महुआ का पकवान: आदिवासी संस्कृति की सौंधी खुशबू और मिठास

महुए की खुशबू से महकते जंगलों में बसंत के साथ एक अनोखा स्वाद जुड़ता है। तेलंगाना के आदिलाबाद जिले की रेणुका बाई और छिन्नू बाई महुआ, तिल और गुड़ से एक खास पकवान बनाती हैं, जो आदिवासी जीवन और परंपरा का प्रतीक है।
Telangana Tribe Food

बसंत का मौसम जब अपने चरम पर होता है और जंगलों में पलाश और सेमल के फूल खिलने लगते हैं, उसी समय हवा में एक और सुगंध तैरने लगती है। यह महुए के फूलों की महक होती है, जो गाँवों और जंगलों के हर कोने में फैल जाती है। महुआ केवल एक फूल नहीं है; यह ग्रामीण भारत के लिए जीवन की एक अहम धारा है। खासकर आदिवासी समुदाय के लिए, जिनकी आजीविका का एक बड़ा हिस्सा महुए के फूलों पर निर्भर होता है।

महुए का मौसम आदिवासी समुदायों के लिए किसी उत्सव से कम नहीं होता। तेलंगाना के आदिलाबाद जिले के उतनूर गाँव में रहने वाली रेणुका बाई और छिन्नू बाई के लिए भी यह मौसम खास होता है। महुए, तिल, और गुड़ से वे एक खास पकवान तैयार करती हैं। यह पकवान उनकी परंपरा, उनके जीवन और उनके स्वाद का प्रतीक है, जो उन्हें अपने पुरखों से मिला है। तेलुगु में महुए को ‘इप्पा ‘ कहा जाता है, और इसके फूलों से बने पकवानों की सुगंध जितनी मन को भाने वाली होती है, उससे भी ज़्यादा यह इन समुदायों के लिए खुशहाली का प्रतीक है।

महुआ केवल एक वनस्पति नहीं है, यह आदिवासी समुदायों के लिए आर्थिक सुरक्षा और पारंपरिक धरोहर का भी आधार है। इन फूलों के जरिए वे न केवल अपनी आजीविका चलाते हैं, बल्कि अपनी सेहत का ख्याल भी रखते हैं। महुआ से बनने वाले उत्पादों में औषधीय गुण होते हैं, जो उनके स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होते हैं।

मुझे याद है जब झारखंड के जमशेदपुर में टाटा स्टील फाउंडेशन के कार्यक्रम ‘संवाद’ में मेरी मुलाकात रेणुका बाई और छिन्नू बाई से हुई थी। वे तेलंगाना के आदिलाबाद जिले के उतनूर गाँव से आई थीं। आदिलाबाद वह क्षेत्र है, जहाँ गोंड, परधान, कोलम, और थोती जैसी जनजातियाँ रहती हैं। इन जनजातियों के लिए जंगल किसी खजाने से कम नहीं हैं। जंगल से उन्हें महुआ मिलता है, जो उनकी परंपरा का अभिन्न हिस्सा है।

महुआ के आर्थिक महत्व का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश की तीन चौथाई आदिवासी आबादी महुआ के फूलों को इकट्ठा करती है। यह लगभग 7.5 मिलियन लोगों के जीवन को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। 2019 में प्रकाशित एक शोध पत्र “महुआ (मधुकैंडिका): आदिवासी अर्थव्यवस्था के लिए एक वरदान” में बताया गया है कि महुआ का संग्रह और व्यापार हर साल 28,600 लोगों को रोजगार प्रदान करता है, और इसकी क्षमता प्रति वर्ष 1,63,000 लोगों को रोजगार देने की है।

महुआ से कई प्रकार के व्यंजन बनते हैं। जब मैंने रेणुका बाई से उनके खास पकवान के बारे में पूछा, तो उनके चेहरे पर एक प्यारी सी मुस्कान खिल उठी। हालांकि, उन्हें हिंदी नहीं आती थी, इसलिए उनके साथी अरुण ने अनुवाद करके बताया कि महुआ, गुड़, और तिल से बने इस पकवान को आटे की छोटी-छोटी लोइयों में भरकर तवे पर तेल के साथ सेंका जाता है। इसे ‘पीठा’ कहा जाता है, और यह स्वाद में उतना ही खास है जितना इसे बनाने की प्रक्रिया है।

वह सितंबर की एक गर्म दोपहर थी, जब रेणुका और छिन्नू बाई अपने हाथों से बड़े धैर्य के साथ छोटे-छोटे पीठा बना रही थीं। उनके आसपास लोगों की भीड़ लगी हुई थी, लेकिन वे अपने काम में पूरी तरह डूबी हुई थीं। जब पीठा बनकर तैयार हुआ, तो उन्होंने सभी को इसे चखने के लिए दिया। लोगों ने उसकी तारीफ की, लेकिन रेणुका और छिन्नू बाई शायद समझ नहीं पाईं कि लोग क्या कह रहे हैं। फिर भी, जब उन्होंने लोगों को पीठा खाते हुए देखा और उनके चेहरे पर संतोष के भाव देखे, तो उन्हें समझ में आ गया था कि उनका पकवान लोगों को बेहद पसंद आया है। उनके चेहरे पर एक गर्व की चमक थी, जैसे उन्होंने अपनी विरासत को किसी और के साथ बाँट लिया हो।

आदिवासियों की अपनी परंपराएं हैं, जो सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही हैं। उनका खानपान प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाता है। बाजरा, रागी, ज्वार जैसे अनाज, जिन्हें आजकल ‘सुपरफूड’ के नाम से बेचा जा रहा है, आदिवासी थालियों का सदियों से हिस्सा रहे हैं। उनकी थालियों में न केवल पोषण का खजाना होता है, बल्कि वह प्रकृति और संस्कृति का मेल भी होता है।

महुआ का यह पकवान भी उसी परंपरा का हिस्सा है, जिसमें स्वाद, सेहत, और संस्कृति का संगम है। रेणुका बाई और छिन्नू बाई जैसे लोग न केवल इस परंपरा को जीवित रख रहे हैं, बल्कि इसे आने वाली पीढ़ियों तक भी पहुंचा रहे हैं।

अगर कभी आपको किसी आदिवासी इलाके में जाने का मौका मिले, तो वहाँ का खाना ज़रूर चखिएगा। क्योंकि वहाँ की हर डिश में आपको उनकी मेहनत, उनके संस्कार, और उनके जीवन का एक हिस्सा मिलेगा। महुआ की मिठास सिर्फ स्वाद में नहीं, बल्कि उस भावना में भी होती है, जो इसे बनाने वालों के दिलों से आती है।

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