लखनऊ से सटे अस्ती गाँव के राजू यादव खुश हैं वो ऐसी बाइक की सवारी करने वाले हैं जिसकी तमन्ना उन्हें कई साल से थी।
जी हाँ , ये बाइक भी ऐसी वैसी नहीं है भाई, 155 सीसी की नए ज़माने की है, जो चंद मिनटों में हवा से बात करती है; हालाँकि राजू ये जानते हैं कि इस हाईटेक मोटरसाइकिल को वो चला तो नहीं सकेंगे लेकिन उसपर बैठ कर एक तस्वीर ज़रूर खिंचवा सकते हैं।
अस्ती गाँव के करीब ही देवा मेला में हर साल एक ऐसा स्टूडियो भी बनता है जहाँ राजू जैसे तमाम युवा या बच्चे फोटो खिंचवाने ज़रूर पहुँचते हैं।
देवा मेला में लाउडस्पीकर से आती आवाज़- ‘हमारे फोटो स्टूडियो पर आइए और फोटो खिंचावाइए’ हर किसी का ध्यान अपनी तरफ खींचती है।
मेले के इस स्टूडियो में कदम रखते ही लगता है समय तीन दशक पीछे चला गया है।
सब कुछ पुराने दौर सा…. रंग-बिरंगे फूलों के छाप, झरने जँगलों की सीनरी वाले पर्दे और चमचमाती मोटरसाइकिल। सामने खड़े हो जाइये और कैमरे की एक क्लिक होते ही कैद हो जाती है आपकी तस्वीर, आपके मुताबिक।
उत्तर प्रदेश के सीतापुर ज़िले के हथिया गाजीपुर गाँव में 23 साल के हर्षित ठाकुर साल भर ट्रक पर सामान लादकर मेलों में अपना कशिश डिजिटल स्टूडियो लगाने जाते है।
बाराबंकी के मशहूर देवा मेले में आए हर्षित गाँव कनेक्शन से बताते हैं, “हम जगह-जगह मेलों में अपना स्टूडियो लगाते हैं, इसकी शुरुआत मेरे पिता जी ने 1999 में की थी; उससे पहले वो भी किसी दूसरे के स्टूडियो में काम किया करते थे।”
वो आगे कहते हैं, “कई साल पहले दूसरों के साथ काम करने के बाद 1999 में उन्होंने अपना स्टूडियो खोल लिया, मैं बचपन से ही पापा को देखते आया हूँ, उनके साथ मैं भी घूमता रहता, अब तो मैंने इसे पूरी तरह से संभाल लिया है।
हर्षित के मुताबिक पर्दे वगैरह को छोड़कर हर साल लाइटिंग का सामान नया लेना पड़ता है, क्योंकि वो खराब हो जाते हैं। हर्षित बताते हैं, “साल में एक लाख के करीब नए सामान में खर्च हो जाते हैं और बाकी एक लाख के करीब ट्रांसपोर्ट में खर्च आ जाता है। इसी तरह एक मेले में 50 रुपए तक की बचत हो जाती है।”
इस बार हर्षित ने देवा मेले में 4500 फोटो खींचकर कई परिवारों की यादें संजोई। लेकिन पिछले कुछ साल में इन स्टूडियो में कई बदलाव भी किए गए हैं।
“नई उम्र के बच्चे आते हैं तो कहते हैं कि बैकग्राउंड ब्लर कर दो, हमारे ज़्यादातर तो गाँव के लोग ही आते हैं, उन्हें बहुत पसंद होता है फोटो खिंचवाना।” हर्षित बताते हैं।
यहाँ पर 25 -30 साल के लोग ज़्यादा फोटो खिंचवाते हैं, हर एक फोटो की कीमत अलग होती है। “पिता जी के जमाने में रील का जमाना था, फोटो बनने में कई दिन लग जाते, फिर प्रिंटर का जमाना आया और अब डिजिटल प्रिंटर आ गए, तुरंत फोटो मिल जाती है। ” हर्षित ने आगे कहा।
ये स्टूडियो साल भर घूमता रहता है, लेकिन बरसात के एक दो महीने तक काम रुक जाता है।
अगली बार जब भी किसी मेले या नुमाइश में जाए तो ऐसे किसी स्टूडियो में जाकर फोटो ज़रूर क्लिक करवाइएगा।