कानपुर देहात और लखनऊ (उत्तर प्रदेश)। उषा को अच्छे से याद है कि जब उसने पहली बार मानव मल को अपने हाथों से उठाया था, वह सिर्फ बारह साल की थीं। उसके बाद, दलित वाल्मीकि समुदाय की ये लड़की कई दिनों तक खाना नहीं खा पाई थी। उषा अब 42 साल की हैं लेकिन अभी भी वह हल्दी से बना खाना नहीं खा पाती हैं।
उषा, जो अभी-अभी अपनी बस्ती में शौचालय की सफाई करके घर लौटी थी, ने गाँव कनेक्शन को कहा, “मुझे पीले रंग से नफरत है,” कानपुर देहात जिले के भोगनीपुर गांव में उनका मिट्टी के प्लास्टर वाला दो कमरे का घर है। उसे भी उन्होंने पीले रंग की बजाय नीले रंग से पोता हुआ है।
चारपाई पर बैठते हुए उषा कहती हैं, “मैं पिछले बीस सालों ‘लैटरीन’ उठाने का काम रही थी। उस काम को छोड़े मुझे अभी दो साल हुए हैं। अब मैं गंदे कपड़ों के पैड उठाने, बस्ती के शौचालयों की साफ-सफाई, सीवर और नालियों को खोलने का काम करती हूं।”
उषा की ही तरह, कानपुर देहात के सैंथा गांव की कांति की उम्र भी उस समय महज ग्यारह साल थीं, जब उन्होंने मानव मल उठाना शुरू किया था। वाल्मीकि परिवार में जन्मी कांति 60 साल की हैं और अब शौचालय साफ करने का काम करती हैं।
कांति ने गांव कनेक्शन को बताया, “पांच दशक तक लोगों की ‘लैटरीन’ उठाने के बाद, मैंने इस काम को छोड़ दिया। अब मैं हर हफ्ते लोगों के घरों में शौचालय साफ करने जाती हूं। इसके लिए मुझे हर छह महीने में तीन पसेरी गल्ला (15 किलो गेहूं) मिलता है।”
आधिकारिक तौर पर, मैनुअल स्कैवेंजर्स का रोजगार और शुष्क शौचालयों का निर्माण (निषेध) अधिनियम 1993 के तहत भारत में सूखी लैटरीन और मानव मल को हाथों से साफ करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। अगर कोई भी हाथ से मैला ढोने का काम करता है या शुष्क शौचालय का निर्माण करता है, तो कानून के मुताबिक उसे एक साल के कारावास और 2,000 रुपये का जुर्माना लगाया जाता है।
मैनुअल स्कैवेंजर्स का रोजगार और उनके पुनर्वास अधिनियम, 2013 के तहत उषा और कांति जैसे हाथ से मैला ढोने वाले लोगों के पुनर्वास की व्यवस्था की जाती है और उन्हें भारत सरकार की तरफ से 40,000 रुपये की एकमुश्त नकद सहायता भी मिलती है। लेकिन वाल्मीकि समुदाय के ये सदस्य शिकायत करते हैं कि अभी तक किसी भी राजनीतिक दल ने उनकी जाति से जुड़ी समस्याओं और भेदभाव का समाधान नहीं किया है। वे कहते हैं कि हाथ से मैला ढोने वालों का पुनर्वास बहुत कम है।
उत्तर प्रदेश में हाथ से मैला ढोने वाले
उत्तर प्रदेश में फिलहाल विधानसभा चुनाव चल रहे हैं। उस राज्य में हाथ से मैला उठाने वालों की आबादी देश में सबसे ज्यादा है। सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय (दिसंबर 2021 डेटा) के अनुसार, 17 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कुल 58,098 हाथ से मैला ढोने वालों की पहचान की गई जिसमें से अकेले उत्तर प्रदेश में 32,473 मैनुअल स्केवेंजर्स हैं।
राज्य में अनुसूचित जाति (एससी) की आबादी का एक बड़ा हिस्सा रहता है- 35,148,377- जो 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य की कुल आबादी (166,197,921) का 21.1 प्रतिशत है। दलित वाल्मीकि समुदाय से ताल्लुक रखने वाली उषा और कांति अनुसूचित जाति की श्रेणी में आती हैं। ये अनुसूचित जातियां मुख्य रूप से ग्रामीण हैं क्योंकि इस जाति के 87.7 प्रतिशत लोग गांवों में रहते हैं।
