क्यों बड़ी बात है इन आदिवासी महिलाओं का साल के जंगलों से सुरक्षित लौट आना

पश्चिम बंगाल के बांकुरा जिले में सैकड़ों आदिवासी महिलाएँ घने जंगलों से साल के पत्ते और जलाऊ लकड़ी इकट्ठा करने के लिए ख़तरनाक रास्तों से होकर गुजरती हैं। उन्हें जंगली जानवरों का सामना भी करना पड़ता है।
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बांकुरा, पश्चिम बंगाल। बेरंग सूती साड़ियाँ पहने और सिर पर गमछे लपेटे सुकुमोनी हांसदा, मेथरी मुर्मू, सरबोनी टुडू, बासोंती हांसदा और रामोनी हांसदा हर सुबह सूरज उगने से पहले अपने घर से निकल जाती हैं।

बाहर अभी भी अंधेरा है। लेकिन ये आदिवासी महिलाएँ रतनपुर और बारोकुरपा के अपने गाँवों से 10 किलोमीटर पैदल चलकर बांकुरा जिले के असना जंगल में पहुँच चुकी है। ये जंगल राज्य की राजधानी कोलकाता से 170 किलोमीटर दूर स्थित है। यहाँ वे साल के पत्ते इकट्ठा करने में अपना आधा दिन बिता देती हैं। बाद में उन्हें बाज़ार में बेचा जाता है और वहाँ से मिले पैसों से वो अपना घर चलाती हैं।

महिलाओं को चलते समय काफी सतर्क रहना पड़ता है क्योंकि आसपास जंगली जानवर होते हैं। पिछले साल बारोकुर्पा गाँव की उनकी साथी नंदिनी रे सांप के काटने से मर गई थी। नंदिनी साल (शोरिया रोबस्टा) के पत्ते इकट्ठा करने के लिए घर से निकली थी।

इतने जोखिम के बाद भी पश्चिम बंगाल में बांकुरा जिले के ओंडा ब्लॉक में सैकड़ों आदिवासी महिलाएँ खतरनाक जंगलों में जाती हैं क्योंकि साल के पत्तों का इकट्ठा करना और फिर उन्हें बेचना ही उनकी आमदनी का एकमात्र जरिया है। ये महिलाएँ पीढ़ियों से ऐसा करती आ रही हैं। वो साल के 100 पत्ते बेचने पर महज 5 रुपये ही कमा पाती हैं।

सुकोमोनी ने गाँव कनेक्शन को बताया, “हम भोर में घर से निकलते हैं। जब हम जंगल में घुसते हैं तब भी अंधेरा ही रहता है।” उन्होंने आगे कहा, “हमें कम से कम साल के एक हज़ार पत्ते और जलाऊ लकड़ी का एक बंडल इकट्ठा करना होता है। अगर इससे कम काम किया, तो जंगल में पूरा दिन बिताना बेकार चला जाता है।”

उन्हें पर्याप्त पत्तियाँ और जलाऊ लकड़ी इकट्ठा करने में कई घंटे लग जाते हैं। दोपहर 2 बजे तक अपने सिर पर पत्तियों की बोरियाँ लेकर जंगल छोड़ने के लिए वे तैयार हो जाती हैं।

पीढ़ियों से इसी काम को करती आ रही एक अन्य महिला बासोंती ने बताया, “हमारे पास इतने पैसे नहीं होते कि हम बस का किराया दे सकें, इसलिए हम सामान सिर पर रखकर पैदल ही घर की ओर निकल पड़ते हैं।”

जंगली बांकुरा जिले के कई हिस्सों में ज़्यादातर लोग इसी तरह के काम कर रहे हैं। दक्षिण बांकुरा में, घने जंगल रानीबंध, रायपुर, सारेंगा, सिमलापाल, हिरबंध और खतरा ब्लॉकों के विशाल विस्तार को कवर करते हैं। यहाँ की अधिकांश आबादी आदिवासी है और अपनी आजीविका के लिए वन उपज पर निर्भर है।

बरजोरा ब्लॉक के सहरजोरा ग्राम पंचायत के अंतर्गत आने वाले मुक्ताटोर गाँव में युवा महिलाएँ पत्तियां और लकड़ियाँ इकट्ठा करने के लिए जंगल में जाती हैं। यह एक जोख़िम भरा काम है क्योंकि यह क्षेत्र जंगली हाथियों के लिए जाना जाता है। पिछले पाँच सालों में सात लोग हाथियों के साथ मुठभेड़ में अपनी जान गंवा चुके हैं। ये सभी पत्ते इकट्ठा करने के लिए मुक्ताटेर जंगल में गए थे।

संकरी बाउरी की सास मिनोती हाथी मुठभेड़ में मरने वाली महिलाओं में से एक थीं। संकरी ने कहा, “लेकिन हमारे पास कोई विकल्प नहीं है। हमें जंगलों में जाना ही पड़ता है। हमें खुद को जिंदा बनाए रखना है।”

महिलाओं ने कहा कि वन रक्षक और अन्य अधिकारी भी कभी-कभी हाथियों की आवाजाही का हवाला देकर जंगलों में उनके आने-जाने पर रोक लगा देते हैं। दसवीं कक्षा की छात्रा रुम्पा बाउरी ने सवाल किया, “अगर हम जंगलों में नहीं जा सकते तो हम कैसे जिंदा रहेंगे।”

