शिमला, हिमाचल प्रदेश। जीत राम के पारंपरिक धातु-शिल्प की तमाम चमक-दमक के बावजूद, हिमाचल प्रदेश में शिमला से लगभग 130 किलोमीटर दूर रामपुर में प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय लवी मेले में किसी ने भी उनके स्टाल में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
इसलिए निराश 68 वर्षीय शिल्पकार ने पिछले महीने 14 नवंबर को मेला खत्म होने से पहले ही अपना स्टाल बंद कर दिया और मंडी जिले के सेराज स्थित अपने घर वापस चले गए।
“मैं लगभग 35 साल से लवी मेले में आ रहा हूँ और मैं जो मोहरा बनाता हूं वह खूब बिकता है। लोगों ने इसे खरीदा, अपनी पूजा में इस्तेमाल किया और कई मंदिर समितियों ने भी इन्हें खरीदा। लेकिन, पिछले कुछ साल में लोगों की इसमें रुचि कम हो गई है, ”जीत राम ने गाँव कनेक्शन को बताया।
मोहरा देवताओं के चेहरों को चित्रित करने वाले धातु के मुखौटे हैं, जो आमतौर पर पीतल में ढाले जाते हैं। हिमाचल प्रदेश में घरों और मंदिरों में उनकी पूजा की जाती है। पीतल के मुखौटे की कीमत 30,000 रुपये तक हो सकती है।
जीत राम और उनके जैसे अन्य शिल्पकार ढोल, नगाड़ा, करनाल और नरसिंघा जैसे पारंपरिक संगीत वाद्ययंत्र और थाल भी बनाते हैं जो एक धातु की प्लेट होती है जिस पर क्षेत्र के लोक इतिहास के देवी-देवताओं और आकृतियों की नक्काशी होती है।
उन्होंने अफसोस जताते हुए कहा, “एक समय था जब हम मेले में बाजा के तीन या चार सेट बेचते थे, लेकिन इस साल हमने एक भी नहीं बेचा है।”
“हम कोई दूसरा काम नहीं जानते हैं। और यह कमाई का नियमित ज़रिया नहीं है। क्योंकि कुछ साल दूसरे की तुलना में बेहतर होते हैं। कई बार हम एक भी मोहरा नहीं बेचते हैं, “30 वर्षीय रजत कुमार कहते हैं जो अपने पिता और बड़े भाई के साथ काम करते हैं।
शिल्पकार ने कहा, एक समय था जब कलाकार साल में चार लाख रुपये तक कमाते थे, लेकिन अब उनकी आय लगभग आधी हो गई है और वे बमुश्किल लगभग दो लाख रुपये ही कमा पाते हैं, और कच्चे माल की लागत भी बढ़ गई है।
यह शिल्प कुछ ऐसा है जिसे इन कारीगरों ने पीढ़ियों से सीखा है। वे सोना, चांदी, धातु, कांस्य, पारा, तांबा, लोहा और टिन जैसी धातुओं के साथ काम करते हैं।
“मैंने इसे अपने पिता से सीखा और उन्हें उन्होंने अपने पिता से सीखा था। यह एक ऐसी कला है जिसे हम पीढ़ियों से अपना रहे हैं, “48 वर्षीय रोशन ने गाँव कनेक्शन को बताया।
“पहले, स्थानीय शासक हमारे काम को संरक्षण देते थे। लेकिन अब हालात बदल गए हैं। मैं यह नहीं कहूँगा कि हमारे पास ग्राहक नहीं हैं। हम अपने परिवार का पेट भरने के लिए तो पैसे कमा लेते हैं, लेकिन दूसरी भी ज़रूरतें हैं, जो पूरी नहीं हो पा रहीं हैं।”
उनके पिता, रतन दास, जिन्होंने यह शिल्प तब सीखा था जब वह केवल सात या आठ साल के थे, ने कहा, “मैंने खुद को इस शिल्प के लिए समर्पित कर दिया है। मुझे अपने पिता के शब्द हमेशा याद रहेंगे। उन्होंने मुझसे कहा – मोहरा पूजा के लिण् बनाया गया है, यह पैसा कमाने के लिए नहीं बनाया गया है। हम ऐसा मुनाफे के लिए नहीं बल्कि सदियों पुरानी विरासत की सेवा के लिए करते हैं।”
धातु ढलाई की उत्पत्ति 10वीं शताब्दी में हुई जब राजा साहिल वर्मन ने अपनी राजधानी ब्रह्मपुर (भरमौर) से चंबा स्थानांतरित की। अधिकांश कारीगर अपनी पारिवारिक विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं और इस कला को जीवित रखा जा रहा है, लेकिन युवा पीढ़ी तेजी से इसमें रुचि खो रही है।
