटना नहीं हुई जहां हमें लगा हो कि किसी ने जानबूझ कर हमें परेशान करने की कोशिश की हो बल्कि जो भी लोग मिलें उन्होंने हमारी मदद ही की।
6. रामकली: ज़िन्दादिली की मिसाल हैं। शादी नहीं की, ज़िन्दगी भर अकेले रहीं लेकिन इस बात का कोई मलाल भी नहीं।
अगले दिन हम पन्ना में मौजूद हीरे की खदानों की ओर गए। यहां हमें बीड़ी कॉलोनी में रहने वालीं रामकली मिलीं। रामकली ने हीरे की खदान का एक पट्टा सरकार से ले रखा है और पिछले चार सालों से उसे इस उम्मीद में खोद रही हैं कि किसी दिन उनके हाथ हीरे का कोई टुकड़ा लग जाए। अभी तक उन्हें हीरा तो नहीं मिला, लेकिन वो इस बात से बिल्कुल मयूस नहीं थीं।
बीड़ी कॉलोनी, पन्ना (मध्यप्रदेश)-
दो दीवाने सीरीज़ की तीसरी खबर- "इस सफ़र में हमें पेपर-स्प्रे और चाकू नहीं, पानी की ढेर सारी बोतलों की जरुरत थी"
रामकली की ज़िन्दादिली ने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया। जब रामकली छोटी थीं तो उनके माता-पिता का देहांत हो गया, उसके बाद से वो अकेले रह रही हैं। उन्होंने शादी नहीं की और पूछने पर कि क्या अब शादी करने का विचार है तो किसी युवती की तरह शर्माते हुए कहती हैं-
"नहीं ठीक है। अब ऐसे ही रहेंगे। आप लोग अच्छे से हंस कर बोलीं बस ऐसे ही अपन को जी बहलो रहत है। अपन को कोई मतलब नहीं रहता है। कोई की सुननी नहीं है। अपने मनमौजी हैं।"
शादी करने की सलाह देने से लेकर शादी नहीं कर खुश रहने की प्रेरणा देने तक, अपने इस सफर में हम तमाम उन औरतों से मिले जो हर रोज़ अपने लिए, बच्चों और परिवार के लिए लड़ रही हैं। जो हर दिन इस उम्मीद में जीती हैं कि कल कुछ अच्छा होगा और हर रात इसी उम्मीद के साथ सो जाती हैं। उनकी ज़िन्दगी नहीं बदलती लेकिन इसे बदलने के लिए वो हर दिन छोटी-छोटी कोशिशें कर रही हैं।
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