ऑक्सफैम इंडिया द्वारा प्रकाशित 2019 के एक लेख में कहा गया था कि सभी हाथ से मैला ढोने वालों में लगभग 99 प्रतिशत दलित हैं और उनमें से 90-95 प्रतिशत महिलाएं हैं।
अनुसूचित जाति वित्त और विकास निगम, उत्तर प्रदेश सरकार में लेखाकार प्रमोद दिवेदी ने गांव कनेक्शन को बताया, “आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, उत्तर प्रदेश में 32,636 हाथ से मैला उठाने वालों को एकमुश्त नकद सहायता दी गई है। इन लोगों के पुनर्वास उद्देश्यों के लिए लगभग 1,305.4 मिलियन रुपये खर्च किए गए हैं।”
बुंदेलखंड दलित अधिकार मंच के संयोजक कुलदीप कुमार बौद्ध ने गांव कनेक्शन को बताया, “ज्यादातर हाथ से मैला उठाने वाले लोग कर्ज तले दबे हैं। अगर उन्हें पुनर्वास कोष (एकमुश्त 40,000 रुपये) मिलता भी हैं, तो वो साहूकारों से लिए गए उधार को चुकाने में चला जाता हैं।” वह आगे कहते हैं, “इन लोगों का प्रशिक्षण और कौशल विकास केवल कागजों पर है। इस पर फिर से विचार करने की जरूरत है कि हम इस समुदाय को अमानवीय व्यवहार के इस दुष्चक्र से कैसे बाहर निकाल सकते हैं।”
हालांकि, उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ दल के सदस्यों का दावा है कि राज्य सरकार हाथ से मैला उठाने वालों के जीवन में एक महत्वपूर्ण बदलाव लेकर आयी है। लखनऊ के रहने वाले भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता समीर सिंह ने गांव कनेक्शन को बताया, “हमारी सरकार ने सुनिश्चित किया कि हाथ से मैला ढोने पर प्रतिबंध लगा दिया जाए। आपने देखा होगा कि कैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुंभ में दलितों के पैर साफ किए। स्वच्छ भारत के तहत यूपी में बनाए गए शौचालयों की बदौलत अब मैला ढोने का चलन नहीं रहा है।
लेकिन विपक्षी दल कुछ और ही कहते नजर आते हैं। बसपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता एमएच खान ने कहा, “यूपी में मैला ढोने की प्रथा को खत्म नहीं किया गया है। यह चालीस हजार रुपये किसी को नहीं मिले है। दलितों को सम्मान तभी मिला था जब बहन जी (मायावती) मुख्यमंत्री बनीं थीं (2007-2012)।”
हाथ से मैला ढोने वालों का पुनर्वास
भोगनीपुर गांव की उषा की आंखों में आंसू आ गए जब उन्होंने कहा, “जब मैं दुल्हन के रूप में अपने पति के घर आई, तो मुझे साड़ी या सूट नहीं दिया गया। इसके बजाय, मेरी सास ने मुझे (मलमूत्र ले जाने के लिए) एक टोकरी दी। इत्तो बडो गिफ्ट मिलो थो ये लेट्रिन कमान को (मुझे मानव मल साफ करके अपने जीवन यापन के लिए यह तोहफा दिया गया था)।”
उषा ने बताया कि तेजाब से सफाई करने की वजह से उनकी आंखें कमजोर हो गई हैं। 42 साल की उषा ने यह भी कहा कि उन्हें हाथ से मैला उठाने वालों की पुनर्वास योजना के बारे में कोई जानकारी नहीं है और न ही उन्हें सरकार से कोई पैसा मिला है। अब वो हाथ से मैला नहीं ढोती बल्कि शौचालय साफ करती हैं- उनके जीवन में बस एक यही बड़ा बदलाव आया है।
मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में रोजगार का निषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013, में एक मैनुअल स्कैवेंजर को “इस अधिनियम के प्रारंभ में, या उसके बाद किसी व्यक्ति या स्थानीय प्राधिकरण, ठेकेदार या एजेंसी द्वारा हाथों से सफाई, एक अस्वच्छ शौचालय या एक खुले नाली के गड्ढे में मानव मल को ले जाना, निपटाना या अन्यथा किसी भी तरह से साफ करने के लिए नियोजित या नियोजित व्यक्ति के रूप में परिभाषित करता है।”
हाथ से मैला ढोने वालों का तीन तरह से पुनर्वास किया जाता है – उन्हें एकमुश्त नकद सहायता देना, किसी काम का प्रशिक्षण देना और सीमित ऋण सब्सिडी प्रदान करना।
स्वेवेंजर्स की मुक्ति और पुनर्वास के लिए 2007 की स्व-रोजगार योजना के तहत, प्रत्येक हाथ से मैला ढोने वाले, जिसने मैला ढोने का काम छोड़ दिया है, को छह महीने के खर्च के साथ उसकी मदद करने के लिए 40,000 रुपये की राशि देने का वादा किया गया था। मैला ढोने वालों को तब पुनर्वासित माना जाता है जब किसी कौशल में प्रशिक्षित होने के बाद उन्हें काम मिल जाता है। ऐसे व्यक्तियों को 3,000 रुपये प्रति माह के वजीफे के साथ दो साल के लिए कौशल विकास प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। उन्हें 10 लाख रुपये तक के आसान लोन भी दिया जाता है।
हालांकि, कार्यकर्ताओं और शोधकर्ताओं का कहना है कि जमीनी स्तर पर बहुत कम काम हुआ है।
वाटरएड इंडिया के नीति प्रमुख वी.आर. रमन ने गांव कनेक्शन को बताया, “जब हाथ से मैला ढोने वालों ने यह काम छोड़ दिया, तो उनमें से अधिकांश को न तो पुनर्वास का पैसा मिला, न प्रशिक्षण और न ही लोन।” दिल्ली में रहने वाले रमन कहते हैं, “सरकारों पर यह दावा करने का दबाव रहा है कि उनके क्षेत्रों में हाथ से मैला नहीं ढोया जाता है। एक बार अगर वे दावा कर देते हैं कि राज्य में अब कोई हाथ से मैला ढोने वाला नहीं हैं, तो वे पुनर्वास निधि का उपयोग नहीं कर पाएंगे।”
उनके अनुसार, सरकारों को यह स्वीकार करने की जरूरत है कि अभी भी बड़ी संख्या में दलित परिवार हाथ से मैला ढोने में शामिल हैं, जिन्हें एकमुश्त नकद सहायता, कौशल विकास की दरकार है। ताकि वे नए सिरे से शुरुआत कर सकें।
सरकार से नहीं मिली आर्थिक सहायता
भोगनीपुर गांव की उषा ने जोर देकर कहा, “मुझे सरकार से कोई पैसा नहीं मिला है। जिन घरों में मैं शौचालय साफ करती हूं, वहां से मुझे सिर्फ पच्चीस रुपये महीना मिलता है। कभी-कभी वे रोटी और पुड़िया (तंबाकू) दूर से हमारे पास फेंककर चले जाते हैं।”
कानपुर देहात के सेंथा गांव की चंदा ने गांव कनेक्शन को बताया, “मैं तब भी गरीब थी और आज भी गरीब हूं।” चंदा एक सामुदायिक शौचालय में सफाईकर्मी के रूप में काम करती हैं। जिसके लिए उन्हें हर महीने 6,000 रुपये मिलते हैं। लेकिन वह कहती हैं कि शौचालय की सफाई के छह महीने के काम के लिए, उन्हें 36,000 रुपये के बजाय केवल 13,000 रुपये मिले हैं।
चार बच्चों की मां चंदा ने कहा, “मेरे पति बैंड बाजा वाले का काम करते हैं और छह महीने में एक बार ही कमाते हैं। पेट के लिए करना पड़ा है ये गंदा काम।”
