पानी की किल्ल्त वाले हिस्सों में नदियों को जोड़ने से बात बिगड़ भी सकती है।
ये हम नहीं कह रहे हैं, ये चेतावनी देश -विदेश के वो वैज्ञानिक और विशेषज्ञ दे रहे हैं जो काफी शोध (रिसर्च) के बाद इस नतीजे पर पहुँचे हैं।
देश में लगातार बढ़ती आबादी के लिए पानी की माँग को पूरा करने के लिए अधिक पानी वाले भूमिगत वाटर बेसिनों से अपेक्षाकृत कम पानी वाले बेसिनों में पानी स्थानांतरित करने के लिए रिवर इंटरलिंकिंग परियोजना पर विचार किया जा रहा है।
लेकिन ताज़ा शोध से पता चला है कि रिवर इंटरलिंकिंग परियोजना भूमि और वायुमंडल के बीच परस्पर क्रिया को बाधित कर सकती है और हवा में नमी की मात्रा और हवा के पैटर्न को भी प्रभावित कर सकती है, जिसके चलते पूरे देश में बरसात के पैटर्न में बदलाव आ सकता है।
यह जानकारी भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, बॉम्बे (आईआईटी-बी), भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम), पुणे और ऑस्ट्रेलिया, सऊदी अरब के विश्वविद्यालयों की तरफ से भारत में रिवर इंटरलिंकिंग परियोजनाओं पर किए गए एक अध्ययन से मिली है।
‘नेचर कम्युनिकेशंस’ में प्रकाशित इस रिपोर्ट की मानें तो इसके चलते भारत के कुछ शुष्क क्षेत्रों में सितंबर के दौरान औसत बारिश में 12प्रतिशत तक की संभावित कमी दर्ज की जा सकती है। यह वो क्षेत्र हैं जो पहले से ही पानी की कमी का सामना कर रहे हैं।
शोधकर्ताओं ने नीति निर्माताओं और हितधारकों से जल सुरक्षा पर जल प्रबंधन की योजना बनाते समय नदी जोड़ने के संभावित परिणामों पर दोबारा विचार करने का आग्रह किया है।
River interlinking projects may change monsoon rainfall pattern
Study by @tejasvichauhan from Civil @iitbombay and @subimal_ghosh @ClimateIITB published in @NatureComms https://t.co/P59lKTNxWG via @htTweets
Other authors: Anjana Devanand @RockSea @karumuriashok
— Climate Studies, IIT Bombay (@ClimateIITB) September 27, 2023
भारत की रिवर इंटरलिंकिंग परियोजनाओं का मकसद आमजन की पानी की बढ़ती माँग को देखते हुए वाटर बेसिनों में अधिकतम पानी बनाए रखना है। यह वो पानी है जो पहले नदी घाटियों से महासागर तक पहुँचता था।
शोधकर्ताओं ने भारत की प्रमुख नदी घाटियों जैसे गंगा, गोदावरी, महानदी, कृष्णा, नर्मदा-तापी और कावेरी पर मिट्टी की नमी, वर्षा, सापेक्ष आर्द्रता और हवा सहित विभिन्न पहलुओं का अध्ययन किया।
आईआईटी-बी के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के शोधकर्ता सुबिमल घोष कहते हैं, “ऐसे जल प्रबंधन निर्णय अगर जल चक्र के पूरे सिस्टम नज़रिये, विशेष रूप से भूमि से वायुमंडल और मानसून तक फीडबैक प्रक्रियाओं पर विचार करते हुए लिए जाते हैं, तो रिवर इंटरलिंकिंग जैसी बड़े पैमाने की हाइड्रोलॉजिकल परियोजनाओं से अधिकतम लाभ मिलेगा।”
इसी क्रम में सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज रिसर्च, आईआईटीएम से रॉक्सी मैथ्यू कोल बताते हैं, “दीर्घकालिक डेटा की एनालिसिस से पता चलता है कि कुछ नदी घाटियों में मानसूनी वर्षा पैट्रन में बदलाव हुआ है। विशेष रूप से मानसूनी वर्षा की कुल मात्रा में कमी और लंबी शुष्क अवधि की ओर रुझान दिखाई दिया है। इसके चलते यह बेहद ज़रूरी है कि किसी भी नदी को जोड़ने की परियोजना से पहले उसका पूरा मूल्यांकन किया जाए।”
वो आगे कहते हैं, “साथ ही, वर्षा में कमी के चलते मानसून के बाद एक पानी देने वाले बेसिन से दूसरे कम पानी वाले बेसिनों में पानी भेजने से उसकी क्षमता भी कम हो सकती है। इसलिए, हमारा सुझाव है कि रिवर इंटरलिंकिंग के फैसले से पहले भूमि-वायुमंडल प्रतिक्रिया के प्रभावों को समझा जाए, फैसले पर फिर से विचार किया जाए क्योंकि आपस में जुड़े नदी बेसिनों में जल संतुलन की काफी आवश्यकता है।”
ऑस्ट्रेलियन रिसर्च काउंसिल सेंटर ऑफ एक्सीलेंस फॉर क्लाइमेट एक्सट्रीम्स, यूनिवर्सिटी ऑफ न्यू साउथ वेल्स, सिडनी की अंजना देवानंद कहती हैं कि दुनिया भर की नदी बेसिनों की तरह, भारतीय नदी बेसिन भी वैश्विक और जलवायु परिवर्तन के कारण गंभीर तनाव में हैं।
“जून से सितंबर तक भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून नदी घाटियों में पानी का प्राथमिक स्रोत है, जो देश की वार्षिक वर्षा का लगभग 80 फ़ीसदी है और सकल घरेलू उत्पाद को नियंत्रित करता है। पिछले कुछ दशकों में, भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून ने औसत वर्षा में गिरावट का अनुभव किया है। बारिश की तीव्रता, घटनाओं और स्थानिक परिवर्तनशीलता में वृद्धि हुई है। इस तरह के बदलते मौसम संबंधी पैटर्न ने हाइड्रोलॉजिकल चरम, बाढ़ और सूखे को बढ़ा दिया है।” अंजना देवानंद ने कहा।