लाखों लोगों को अपने स्नेहिल स्पर्श से मुस्कराहट बांटने वाली माँ, “मदर टेरेसा” को कौन नहीं जानता, और कौन नहीं चाहता !
मनुष्यत्व का प्रतिनिधित्व करने वाली मदर टेरसा ने अपने प्रेम और सेवा भाव के उजाले से पूरे विश्व को आलोकित किया। दीनदुखियों की सेवा को ईश्वर की उपासना समझने वाली इस पवित्र आत्मा ने अपना पूरा जीवन सेवा को समर्पित किया। मदर टेरेसा सच्चे अर्थों में माँ थीं।
26 अगस्त 1910 को स्कोप्ज़े, मेसेडोनिया में जन्मी मदर टेरेसा का वास्तविक नाम “एग्नेस गोंक्ज्हा बोयाझियु” था। अपने पिता की आकस्मिक मृत्यु के पश्चात वे अपनी माँ के बेहद करीब आयीं और माँ के धार्मिक संस्कारों की वजह से उनमें सेवा भाव पनपने लगा और वे सांसारिक सुखों से विमुख होने लगीं।
12 वर्ष की उम्र में एक चर्च के रास्ते में उन्हें “ईश्वर के बुलावे” का एहसास हुआ और फिर 18 साल की उम्र में वे आयरलैंड गयीं जहाँ उन्होंने संन्यास लिया और नन बन गयीं। उन्हें नया नाम मिला-“सिस्टर मैरी टेरेसा”। इतनी छोटी उम्र से ही उनका धर्म और समाज कल्याण की ओर बेहद रुझान रहा। उनका कहना था अगर आप सौ लोगों को नहीं खिला सकते तो एक को खिलाइए। किसी भी अच्छे काम को करने के लिए किसी नेतृत्व का इंतज़ार न करें। खुद ही चल पड़ें। यही उन्होंने खुद भी किया। जिस समाज सेवा का कार्य उन्होंने स्वयं अकेले आरम्भ किया उस “मिशनरीज ऑफ चेरिटी” से बाद में 4000 नन्स जुड़ी जो अनाथालयों, एड्स आश्रम शरणार्थियों, अन्धे, विकलांग, वृद्ध, शराबियों, गरीबों और बेघर, और बाढ़ महामारी, अकाल पीड़ितों के देखभाल के लिए कार्य कर रही हैं।
मदर टेरेसा के ह्रदय में करुणा और प्रेम का विशाल सागर था। वे कहती थीं कपड़े, भोजन और घर का अभाव ही गरीबी नहीं है, सबसे बड़ी गरीबी है प्रेम का न होना, उपेक्षित होना, अनचाहा होना, लोगों के द्वारा भुला दिया जाना।
मई 1931 में मदर टेरेसा ने दीक्षा ली और औपचारिक रूप से नन बनीं। फिर वे भारत आईं और कलकत्ता में लोरेटो सिस्टर्स द्वारा चलाये जाने वाले स्कूल में पढ़ाने लगीं जहाँ उन्होंने कलकत्ता की गरीब बच्चियों को पढ़ाने का जिम्मा लिया। 24 मई 1937 को उन्होंने स्वयं को पूर्ण रूप से मानव सेवा के लिए समर्पित किया और संन्यास ग्रहण कर शुद्धता, सादगी और सेवा की शपथ ली। अब उन्हें लोरेटो नन्स की और से “मदर” की उपाधी दी गयी। उन्होंने अपना अध्यापन का कार्य जारी रखा पर 10 सितम्बर 1946 जब वे हिमालय की ओर रेल यात्रा कर रही थीं तब उन्होंने फिर एक बार “ईश्वर की पुकार” सुनी जिसमें उन्हें गरीब बीमार बच्चों और बूढों की सेवा में लग जाने का आदेश मिला था। भला ईश्वर का आदेश कौन टाल सकता है। उन्होंने 6 महीने बाकायदा नर्सिंग की ट्रेनिंग ली और जुट गयीं सेवा में, फिर कभी कदम पीछे नहीं हटाये।
उन्होंने पूरे विश्व को अपना परिवार समझा और पूरी निष्ठा से सेवा की।
अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम् |
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ||
अर्थात वो मेरा है, वो पराया है ऐसा भेद संकीर्ण सोच वाले ही करते हैं, जो महान हैं, उदार हैं उनके लिए पूरा विश्व एक सामान है।
मदर टेरेसा की भीतर जन कल्याण की एक छटपटाहट थी। उन्होंने कलकत्ता में गरीब बच्चों के लिए स्कूल खोला और “निर्मल ह्रदय” नामक एक धर्मशाला का निर्माण किया। यहाँ बेघर बीमार बच्चों और वृद्धों को आश्रय मिला, यहाँ उनका निशुल्क और अच्छी तरह उपचार भी किया जाता। उन्हें प्रेम और सुरक्षा की भावना दी जाती।
मदर लोगों को सेवा के लिए प्रेरित करतीं, वे कहती कि हो सकता है तुम्हारा योगदान समंदर में एक बूँद के बराबर ही हो मगर उसके न होने से समंदर में वो एक बूँद कम तो है न। उनकी लगन और निस्वार्थ सेवा देख बहुत लोग आगे आये और उनसे जुड़ते चले गए। 1950 में उन्होंने “मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी” की स्थापना की और फिर नीली किनारी वाली सफ़ेद साड़ी उनकी पहचान बनी। परन्तु मदर टेरेसा को उनके बाहरी पहनावे से नहीं बल्कि उनके भीतर की सुन्दरता की वजह से पहचाना और पूजा गया। मगर समाजकल्याण की दिशा में उनकी राह आसां नहीं थी उन्होंने अपनी डायरी में लिखा है- कि उनका पहला साल कठिनाइयों से भरपूर था उनके पास कोई आमदनी नही थी। भोजन और आपूर्ति के लिए भिक्षावृत्ति भी की, इन शुरूआती महीनो में मैंने संदेह, अकेलापन, और आरामदेह जीवन में वापस जाने की लालसा को महसूस किया।
