क्या इतना मुश्किल है पूरे देश में पीरियड्स लीव को लागू करना?

असल में समाज में माहवारी के बारे में लंबे समय से चली आ रही गलत धारणाओं को तोड़ने की जरूरत है। इस दिशा में युवा पीढ़ी को जागरूक करना जरूरी है।
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हाल ही में पीरियड्स लीव को लेकर एक बार फिर मांग की गई है। इसके बाद पीरियड को लेकर फिर से बहस छिड़ गई है। कुछ महिला संगठनों की मांग है कि महिलाओं को कार्यस्थल पर पीरियड लीव मिलनी चाहिए। दुनियाभर के कई देशों में महिलाओं को पीरियड लीव मिलती है। भारत में एक कंपनी ने साल 2020 में पीरियड लीव का ऐलान किया था। यह कंपनी हर साल 10 पेड लीव देती है। देश में सिर्फ बिहार, केरल, ओडिशा और सिक्किम में ही पीरियड लीव को लेकर नियम हैं। बिहार पहला राज्य था, जिसने अपनी महिला कर्मचारियों को पीरियड लीव देने की घोषणा की। यह महिला विकास एवं सशक्तिकरण की दिशा में एक सबसे बड़ा कदम माना जा रहा है।

अब बात करते हैं हालातों की। आज 21वीं सदी में प्रवेश करने के बावजूद भारत जैसे विकासशील देश में महिलाएं और बालिकाएं अपने मासिक धर्म के दौरान सामाजिक-सांस्कृतिक रीति-रिवाजों के कारण जीवन के कई पहलुओं से बाहर कर दी जाती हैं। मासिक धर्म एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, जो 11 से 14 वर्ष की आयु के लड़कियों की बीच शुरू होती है और युवावस्था में प्रवेश की ओर संकेत देती है। यह वह समय होता है, जब इन्हें सबसे ज्यादा देखभाल की जरूरत होती है। देश के कुछ हिस्सों में जहां लड़कियों को अशुद्ध माना जाता है, वहीं कुछ हिस्सों जैसे दक्षिण एवं उत्तर-पूर्वी राज्यों में पहले पीरियड पर उत्सव मनाया जाता है। इसका अभिप्राय है कि लड़की अब अपनी यौवनावस्था में प्रवेश कर चुकी है।

     कर्नाटक में इस पीरियड रिचुअल को ऋतु शुद्धि या ऋतु संस्कार कहा जाता है। असम में इसे तुलोनी बिया त्योहार बोलते हैं। तुलोनी बिया में लड़की को सात दिन अलग जगह रखा जाता है और सात दिन बाद केले के पौधे से लड़की की शादी की जाती है। ओडिशा में पीरियड्स के दौरान होने वाले समारोह को रजस्वला कहा जाता है। ओडिशा निवासियों का मानना है कि तीन दिन धरती मां मासिक धर्म के चक्र से निकलती है। चौथे दिन लड़की को नहलाकर नए कपड़े और मिठाई दी जाती है। आंध्र प्रदेश में मासिक धर्म के त्योहार को पेड़ मनिषी पंडगा कहा है। माना जाता है कि ज्यादातर महिलाएं पांच दिन के मासिक धर्म से गुजरती हैं। इसी कारण यह त्योहार पीरियड्स के पहले और पांचवें दिन सेलिब्रेट किया जाता है। इस प्रथा में मंगल स्नान में लड़की की माँ शामिल न होकर नहलाने के लिए अन्य पांच महिलाएं जुड़ती हैं। इन महिलाओं को जिस कमरे में बुलाया जाता है, वहां से लड़की के बाहर निकलने की मनाही होती है। लड़की के खाने से लेकर हर चीज अलग होती है। आखिरी दिन में लड़की को चंदन का लेप लगा कर साड़ी एवं उपहार दिए जाते हैं।

     कुल मिलाकर एक शब्द में कहें तो इसे ऋतु कला संस्कार या ऋतु शुद्धि समारोह के नाम से जानते हैं। कुछ राज्यों में इसे अलग नाम से बुलाते हैं। यह हर लड़की के जीवन में होता है, लेकिन हर युवा लड़की के साथ देश के अधिकांश भागों में भेदभाव भी व्यापक स्तर पर है। उन्हें अक्सर सामाजिक और धार्मिक आयोजनों के दायरों से बाहर रखा जाता है। फोटोग्राफर नीरज गेरा ने मासिक धर्म से जुड़ी कलंक भावना को दूर करने के बारे में बताया है कि देश के कुछ राज्यों में महिलाओं और लड़कियों में होने वाले मासिक धर्म को कई प्रकार से वर्णित किया गया है। आंध्र प्रदेश के एक गाँव में महिलाओं को पीरियड्स के दिनों में घरों में रहने की अनुमति नहीं दी जाती है। आंध्र प्रदेश के गंताहल्ला गोही गाँव में यह प्रथा आज भी जारी है।

     इस गाँव में ओस्लोल्ला और काटु‌गोल्ला दो समुदाय हैं, जिनमें काटुगोल्ला महिलाओं को अलग-थलग रखने की प्रथा को मानता है। यहां तक कि इस गाँव में स्कूल जाने वाली लड़कियां भी इस नियम से अछूती नहीं हैं और उन्हें गांव में ताड़ के पत्तों से बनी झोपड़ी में रहने और खाने को मजबूर किया जाता है। हालांकि गाँव से स्कूल मात्र तीन किमी दूर है, फिर भी पीरियड्स के दौरान लड़कियों को गाँव के एक छोर से दूसरे छोर तक करीब ग्यारह किमी पैदल चल कर जाना पड़ता है, क्योंकि इस दौरान इन्हें गाँव में घूमने की इजाजत नहीं होती है।