कांति जिन्हें लोग बलेहरिन चाची कहते हैं, ने गांव कनेक्शन को बताया कि उन्हें सरकार से कोई पुनर्वास राशि नहीं मिली है। उसने कहा, “हमें चालीस हज़ार रुपये के बारे में कुछ नहीं पता।” बीस साल पहले सीवर साफ करते हुए कांति के बेटे की मौत हो गई थी।
उसने शिकायत करते हुए कहा, “सुबह के सात बजे थे, जब वह सीवर की सफाई के लिए निकला था। दो घंटे बाद गांव वालों ने मुझे बताया कि मेरा मिलन सीवर में गिरने से मर गया। मेरे बेटे की मौत के बाद भी मुझे कोई आर्थिक मदद नहीं मिली।”
2 फरवरी, 2021 को लोकसभा में एक सवाल का जवाब देते हुए, सामाजिक न्याय और अधिकारिता राज्य मंत्री रामदास अठावले ने कहा कि 31 दिसंबर, 2020 तक, 19 राज्यों में सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान लगभग 340 सफाई कर्मचारियों की मौत हुई है।
इस तरह की मौतों की सबसे अधिक संख्या – 52 – उत्तर प्रदेश में दर्ज की गई, जबकि तमिलनाडु में 43, दिल्ली में 36, महाराष्ट्र में 34, गुजरात में 31 और कर्नाटक में 24 लोगों की मौत हुई।
मंत्री ने राज्यसभा में केआर सुरेश रेड्डी के एक सवाल के जवाब में कहा कि हाथ से मैला ढोने वालों का पुनर्वास और उनके लिए वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था करना सरकार की ‘उच्च प्राथमिकता’ का क्षेत्र रहा है। उन्होंने कहा कि स्वच्छ भारत मिशन के तहत 2 अक्टूबर 2014 से ग्रामीण क्षेत्रों में 10 करोड़ 88 लाख से ज्यादा सैनिटरी शौचालयों का निर्माण किया गया है। हाथ से मैला ढोने की प्रथा समाप्त हो गई है।
हालांकि, सेक्टर विशेषज्ञ इससे सहमत नहीं हैं। कर्नाटक में हाथ से मैला ढोने में लगे व्यक्तियों के पुनर्वास के लिए काम करने वाली संस्था सफाई कर्मचारी कवालु समिति के साथ काम करने वाले सिद्धार्थ जोशी, ने गांव कनेक्शन को बताया, “उदाहरण के लिए, कर्नाटक में, जिन हाथ से मैला ढोने वालों जिनकी पहचान 2013 में की गई थी, उनका पुनर्वास अभी भी जारी है। उन्होंने अभी भी ये काम करना छोड़ा नहीं है।”
परिभाषा और संख्या का खेल
सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के तहत काम करने वाली संस्था नेशनल सफाई कर्मचारी फाइनेंस एंड डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (NSKFDC) के अगस्त 2019 में किए गए सर्वे के अनुसार, 18 राज्यों के 170 जिलों में सर्वे किया गया था। जिसमें 87,913 लोगों ने खुद को मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में पंजीकृत कराया था। इनमें से केवल 42,303 लोगों को राज्य सरकारों ने हाथ से मैला उठाने वाले के रूप में ‘स्वीकृत’ किया था।
उत्तर प्रदेश में, 47 जिलों के 41,068 लोगों ने हाथ से मैला ढोने वालों के रूप में अपना पंजीकरण कराया। राज्य सरकार ने उनमें से केवल 19,712 को ही स्वीकार किया।
अनुसूचित जाति वित्त एवं विकास निगम के प्रमोद द्विवेदी ने गांव कनेक्शन को बताया, “हमें रोजाना कई आवेदन मिलते हैं, लेकिन जब जिला स्तर पर सर्वे होता है तो हम पाते हैं कि उन्होंने ये काम कभी किया ही नहीं था।”
