सेहलामऊ, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)। जब भी कोई बाहर से लखनऊ आता है तो वो यहां से चिकनकारी के कपड़ों की खरीददारी जरूर करता है। लखनऊ की चिकनकारी दुनिया भर में मशहूर है, लेकिन शायद कम लोगों को ही पता है होगा कि इसका सारा काम हाथों से होता है, आप तक पहुंचने तक इसे कई हाथ सुंदर बनाते हैं। आज हम आपको कुछ ऐसे ही कारीगरों से मिला रहे हैं।
बल्ब की हल्की रोशनी में हरे रंग से रंगी दीवारों वाले कमरे में बैठी सावित्री देवी सफेद कपड़े पर कढ़ाई करने में व्यस्त थीं। 50 साल की सावित्री पिछले कई साल से चिकनकारी की कढ़ाई करती आ रही हैं और अब अपनी बेटी को भी यह कारीगरी सिखा रही हैं।
सावित्री देवी उत्तर प्रदेश के लखनऊ जिले के सेहलामऊ काकोरी गाँव की रहने वाली हैं, सावित्री देवी की तरह ही उनके गाँव में दर्जनों महिलाएं चिकनकारी का काम करती हैं। लेकिन सावित्री देवी का काम तो बस इसका एक छोटा सा हिस्सा होता है।
सावित्री देवी के गाँव सेहलामऊ से लगभग 18 किमी दूर पुराने लखनऊ के हुसैनाबाद में है अब्दुल्ला (25 साल) का कारखाना, जहां पर चिकन के कपड़ों पर असली कारीगरी, यानी सजावट की जाती है। चिकनकारी के सफर के बारे में अब्दुल्ला गाँव कनेक्शन से बताते हैं, “पहले तो हम लोग कपड़ा लाते हैं, फिर होती है इस पर छपाई, छपाई भी दो तरह की होती है, एक तो नॉर्मल छपाई जिसमें साधारण काम होता है।”
वो आगे कहते हैं, “दूसरी होती है फैंसी छपाई, जिस पर बहुत महीन काम होता है। छपाई के बाद ये कपड़े कढ़ाई के लिए जाते हैं।”
कढ़ाई का काम ज़्यादातर गाँवों में रहने वाली महिलाएं करती हैं जोकि छपाई के ऊपर सुई और धागों की मदद से कढ़ाई करती हैं। ऐसा ही एक गाँव है लखनऊ का सेहलामऊ, जहां आज से दो साल पहले लगभग हर घर में कढ़ाई का काम होता था लेकिन आज वहां कुछ ही घरों में कढ़ाई का काम होता है जिसकी सबसे बड़ी वजह बीते वर्ष लगने वाला लॉकडाउन था, मेहनत का सही दाम न मिलने के कारण कई महिलाओ ने ये काम छोड़ दिया।
ऐसी ही कई महिलाएं हैं, जिन्होंने कढ़ाई का काम छोड़ दिया है। सावित्री भी उन्हीं में से एक हैं। वो कहती हैं, “लॉकडाउन के बाद से हमने काम बंद कर दिया है हमको आमदनी नहीं होती है इसीलिए हमने काम रोक दिया है और परेशानी बहुत आती है और पैसा मिलता नहीं है , जो काम करवाते है वो भी पैसा नहीं देते है।”
उसी गाँव की रुकसाना कहती हैं, ” ये काम हम पांच साल से कर रहे है, घर में मेरी बेटी, देवरानी भी ये काम करती है , कभी – कभी इस काम से दिकत होती है लेकिन कोई क्या करे रोज़गार नहीं तो आदमी करेगा तो है ही।”
कढाई के बाद कपड़ों को धुलाई के लिए भेजा जाता है जोकि अपने आप में एक मेहनत का काम हैं। चिकन के कपड़े को अच्छे से साफ़ करने के लिए डिटर्जेंट के साथ साथ केमिकल और तेज़ाब का भी इस्तेमाल होता है जिसका शरीर पर गहरा असर पड़ता है।
गोमती नदी के किनारे चिकन के कपड़ों को साफ़ करने वाले मक्खन गांव कनेक्शन को बताते हैं, “मुझे एक जोड़ी कपड़े के बीस से तीस रूपए मिल जाते हैं और इसकी धुलाई केमिकल से होती है। एक दिन में हम लोग करीब 50 से 60 कपड़े धोया करते है।”
फिर शुरू होता है इसे सजाने काम होता है, इसमें तरह-तरह के मोती और मिरर लगाए जाते हैं, जिससे ये कपड़े और खूबसूरत हो जाते हैं। दरअसल सजाने के लिए जिनका इस्तेमाल होता है कारीगर उसे मुकैश, कामदानी, बदला, सेक्विन, बीड कहते हैं। ऐसे ही एक कारीगर ने अपना अनुभव गांव कनेक्शन के साथ साझा किया।
चिकन पर करदानों का काम कर रहे हुसैनाबाद के सैफी ने गांव कनेक्शन को बताया, “बस चल रहा है, गाड़ी जैसे चलनी चाहिए वैसे नहीं चल रही है, क्योंकि महंगाई बढ़ रही है लेकिन दिहाड़ी नहीं बढ़ रही है। गरीब आदमी को सबसे ज्यादा महंगाई तोड़ती है।”
एक जिला एक उत्पाद में भी शामिल है चिकनकारी
एक जिला एक उत्पाद योजना के तहत लखनऊ की चिकनगारी को भी शामिल किया गया है। ओडीओपी के आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार लखनऊ की 4 तहसीलों के ब्लॉक के 961 गाँवों में चिकनकारी का काम होता है।
32 तरीकों से होती थी चिकनकारी
चिकनकारी कई तरह से हुआ करती थी जो धीरे धीरे जमाना गुजरने के साथ लुप्त होती जा रही है। चिकन के होलसेल व्यवसायी ठाकुरगंज लखनऊ के 25 वर्षीय अब्दुल्ला ने गांव कनेक्शन को बताया, “लखनऊ में चिकनकारी 32 तरीके से होती थी, जो पीढ़ी दर पीढ़ी पास न होने की वजह से आधी चिकनकारी खत्म हो गई। अब 16 तरीके की चिकनकारी बची हुई है।”
अब्दुल्लाह बताते हैं, “चिकनकारी का जो काम खत्म हो गया वह बहुत ही फाइन वर्क था, साथ ही बहुत ही मुश्किल भी था। पैसों की तंगी और मुनासिब मेहनताना न मिलने की वजह से पीढ़ी दर पीढ़ी आगे न बढ़ सका और लुप्त हो गया।”
रिपोर्टिंग सहयोग: मोहम्मद अब्दुल्ला सिद्दिकी