शिल्पकार किशोर कुमार ने कहा, “यहाँ तक कि उनके माता-पिता भी नहीं चाहते कि वे इसका पालन करें, क्योंकि ऐसे बहुत कम लोग हैं जो इस कला को प्राप्त करने में रुचि रखते हैं।” वह भाग्यशाली थे कि उन्हें शिमला के रोहड़ू में एक मंदिर के लिए कलाकृति बनाने का अनुबंध मिला।
कला को जारी रखना आसान नहीं है। किशोर कुमार ने बताया कि इसमें बहुत मेहनत लगती है और तैयार कलाकृति बनाने के लिए धैर्य, लागत, बहुत समय और प्रयास की ज़रूरत होती है, जो तब बिक भी सकती है और नहीं भी।
लेकिन, उन्होंने यह भी कहा कि अगर किसी तरह से उनकी कलाकृति को मान्यता दी जाती और अधिकारियों द्वारा स्वीकार किया जाता, तो यह लुप्त नहीं होती, जैसा कि अब होने का खतरा है।
धर्मशाला में रहने वाले हिमाचल प्रदेश की कला और हस्तशिल्प के शोधकर्ता संतोष शर्मा ने कहा कि कारीगरों को विविधता लानी चाहिए। “ज्यादातर कलाकार मोहरा बनाने में ही लगे हुए हैं। सेराज के कलाकारों ने अन्य उत्पादों में विविधता नहीं लाई है, ”उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया।
चंबा के कलाकार विशाल शर्मा ने उनका समर्थन किया। उन्होंने कहा, “कलाकारों को चंबा थाल जैसे अन्य डिजाइन बनाने की दिशा में विविधता लाने की जरूरत है, जिनसे कुछ कमाई हो सके।”
“हमें एक मंच की ज़रूरत है और इसमें सभी कलाकारों को शामिल करने की। इन कलाकृतियों का मार्केटिंग सबसे ज़रूरी है। ऐसी कलाकृति का उपयोग उपहार या शोपीस के रूप में किया जा सकता है। लेकिन इनका उस तरह मार्केटिंग नहीं की जाती है,” उन्होंने कहा।
हाल ही में, केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर, जो हिमाचल के हमीरपुर लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं, ने ओलंपिक पदक विजेता पीवी संधू को चंबा थाल उपहार में दिया। उन्होंने इसे दूसरे मेहमानों को भी गिफ्ट किया।
इससे पहले, 2019 में धर्मशाला में इन्वेस्टर मीट के दौरान विभिन्न देशों से आए मेहमानों को राज्य की धातु कलाकृतियों से सम्मानित किया गया था।
“मेरा भाई एक था जिन्होंने उन कलाकृतियों को बनाया। ये हम सबके लिए गर्व की बात थी. सरकार को हमारा समर्थन करना चाहिए। हम कोई सब्सिडी नहीं बल्कि अपने उत्पादों के लिए बाजार चाहते हैं, ”38 वर्षीय किशन चंद ने कहा।
1974 में राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त प्रकाश चंद के बेटे राजेश आनंद भी प्रसिद्ध शिल्पकार हैं। उनका मोहरा काम जर्मनी और संयुक्त राज्य अमेरिका के संग्रहालयों में जगह पाता है। आनंद ने गाँव कनेक्शन को बताया, “इस कला को बचाने के लिए एक ठोस प्रयास की ज़रूरत है। सरकार को हमारा समर्थन करना चाहिए।”
इस बीच, पद्म पुरस्कार विजेता विजय शर्मा ने कहा कि धातु-शिल्प अपनी चमक खो रहा है। “इसके लिए कोई प्रचार या सही मार्केट नहीं है। सभी कारीगर इतने कुशल नहीं होते कि वे विविधता ला सकें और व्यावसायिक मूल्य वाली चीज़ें बना सकें। सरकार को इस बारे में कुछ करने की ज़रूरत है, “उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया।
सरकार से मदद के लिए कारीगरों की अपील के जवाब में, राज्य सरकार के निदेशक उद्योग राकेश प्रजापति ने कहा कि हथकरघा और हस्तशिल्प विंग के माध्यम से कारीगरों को विपणन सहायता प्रदान की गई थी। उन्होंने वादा किया, ”हम निश्चित रूप से इस क्षेत्र की जरूरतों और मुद्दों पर गौर करेंगे।”