बांकुरा उत्तर प्रभाग के जिला वन अधिकारी (डीएफओ) उमर इमाम के अनुसार, “हम महिलाओं को सुरक्षा चिंताओं के कारण पत्ते इकट्ठा करने के लिए जंगल में न जाने की सलाह देते हैं। हाथी दलमा क्षेत्र से पलायन कर यहाँ निवास करते हैं। हम उनकी गतिविधियों को प्रबंधित करने की कोशिश कर रहे हैं।

साल के पत्तों की बिक्री के काम में महिलाओं के अलावा कम उम्र की लड़कियाँ भी शामिल हैं। लड़कियाँ स्कूल से लौटती हैं और जंगल से लौटती महिलाओं की मदद करती हैं। इस बीच, गाँवों में बुजुर्ग महिलाएँ नीम की पत्ती के डंठल के साथ पत्तियों को जोड़ने और उन्हें प्लेटों में बदलने का काम करती हैं। इन प्लेटों को स्थानीय बाजारों में बेचा जाता है।

रानीबांध की कल्पना सरेन ने गाँव कनेक्शन को बताया, “हम जंगल से पत्तियाँ इकट्ठा करते हैं और उन्हें स्थानीय घोड़ाधोरा और कुइलापाल हाट में बेचते हैं। स्थानीय दुकानों पर भी इन्हें बेचा जाता है।” उन्होंने कहा कि इस काम में महिलाओं को काफी सारे जोखिमों का सामना करना पड़ता है और कमाई नाममात्र की होती है।

रानीबांध की श्यामोली मुर्मू ने गाँव कनेक्शन को बताया, “हम स्थानीय मिठाई की दुकानों पर साल के पत्ते बेचते हैं और 100 पत्तों के बंडल के लिए 5 रुपये मिलते हैं।” महिलाएँ खाना पकाने के लिए कुछ जलाऊ लकड़ी का इस्तेमाल खुद कर लेती हैं, जबकि बाकी को वे क्षेत्र के अन्य गरीब परिवारों, आंगनवाड़ी केंद्रों और स्कूल में दोपहर का भोजन पकाने के लिए 50 रुपये प्रति बंडल के हिसाब से बेचती हैं। एक बंडल में लगभग 20 किलो जलाऊ लकड़ी होती है।

कुछ महिलाओं ने अतिरिक्त आय के लिए साल के पत्तों से बैग और प्लेट बनाना भी शुरू कर दिया है। पिछले साल, बांकुरा के रानीबांध के मौला गाँव में महिलाओं ने पत्तियों से बैग बनाए। उन्होंने हर बैग को दो-दो रुपये में बेच दिया।

साल के पत्तों से बैग बनाने वाली वबदाना सहिस ने कहा, ” एक बैग पॉँच किलो तक वजन उठा सकता है। बैग पर्यावरण के अनुकूल हैं और काफी पसंद भी किया जा रहा है।” उनके अनुसार, महिलाएँ बैग बेचकर रोजाना लगभग 200 रुपये कमा सकती हैं।

ग्रामीण घरों में अभी भी खाने के लिए साल-पत्ते की प्लेटों का इस्तेमाल किया जाता है। इन प्लेटों को बनाने वाले 100 प्लेटों के बंडल को 30 रुपये में बेचते हैं।

रानीबांध के केशरा गाँव की आरोती और कल्याणी महतो साल के पत्तों से छोटी-छोटी प्लेट बनाती हैं। उन्होंने बताया कि वे 1,000 प्लेट बनाने पर उन्हें 75 रुपये मिल जाते हैं। इन प्लेटों का इस्तेमाल तमाम तरह के सामाजिक कार्यक्रमों में मेहमानों को भोजन परोसने के लिए किया जाता है।

साल के पत्तों को इकट्ठा करने वाली महिलाओं के अनुसार, पिछले कई सालों से कुछ शरारती तत्व सर्दियों के महीनों में जंगल में आग लगा रहे हैं। सानेंगा के तेलिजाट गाँव की बंदना मांडी ने कहा, “साल के पेड़ों की संख्या तेजी से घटी है और यह हमारे लिए एक संकट है।”

बांकुड़ा साउथ डिवीजन के डीएफओ ई विजय कुमार ने स्वीकार किया कि जंगल में आग लगने की घटनाएँ हुई हैं। उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, “लेकिन गार्ड सतर्क हैं और कड़ी निगरानी कर रहे हैं।”

बांकुरा जिले की कई महिलाओं ने शिकायत की कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी एक्ट (मनरेगा), जिसे स्थानीय रूप से ‘अक्सो दिनेर काज’ (सौ दिन का काम) कहा जाता है, से काम के बदले मिलने वाला पैसा दो साल से बंद है। उन्हें कोई काम नहीं मिला है। यहाँ तक कि उन्हें 2021 में उनके द्वारा किए गए काम की मजदूरी तक नहीं मिली है।

जिला मनरेगा सेल के सूत्रों के अनुसार, बांकुड़ा जिले में अब भी कुल 100 करोड़ 68 लाख रुपये की मज़दूरी बकाया है। इसके अलावा, खेतों में मशीनों के इस्तेमाल के चलते, इस क्षेत्र में रोज़गार के अवसर भी कम हुए हैं। कई पुरुष नौकरी की तलाश में पलायन कर गए हैं और जो महिलाएँ पीछे रह गई हैं उनके पास साल के पत्ते इकट्ठा करने और बेचने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं बचा है।

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