हाथ से मैला ढोने वाले की पहचान कैसे की जाती है? जिला पंचायत राज अधिकारी, कानपुर देहात की नमिता शरण इस बारे में कहती हैं, “ग्राम स्तर पर हम एक टीम बनाते हैं जिसमें ग्राम प्रधान, सचिव, लेखपाल (ग्राम राजस्व लेखाकार), आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता शामिल होते हैं। वे हाथ से मैला ढोने वालों की पहचान करने के लिए घर-घर जाकर सर्वे करते हैं।”
कानपुर देहात के एक सरकारी दस्तावेज के अनुसार, जिले में हाथ से मैला ढोने वाला कोई नहीं है। और, अब तक, दर्ज आंकड़ों से पता चलता है कि जिले में हाथ से मैला उठाने वाले 19 लोगों को एकमुश्त नकद सहायता प्रदान की गई है।
शरण ने कहा, “2017 में, सरकार ने एक योजना शुरू की जिसके तहत प्रत्येक परिवार को चालीस हजार रुपये दिए जाने थे। लेकिन उस समय हमें अपने जिले में ऐसा कोई परिवार नहीं मिला और इसलिए ऐसी कोई राशि वितरित नहीं की गई। “
कार्यकर्ता बौद्ध कहते हैं,”सरकार यूपी में मैला ढोने वालों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। सर्वे महज एक औपचारिकता है। वीडियो दिखाने के बाद भी, सरकारें उन्हें हाथ से मैला ढोने वाले के रूप में स्वीकार नहीं करती हैं, और इसलिए कोई पुनर्वास नहीं होता है। ”
राज्य सरकार के अधिकारियों का कहना है कि उत्तर प्रदेश में कोई सूखा शौचालय नहीं है और राज्य को 2018 में खुले में शौच मुक्त घोषित किया गया है।
लेकिन राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आंदोलन का दावा है कि राज्य में अभी भी 558,000 सूखे शौचालय हैं। अकेले कानपुर देहात में 2,271 सूखे शौचालय हैं।
हाथ से मैला उठाने वालों की पुनर्वास योजना के लिए बजट में कटौती
केंद्रीय बजट 2022-23 में मैनुअल स्कैवेंजर्स के पुनर्वास के लिए स्वरोजगार योजना के तहत हाथ से मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिए 70 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं। यह पिछले बजट के 100 करोड़ रुपये के आवंटन से 30 प्रतिशत कम है (जिसे संशोधित कर 433.1 मिलियन रुपये कर दिया गया था)। इससे कार्यकर्ताओं में हड़कंप मच गया।
Persons engaged in scavenging have been constantly denied their rights! We don’t need showering of flowers on us but right to dignity throu proper share in the #budget2022 | Allocation for SRMS is constantly reduced in successive budgets, to the tune of 30 crores again this year!
— Bezwada Wilson (@BezwadaWilson) February 2, 2022
जोशी ने कहा, “सरकारें कम गिनती कर रही हैं। वे देश में हाथ से मैला ढोने वालों को नहीं पहचान रही हैं। वो फंड देने से इनकार कर रही हैं। इसलिए ये संख्या उतनी नहीं है जितनी होनी चाहिए थी। “
संयोगी ग्रामीण विकास एवं शोध संस्थान एक गैर-लाभकारी संस्था है जो स्वास्थ्य, महिला सुरक्षा, हाशिए के समुदायों के रोजगार के मुद्दों के लिए काम करती है। इस संस्था के संयोजक बदन सिंह ने गांव कनेक्शन को बताया, “उत्तर प्रदेश में हाथ से मैला ढोने वालों की संख्या सबसे अधिक है।”
आरोप-प्रत्यारोप और नंबरों का खेल तो यूं ही चलता रहेगा। उषा, कांति, चंदा जैसी वाल्मीकि जिन्होंने दशकों तक हाथ से मैला उठाने का काम किया है, अब शौचालय साफ करती हैं, के जीवन में शायद ही कोई बदलाव आए।