साल 2030 के भारत के लिए हमारे नज़रिए का पाँचवा आयाम साफ़ नदियाँ हैं, जिसमें सभी भारतीयों को सुरक्षित पेयजल, जीवन को बनाए रखना, पोषण देना और सूक्ष्म सिंचाई तकनीकों का उपयोग कर सिंचाई में पानी का कुशल उपयोग करना है। पर जिस तेज़ी से नदियाँ प्रदूषित हो रही हैं, वह चिंता का विषय है।
भारत में जल प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण शहरीकरण और उसकी अनियंत्रित दर है। पिछले एक दशक में शहरीकरण की दर तेज़ी से बढ़ी है। शहरीकरण ने देश के जलस्रोतों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है।
इसकी वजह से लंबी अवधि के लिए कई पर्यावरणीय समस्याएँ पैदा हो गई हैं। इनमें जल आपूर्ति की कमी, पानी के प्रदूषित होने और उसके संग्रहण जैसे मुद्दे प्रमुख हैं। इस संबंध में प्रदूषित पानी का निपटान और ट्रीटमेंट एक बहुत बड़ा मुद्दा है। नदियों के पास कई शहर और कस्बे हैं, जिन्होंने इन समस्याओं को बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इन इलाकों में अनियंत्रित शहरीकरण से सीवेज का पानी बह रहा है। शहरी इलाकों में नदियों, तालाबों, नहरों, कुओं और झीलों के पानी का इस्तेमाल घरेलू और औद्योगिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए होता है। हमारे घरेलू इस्तेमाल का 80 प्रतिशत पानी ख़राब हो जाता है।
ज़्यादातर मामलों में पानी का ट्रीटमेंट सही तरह से नहीं होता और इस तरह ज़मीन की सतह पर बहने वाले ताज़ा पानी को प्रदूषित करता है। यह प्रदूषित जल सतह से गुजरकर भूजल में भी ज़हर घोल रहा है। जिस जलस्रोत का पानी जरा भी प्रदूषित होता है, उसके आस-पास रहने वाले प्रत्येक जीवन पर भी ख़राब प्रभाव पड़ता है।
एक निश्चित स्तर पर प्रदूषित पानी फसलों के लिए भी नुकसानदेह साबित होता है। इससे ज़मीन की उर्वरक क्षमता कम होती है। समुद्र का पानी प्रदूषित होता है तो उसका असर समुद्री जीवन पर भी होता है। प्रदूषित पानी की वजह से कॉलरा, टीबी, दस्त, पीलिया जैसी बीमारियाँ हो सकती हैं। हालाँकि लगभग सभी देशों में उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषित जल और और विषैले पदार्थों के निपटान के लिए कानून बने हैं, लेकिन इन कानूनों पर सख़्ती से अमल नहीं होने के कारण, नदियों को प्रदूषित होने से बचाना मुश्किल हो गया है।
डेढ़ दशक पहले संयुक्त राष्ट्र संघ के विश्व जल सम्मेलन में कहा गया कि अगर पूरी पृथ्वी पर उपलब्ध जल को आधा गैलन मान लिया जाए तो उसमें ताज़ा पानी सिर्फ आधा चम्मच भर बचा है। अगर भारत की नदियों के प्रदूषण का यही हाल रहा तो आने वाले समय में या तो ये गायब हो जाएँगी या नालों में परिवर्तित हो जाएंगी। सीपीसीबी की रिपोर्ट के अनुसार, 36 राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों में से 31 में नदियों का प्रवाह प्रदूषित है।
इन राज्यों में उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और दिल्ली भी शामिल हैं। नदियों के रास्ते में बदलाव, ख़त्म होती जैव विविधता, बालू-मिट्टी खनन और कैचमेंट एरिया के ख़त्म होने का भी असर इन नदियों पर पड़ा है। वहीं झील, तालाब और पोखर या तो अतिक्रमण का शिकार हैं या फिर सीवेज, कूड़े का डंपिंग ग्राउंड बन गए हैं। रिपोर्ट के अनुसार, नदियों में छोड़े जाने वाले परिशोधित गंदे पानी की गुणवत्ता काफी ख़राब है। इसमें बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड की मात्रा प्रतिलीटर 30 मिलीग्राम है। यह स्थिति चिंताजनक मानी जाती है।
भारत में हिंदू धर्म को मानने वाले गँगा को पवित्र नदी मानते हैं। ये नदी हिमालय में गंगोत्री से निकलकर वाराणसी से होती हुई बंगाल की खाड़ी में गिरती है। इसके तट पर हजारों शहर और गाँव बसे हैं। गँगा नदी भारत की 47 फीसदी भूमि को सिंचाई और पचास करोड़ लोगों को भोजन प्रदान करती है। आज के दौर में गँगा नदी के सामने जो मुश्किलें हैं, उनमें कारखानों से निकलने वाला ज़हरीला प्रदूषित पानी, घर और कारखानों से निकलने वाला कचरा, प्लास्टिक जो बड़ी मात्रा में नदी में फेंका जा रहा है, खेती के लिए भूतल जल का दोहन, पानी के बहाव को रोकने वाले बांध, जिनका पानी सिंचाई और दूसरे काम के लिए किया जा रहा है, नदी के किनारे शवों को जलाना, गँगा नदी को लगातार प्रदूषित कर रहा है।
