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बदलते गाँव, ग्रामीण भारत की बदलती जीवन शैली; चलिए एक बार बीते हुए कल को आज बनाते हैं

हर किसी की अपने गाँव की बहुत सी यादें होंगी, दोस्तों को साथ पगडंडियों पर दौड़ लगाना, गर्मियों में तालाब और नदी में छलांग लगाना, ऐसी ही अनगिनत यादें होंगी, लेकिन पिछले कुछ दशक में बहुत से बदलाव आए हैं, लेकिन एक बार फिर से अपने गाँव की उन्हीं यादों से कनेक्शन बनाने का वक़्त आ गया है, क्योंकि यही तो है अपना गाँव कनेक्शन
#Rural India

आधुनिकता के दौर में अब गाँव भी शहर बनते चले जा रहे हैं। धीरे-धीरे ही सही लेकिन शहरी सुविधाएं अब गाँवों तक पहुंच चुकी हैं। गाँव में बिजली, पानी, सड़क जैसी मूलभूत सुविधाएं पहुंची हैं, जिससे निश्चित तौर पर ग्रामीण जीवन शैली मैं सुधार देखने को मिल रहा है। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि ग्रामीण क्षेत्रों में अब भौतिकवादी जीवनशैली जीवन का एक अभिन्न अंग बनती जा रही है।

इससे एक तरफ ग्रामीण जीवन जीना तो आसान हुआ है। वहीं दूसरी ओर गाँवों में प्रकृति के साथ जीने की जो जीवनशैली थी वह खत्म हो चुकी है। इसके चलते गाँव भी आज शहरों में पाई जाने वाली अनेक समस्याओं और बुराइयों से अछूते नहीं दिखाई पड़ रहे हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों में प्रकृति के साथ रहना प्राकृतिक रूप से जीवन यापन करना और प्राकृतिक खानपान की पद्धतियां अपनाते हुए अपने भोजन में शामिल करना सदियों से भारतीय ग्रामीण जीवन शैली का एक अभिन्न अंग रही हैं। लेकिन आज यह भारतीय ग्रामीण जीवन शैली की पुरातन विरासत अपना अस्तित्व खो चुकी है।

भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों के खानपान की पद्धतियां, उन्हें बनाने के तरीके और भोजन में शामिल विभिन्न प्रकार के अनाज, वस्तुएँ आदि आज धीरे-धीरे गौड़ हो चुके हैं। एक समय था जब ग्रामीण क्षेत्रों में गाय-भैंस का दूध मिट्टी से तैयार बरोसी में गोबर से बनाए गए उपले डालकर मिट्टी की ही बनी हाड़ी अर्थात हड़िया में गर्म किया जाता था। धीरे-धीरे करीब 3 से 4 घंटे जब इस मिट्टी के बर्तन में दूध गर्म होता था तब दूध के अंदर की वसा मोटी परत के रूप में ऊपर आ जाती थी।

इतना ही नहीं दूध में यदि कोई बैड एलिमेंट होते थे तो उसे मिट्टी सोख लेती थी। मिट्टी के अंदर पाए जाने वाले मिनरल्स जैसे कैल्शियम, फास्फोरस, आयरन आदि दूध में मिश्रित हो जाते थे। इससे दूध की गुणवत्ता मैं सुधार के साथ उसकी पोषण वैल्यू और स्वाद में बहुत इजाफा होता था। लेकिन आज गाँवों में दूध गर्म करने के लिए एलमुनियम-स्टील के बर्तन का प्रयोग किया जा रहा है, जिससे इन धातुओं के तत्व दूध में मिश्रित होकर किडनी और लीवर जैसे मानव अंगों को खराब करने का काम कर रहे हैं।

हाड़ी में दूध गर्म करने के बाद इसे मिट्टी के बर्तनों में ही जामन लगाकर जमाया जाता था तथा सुबह मिट्टी के बर्तनों में ही हाथों से रई द्वारा चला कर इसका मक्खन तथा मट्ठा तैयार किया जाता था। जो कि स्वाद और पोषण में अच्छा होने के साथ-साथ ही सेहत के लिए बहुत फायदेमंद होता था। इतना ही नहीं रई से मट्ठा बिलोने वाली महिला का व्यायाम होने की वजह से उसका स्वास्थ्य भी बढ़िया रहता था।