मदर टेरेसा ने जल्दी ही एक घर कुष्ठ से पीड़ित लोगों के लिए खोला, और एक आश्रम जिसे “शांति नगर” कहा गया। मिशनरीज ऑफ चेरिटी ने कई कुष्ठ रोग क्लीनिक की स्थापना की, पूरे कलकत्ता में दवा उपलब्ध कराने, पट्टियाँ और खाद्य पदार्थ प्रदान करने के लिए ठोस कदम उठाये। मदर टेरेसा ने उनके लिए घर बनाने के लिए जरूरत महसूस की। उन्होंने 1955 में “निर्मला शिशु भवन” खोला जहाँ बेघर अनाथों के लिए स्थान था, बहुत सारा प्रेम था। धीरे धीरे भारत के सभी स्थानों में और विश्व भर में अनाथालयों, और कोढियों के लिए आश्रम बनाए गए। 1965 में उनके “मिशन ऑफ़ चैरिटी” को पोप जॉन पॉल Vl ने कैथोलिक चर्च की मान्यता प्रदान की।
मदर टेरेसा सेवा को ईश्वर की आराधना समझती थीं। उनका मानना था ईश्वर शान्ति से प्राप्त किया जा सकता है। जैसे ब्रह्माण्ड में ग्रह चक्कर लगाते हैं बिना शोर किये या जैसे वृक्ष फूल और फल देते हैं बेआवाज़, वैसे ही शांत भाव से सेवा ही ईश्वर तक जाने का मार्ग है।
मदर टेरेसा के बारे में लेख लिखना आसां नहीं है, यूँ तो ऊपर से देखने में उनका जीवन सादा सरल और सेवा में लिप्त एक नर्स का जीवन लगता है परन्तु उनके भीतर झाँकने पर ही हम जान सकेंगे कि उन्होंने जीवन कितनी मुश्किलों, परेशानियों, आलोचनाओं और विरोध का सामना किया।
उन्होंने अपने एक पत्र में लिखा भी है कि- “मेरी मुस्कराहट एक छलावा है जिसे मैंने ओढ़ रखा है”…
लोगों ने उन पर धर्म परिवर्तन के इलज़ाम लगाए, उन्हें समाज सुधारक समझा गया जबकि उनका एक मात्र ध्येय सिर्फ़ और सिर्फ ज़रूरतमंदों सेवा था। वे कहती थीं जन्म से मैं अल्बेनियन हूँ, नागरिक भारत की हूँ और कर्म से पूरे विश्व की और ह्रदय मेरा जीसस का है। वे एक सच्ची कैथोलिक नन थीं।
मदर टेरेसा को उनके कार्यों के लिए भारत ही नहीं पूरे विश्व में सराहा गया और सम्मानित किया गया। 1962 में उन्हें रेमोन मैगसेसे अवार्ड दिया गया, 1979 में उन्हें नोबेल प्राइज़ से नवाज़ा गया। 2003 में कैथलिक चर्च द्वारा उनका “बीटिफिकेशन” किया गया अर्थात संत की उपाधि दिए जाने की दिशा में तीसरा कदम। अब वे “धन्य” कहलाईं।
1996 तक 100 देशों में तकरीबन 517 मिशन का संचालन वे कर रहीं थीं।
1983 में वे पोप जॉन पॉल ll से मिलने रोम जा रहीं थीं तब उन्हें पहला हृदयाघात हुआ। फिर दूसरा दिल का दौरा उन्हें 1989 में पड़ा जिसके बाद उन्हें पेसमेकर लगाया गया। इसके बाद उनका स्वास्थ निरंतर गिरता गया। 13 मार्च 1997 को उन्होंने मिशन ऑफ़ चेरिटी के प्रमुख के पद से इस्तीफा दिया और 5 सितम्बर 1997 को इस पवित्र आत्मा ने दुनिया को अलविदा कह दिया।
भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री की उपाधी दी और 1980 में उन्हें सर्वोच्च सम्मान “भारतरत्न” से भी नवाज़ा गया। ये सभी उपाधियाँ और सम्मान समाज को उनके योगदान के आगे नगण्य हैं, मदर टेरेसा मानवता और परोपकार के क्षेत्र में 20वीं सदी की सबसे बड़ी मिसाल हैं।
मदर कहती थीं अगर आप प्यार के दो बोल सुनना चाहते हैं तो कम से कम एक बोल आपको बोलना पड़ेगा। जैसे किसी दीपक को जलने के लिए तेल डालना बहुत आवश्यक है। मदर टेरेसा ने लोगों की निस्वार्थ भाव से सेवा की और उनके दुःख बाँटें,उनके आँसू पोंछे, इसलिए वे सर्वप्रिय बनी।
अंत में मैं छायावाद की महान कवियित्री “महादेवी वर्मा जी” के विचार साझा करना चाहूंगी – कि दुःख सारे संसार को एक में बाँध रखने की क्षमता रखता है। हमारे असंख्य सुख हमें चाहे मनुष्यता की पहली सीढ़ी तक भी न पहुंचा सकें, किन्तु हमारा एक बूँद आँसू भी जीवन को अधिक मधुर, अधिक उर्वर बनाए बिना नहीं गिर सकता।