गँगा की अविरलता और निर्मलता को बचाने के लिए कई गँगा प्रेमियों ने अपना अमूल्य योगदान दिया है। कई आंदोलन किए हैं। पत्रकार अभय मिश्र ने वेंटिलेटर पर ज़िंदा एक महान नदी की कहानी लिखी है। वह महान नदी हमारी गँगा है। अगर भारत की नदियों की अनदेखी हुई तो 2075 आते-आते यह पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के हम इंसानों के वेंटिलेटर पर आश्रित हो जाने की कहानी होगी।
साल 1986 में गंगा नदी को साफ़ करने का अभियान शुरू किया गया था। उसके बाद राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना, नमामि गंगे योजना, रिवर फ्रंट योजना शुरू की गई। तब से अब तक केंद्र सरकार और राज्य सरकारों द्वारा इसे साफ़ करने के लिए कई प्रयास हो चुके हैं, लेकिन अब तक गँगा अपने असली स्वरूप में नहीं आ सकी है।
गँगा नदी और उसकी सहायक नदियों को फिर से जीवंत करने की मनसा के साथ नमामि गंगे कार्यक्रम एक एकीकृत गँगा विकास परियोजना 2014 में शुरू की गई थी। कार्यक्रम को बाद में 2026 तक के लिए बढ़ा दिया गया। इसका उद्देश्य प्रदूषण को कम करना, गँगा की रक्षा करना और उसे पुनर्स्थापित करना है। कार्यक्रम में अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए कई गतिविधियां शामिल हैं और इसमें आठ राज्य शामिल हैं। एनएमसीजी सात वर्षों से सरकारी प्रयासों का केंद्र बिंदु रहा है।
वर्तमान में गँगा नदी के किनारे स्थित पाँच प्रमुख राज्यों में उत्पन्न अनुमानित सीवेज का लगभग 20 प्रतिशत सीवेज उपचार सुविधाओं द्वारा उपचारित किया जा सकता है। 2024 तक यह प्रतिशत लगभग 33 प्रतिशत और 2026 तक 60 प्रतिशत तक पहुँचने का अनुमान है। नमामि गंगे मिशन एसटीपी और सीवेज नेटवर्क पर बहुत अधिक जोर देता है, जो परियोजना की कुल लागत का लगभग 80 प्रतिशत है। 2014 और 2021 के बीच केवल 811 एमएलडी क्षमता पूरी होने के साथ प्रगति मूल रूप से धीमी रही है।
हालाँकि सबसे हालिया वित्तीय वर्ष 2022-23 में 1,455 एमएलडी क्षमता ख़त्म हो गई, जो प्रयासों में वृद्धि का संकेत है। नमामि गंगे का प्राथमिक लक्ष्य अनुपचारित सीवेज को गँगा नदी से बाहर रखना है। 2026 तक एनएमसीजी एसटीपी स्थापित करना चाहता है, जो लगभग 7000 एमएलडी सीवेज भार को संभाल सके। केंद्र सरकार की अन्य शाखाओं की सहायता से राज्यों को शेष क्षमता का निर्माण स्वयं करना होगा।
रिपोर्ट के अनुसार, गँगा के पानी की गुणवत्ता में काफी सुधार हुआ है और वर्तमान में यह प्राथमिक स्नान के पानी की गुणवत्ता के लिए स्वीकार्य सीमा के भीतर है। डॉल्फिन की बढ़ी हुई संख्या और इंडियन कार्प की उपस्थिति दोनों स्वच्छ पानी के संकेत इस प्रगति की पुष्टि करते हैं।
एनएमसीजी पानी की गुणवत्ता के लिए वायु गुणवत्ता जैसा सूचकाँक बनाने का प्रयास कर रहा है। गँगा नदी के किनारे पानी की गुणवत्ता का एक सुसंगत गेज पेश करके यह सूचकांक संचार और नदी जल गुणवत्ता निगरानी में सुधार करेगा। देखा जाए तो भारत सरकार ने गँगा को अविरल और स्वच्छ बनाने के लिए सख़्ती से काम किया है, बावजूद इसके गँगा अबतक पूरी तरह साफ़ नहीं हुई है।
असल में नदी को धन से ज़्यादा जुनून चाहिए, अनुशासन चाहिए। योजना को पूरा करने के लिए भारत सरकार का प्रयत्न काफी नहीं है। इसके लिए अगर सरकार के सहयोग में आम जनमानस का हाथ जुड़ जाए तो वो दिन दूर नहीं, जब ये योजनाएँ पूर्ण होंगी और हमारी गँगा एक बार फिर से जीवनदायिनी माँ कहलाएगी।
समय यही है कि हम खुद बीड़ा उठा लें कि माँ गँगा को साफ़ रखना है और किसी को इसे गंदा नहीं करने देंगे। भारत 2026 तक अपनी नदियों को साफ़ करना चाहता है। देखना यह है कि क्या सरकार इस निर्धारित अवधि तक अपने मिशन को कामयाब बनाने में सफल हो पाएगी।