गाँवों में आटा भी पहले हाथ से चलने वाली चकिया से ही पीस कर तैयार किया जाता था। वह चाहे ज्वार, बाजरा, मक्का, चना, गेहूं, जौ आदि प्रतिदिन की जरूरत का आटा-दाना हाथ की चक्की से पीसकर तैयार कर लिया जाता था। जिसकी कल्पना करना आज मुमकिन नहीं है। भारतीय ग्रामीण जीवन शैली की ये कुछ ऐसी पद्धतियां थी जिससे हमें शुद्ध खानपान तो मिलता ही था। इससे स्वास्थ्य भी बेहतर रहता था। कहा जाता है कि अगर गर्भवती महिलाएं हाथ से चलाने वाली चक्की से आटा पीसती थी या बिलोने से मक्खन निकालती थी तो उन्हें कभी हॉस्पिटल जाकर बच्चा पैदा कराने की जरूरत नहीं पड़ती थी। इन महिलाओं को घर में ही आसानी से बच्चे पैदा हो जाते थे। जबकि आज गावों मैं भी हर बच्चा हॉस्पिटल में और हर तीसरा बच्चा ऑपरेशन से पैदा कराना पड़ रहा है।

आज ग्रामीण क्षेत्रों में भी स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक पिज्जा, बर्गर, चाऊमीन, मोमोज जैसी चीजें चलन में आ चुकी है। एक दौर था जब ग्रामीण क्षेत्रों में स्नेक्स के रूप में चना, मटर, बाजरा, मक्का, ज्वार आदि को गाँव में ही भाड़ पर भुनवाकर बखूबी खाया जाता था। यह स्वास्थ्य और सेहत के लिहाज से बहुत अच्छे होते थे। अधिकांश क्षेत्रों में सुबह के समय नाश्ते के रूप में दही, मट्ठा, गेहूं-चने की मिश्रित रोटी, मक्खन/लोनी, दही, बाजरे की रोटी, आदि का प्रयोग किया जाता था। परंतु अब यह सब ग्रामीण नाश्ते की थाली से गायब हो चुके हैं। एक समय था जब गांव में चाय देखने को नहीं मिलती थी। लेकिन आज वह जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुकी है।

आज खानपान की चीजों में स्वाद एक तरह से गायब हो चुका है। जबकि गाँवों में चूल्हे की रोटी, देगची पर पकी दाल, छप्पर-बिटोरा तथा बुर्जी पर लगी लौकी, तोरई, सेम आदि की सब्जी के स्वाद जायका जिसने लिया है वही जानता है। ओखली में धनकुटे से कुटे हुए चावल हों या फिर गन्ने के रस में बनाई हुई रसखीर का स्वाद या फिर गरम गरम कोल्हू का गुड़, राव और शक्कर का स्वाद अपने आप में सब कुछ अनूठा था।

एक समय था जब गाँवों में सर्दियों में अलाव/अगियाने पर शकरकंद और आलू भूनकर जब खाए जाते थे तो उसका स्वाद अपने आप में अनूठा होता था। लेकिन समय के साथ आज ग्रामीण क्षेत्रों में भी चूल्हे की जगह गैस ने ले ली है। देगची की जगह प्रेशर कुकर आ चुका है। पहले जब देगची में दाल पकाई जाती थी तो शुरू में दाल से निकलने वाले झाग और गंदगी को निकाल के बाहर किया जाता था। परंतु प्रेशर कुकर में यह सब गंदगी और झाग उसी में रह जाते हैं। यही कारण है कि आज जो घुटनों में दर्द की समस्या है, इन सब की वजह से बढ़ रही है।

गर्मियों के मौसम में चने और जौ से तैयार किए गए सत्तू प्राकृतिक रूप से बनाया गया शरीर को ठंडक देने वाला एक उत्तम पेय पदार्थ है। यह सत्तू गर्मियों के मौसम में शरीर को लू से बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लेकिन ग्रामीण खानपान में इस सत्तू का स्थान बाजार में उपलब्ध अनेकों प्रकार की कोल्ड्रिंक्स ने ले लिया है। गांव में यदि आज जाएं तो कोल्ड ड्रिंक तो हर घर पीने को मिल जाएगी परंतु सत्तू और छाछ का मिलना बहुत मुश्किल है। किसी समय में भारतीय ग्रामीण भोजन शैली में मोटे अनाज मिलेट की बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता था। लेकिन आज ग्रामीणों की थाली में इन मोटे अनाजों का उपयोग कम होता चला जा रहा है। गाँव में खेतों की मेड़ों पर प्राकृतिक रूप से उगे झरबेरी के बेर हों या फिर प्राकृतिक रूप से पैदा हुई अनेकों सब्जियां। इन सभी का प्राकृतिक ग्रामीण भोजन शैली में एक अपना अनूठा स्थान रहा है।

ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रामीण लोक परंपराएं, लोक संगीत और गायन का भी अपना एक अलग महत्व रहा है। लेकिन आज यह सभी धीरे-धीरे विलुप्त के कगार पर आ गया है। आज गाँवों में भी मनोरंजन के अनेक अन्य भौतिकवादी साधन अपना स्थान बना चुके हैं। जिसके चलते लोक संगीत, लोक गायन विलुप्ती के कगार पर पहुंच चुके हैं। इतना ही नहीं बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में खेले जाने वाले अनेक स्थानीय खेल भी लगभग विलुप्त हो चुके हैं। यह सब हुआ है गाँवों में भी भौतिक वादी संस्कृति के पैर पसारने के चलते।

यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि कितने बदल गए हैं हमारे गाँव, उनका खानपान, उनका रहन-सहन, उनके जीने की पद्धति। आज लोग सुख-सुविधाओं के इस कदर आदी हो चुके हैं कि यदि घर में टीवी, फ्रिज, एसी, गाड़ी, गीजर, बिजली आदि न हो तो वह जीवन की कल्पना नहीं कर सकते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में भी कमोबेश यही स्थिति देखने को मिल रही है, जो थोड़ा बहुत भी संपन्न है तो उसके यहाँ यह सभी सुख सुविधाएं आपको मिलेंगी।

आज शहरी लोग भी घड़े के पानी की महत्ता समझने लगे हैं। इसके चलते शहरी क्षेत्रों में भी मिट्टी के घड़ों की बिक्री गर्मियां आते बढ़ जाती है।

आज शहरी लोग भी घड़े के पानी की महत्ता समझने लगे हैं। इसके चलते शहरी क्षेत्रों में भी मिट्टी के घड़ों की बिक्री गर्मियां आते बढ़ जाती है।

मिट्टी के घड़े का हम एक छोटा सा उदाहरण देख सकते हैं। पूरी गर्मी मिट्टी के घड़े में पानी भर के उपयोग किया जाए तो मैं समझता हूं कि कोई कारण नहीं है कि आपको फ्रिज के पानी की जरूरत पड़े। इतना ही नहीं मिट्टी के घड़े में पानी शीतल और मृदु होने के साथ ही साथ काफी लंबे समय तक खराब नहीं होता है। यही कारण है कि आज शहरी लोग भी घड़े के पानी की महत्ता समझने लगे हैं। इसके चलते शहरी क्षेत्रों में भी मिट्टी के घड़ों की बिक्री गर्मियां आते बढ़ जाती है।

मोबाइल क्रांति और इंटरनेट सुविधा के चलते गाँवों में भी आज लोगों के हाथों में पूरी दुनिया आ चुकी है। इसके चलते लोगों में ग्रामीण क्षेत्रों की खानपान की पद्धतियों के इतर अन्य चीजें जानने और अपनाने के प्रति रुचि पैदा हुई है। ग्रामीण युवा शहरों की चकाचौंध के प्रति आकर्षित हो रहे हैं। हालांकि मोबाइल में इंटरनेट आने के बाद इसमें खेती-बाड़ी से जुड़ी अनेक अच्छी सामग्रियां उपलब्ध है। बावजूद इसके न तो किसान और नहीं शिक्षित ग्रामीण युवा किसान इसका उपयोग कर रहे हैं। यदि इंटरनेट सुविधा का ग्रामीण युवा किसान भाई बेहतर तरीके से उपयोग करें तो वह इसका काफी लाभ उठा सकते हैं। लेकिन अभी ऐसा देखने में कम ही मिल रहा है।

प्राकृतिक जीवन शैली का कोई विकल्प न पहले था, ना आज है और ना आगे होगा। लेकिन आज भौतिकवादी युग में लोगों पर समय और स्थान की कमी भी एक प्रमुख कारण प्राकृतिक जीवन शैली जीने में बन रही है। जनसंख्या वृद्धि अपने चरम पर है। रोजगार की तलाश में लोगों को गाँव से बाहर जाना पड़ रहा है। इतना ही नहीं गाँवों में भी लोग भौतिकवादी और आधुनिक जीवन शैली की ओर पलायन कर चुके हैं। ऐसे में समाज का एक वर्ग प्राकृतिक कृषि, प्राकृतिक जीवन शैली और प्राकृतिक खानपान की लिए ग्रामीण क्षेत्रों की ओर देख रहा है। जिसके लिए “फार्म टूरिज्म एवं गांव पर्यटन” जैसी अवधारणा लेकर लोग आ रहे हैं। कई क्षेत्रों में फार्म टूरिज्म शुरू भी हो चुका है, जहां जाकर शहरी संपन्न लोग कुछ दिन-रात बिताकर पुरातन ग्रामीण जीवन शैली का आनंद लेने के साथ ही परंपरागत ग्रामीण खानपान का स्वाद भी ले रहे हैं।

(डॉ. सत्येन्द्र पाल सिंह, कृषि विज्ञान केंद्र, लहार (भिण्ड), मध्य प्रदेश के प्रधान वैज्ञानिक और प्रमुख हैं।)

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