     हर महिला और बालिका प्रति माह मासिक धर्म के नैसर्गिक चक्र से गुजरती है। उनमें से कई के लिए मासिक धर्म आज भी वर्जित विषय है, जो कि संकोच एवं भेदभाव का स्रोत बना हुआ है। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में एक एनजीओ की मदद से एक मौन क्रांति आ रही है, जहां मासिक धर्म के समय लड़कियों और महिलाओं को गाँव से बाहर झोपड़ी में भेजने की क्रूर प्रथा को समाप्त करने की दिशा में प्रयास किए जा रहे हैं। इन प्रयासों को अब सफलता भी मिल रही है। स्थानीय जनजातियों की किशोरियों और समाज और प्रशासन की मानसिकता में बदलाव लाने के लिए यहां पूरी प्रतिबद्धता से कार्य किए जा रहे हैं। अब इनके नतीजे भी भागने आ रहे हैं। असल में किशोरियों और महिलाओं को मासिक धर्म के समय बहुत सी सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक कुप्रथाओं का सामना करना पड़ता है। अब इनके स्थान पर महिला विश्राम केंद्र स्थापित किए जा रहे हैं, जो कि महिलाओं के लिए सुरक्षित और भरोसेमंद स्थान माने जाते हैं।

     इसी तरह देवभूमि कहे जाने वाले हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में पीरियड को लेकर मीडिया रिपोर्ट में बताया गया कि किस तरह ग्रामीण इलाकों में महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान हर मौसम में घर से बाहर निकाल दिया जाता है। प्रथा के अनुसार, मासिक धर्म के दौरान महिलाएं अशुद्ध हो जाती हैं और घर में प्रवेश करने तथा किसी भी सामान को छूने पर वह अशुद्ध हो जाता है। इस दौरान महिलाओं से अछूत की तरह व्यवहार किया जाता है और घर के सभी सदस्य उनसे कतराते हैं। उन्हें घर के बाहर गोशाला या अंधेरी जगहों पर रखा जाता है। उन्हें अलग बर्तनों में खाना-पीना दिया जाता है। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के पड़ोसी देश नेपाल में मासिक धर्म को एक टैबू समझा जाता है। नेपाल में छौपदी प्रथा के तहत लड़की को पीरियड्स के दौरान अलग झोपड़ी में रखा जाता है। इस दौरान उसे किसी भी सामान को छूने की इजाजत नहीं होती है। वहीं फ्रांस, ग्रीक और तुर्की में लड़कियों को पहले पीरियड पर थप्पड़ मारा जाता है। यह एक प्रथा के तौर पर किया जाता है।

     असल में समाज में मौजूद मासिक धर्म को लेकर ऐसी वर्जनाएं लड़‌कियों और महिलाओं की भावनात्मक स्थिति, मानसिकता और जीवन शैली तथा सबसे महत्वपूर्ण उनके स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं। कार्यस्थल पर यह उनके काम पर प्रभाव डालती है। एक रिपोर्ट के अनुसार, मासिक धर्म शुरू होने पर देश की 23 प्रतिशत लड़कियां स्कूल से वंचित हो जाती हैं। मासिक धर्म शुरू होने के बाद पांच में से एक लड़की स्कूल छोड़ देती है यानी कि किशोरियों में शिक्षा पर आज भी बंदिशें हैं। वहीं ग्रामीण इलाकों में 50 फीसदी महिलाएं अभी भी पीरियड्स के दौरान कपड़े का इस्तेमाल करती हैं। मासिक धर्म पर आई यूनेस्को की ताजा रिपोर्ट बताती है कि स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से शौचालय और सैनेटरी नैपकिन की उपलब्धता नहीं है, जो कि होनी चाहिए। इसके साथ ही मासिक धर्म पर उचित शिक्षा व्यवस्था भी होनी चाहिए। इसे आठवीं कक्षा के बाद नहीं, बल्कि जल्द शामिल किया जाना चाहिए।

   कुछ समय पहले ब्रिटेन की एक संस्था ने 14 से 21 साल की करीब एक हजार भारतीय लड़कियों के बीच एक सर्वे कराया था। सर्वे में शामिल लगभग 50 फीसदी लड़कियां माहवारी के बारे में बात करने में झिझक महसूस करती हैं यानी कि उस पर खुलकर बात नहीं कर पाती। असल में समाज में माहवारी के बारे में लंबे समय से चली आ रही गलत धारणाओं को तोड़ने की जरूरत है। इस दिशा में युवा पीढ़ी को जागरूक करना बहुत जरूरी है। हालांकि कुछ मामलों में आज लोगों के विचार बदल भी रहे हैं। वे महिलाओं को शर्म की जंजीरों से मुक्त करके उन्हें सशक्त बनाने में मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। इसके साथ ही कई सामाजिक संस्थाएं एक सांस्कृतिक क्रांति की शुरुआत कर रही हैं, जो माहवारी को ताकत, एकता और सशक्तिकरण के स्रोत में एक दिशा प्रदान करने का काम कर रही है।

(नीलू तिवारी, जयपुर, राजस्थान की स्वतंत्र लेखिका हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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