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दिवाली के एक दिन बाद संथाल आदिवासी अपने पशुओं को धन्यवाद कहने के लिए मनाते हैं सोहराय परब

दिवाली में भगवान राम की अयोध्या वापसी का उत्सव मनाया जाता है, लेकिन झारखंड के संथाल आदिवासी सोहराय परब मानते हैं जिसमें अपने मवेशियों को सजाकर, दीपक जलाकर उनकी पूजा करते हैं; इसके पीछे एक दिलचस्प कहानी है।
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पूर्वी सिंहभूम जिले के सोमाई झोपड़ी गाँव में पिछले कई दिनों से लोग व्यस्त हैं। झारखंड के संथाल आदिवासी समुदाय के त्योहार ‘सोहराय परब’ में लोग अपने घरों के अंदर और बाहर की सफाई करने और मिट्टी की दीवारों को प्राकृतिक रंगों से रंगने में लग जाते हैं।

सोहराय परब या बांदना परब कार्तिक अमावस्या के अगले दिन पड़ता है, जब पूरे भारत में रोशनी का त्योहार दिवाली मनाया जाता है, जिसमें लोग मिट्टी के दीये जलाते हैं और मिठाइयाँ खाते हैं।

संथाली त्योहार पाँच दिनों तक मनाया जाता है और ग्रामीण उन मवेशियों की पूजा करते हैं जो उनके दैनिक जीवन में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं।

“हम मवेशियों को बहुत प्रिय मानते हैं; वे परिवार के सदस्यों की तरह हैं और किसी को भी उनके साथ दुर्व्यवहार करने की इजाज़त नहीं है। हमारे जीवन में खेती, परिवहन, दूध में मवेशियों की बड़ी भूमिका के लिए सोहराय परब पर उनकी पूजा की जाती है।” सोमई झोपड़ी के निवासी धनो मर्दी ने गाँव कनेक्शन को बताया।

ग्रामीण ने बताया कि सभी निवासी संथाल आदिवासी संस्कृति और परंपरा को दर्शाते हुए अपने घरों को सोहराई कला से सजाते हैं। “हम अपनी दीवारों को जंगल की उपज और चावल के आटे से बने प्राकृतिक रंगों से रंगते हैं।” धनो मर्दी ने सोना मर्दी की ओर इशारा करते हुए कहा, जो अपने भाइयों और बहनों के साथ अपनी दीवारों पर फूलों, मवेशियों, पक्षियों को सावधानीपूर्वक चित्रित करती हैं। संथाली परंपराओं के लिए वन और वन्य जीवन प्रिय हैं।

सोहराई की उत्पत्ति

जैसा कि सभी परंपराओं और रीति-रिवाजों के साथ होता है, सोहराई परब के पीछे भी एक कहानी है।

“गाय और बैल प्राचीन काल से ही आदिवासी ज़िंदगी का अहम हिस्सा रहे हैं; वे खेतों की जुताई करते थे, माल को इधर-उधर ले जाते थे, लेकिन धीरे-धीरे, लोगों ने उनके साथ दुर्व्यवहार करना शुरू कर दिया और उन्हें कोई प्यार या सम्मान नहीं दिया।” सोमाई झोपड़ी के निवासी मंगल किस्कू ने गाँव कनेक्शन को बताया।

“आदिवासी देवताओं ने देखा और लोगों को सबक सिखाने का फैसला किया; उन्होंने सभी मवेशियों को बस्तियों से दूर घने जंगलों और पहाड़ियों में खदेड़ दिया। अपने मवेशियों के बिना, लोग अब फंसे हुए थे, खेती ठप हो गई… पश्चाताप करते हुए, लोगों ने माफ़ी माँगी और वादा किया कि अगर वे गाँव लौटेंगे तो गायों और बैलों का हमेशा सम्मान करेंगे; अगले दिन, मवेशी घर लौट आए। ” किस्कू ने खुशी से कहा।

जबकि दिवाली 14 साल के वनवास से भगवान राम की अयोध्या वापसी का जश्न मनाती है, सोहराय परब आदिवासी गाँव में मवेशियों की वापसी का जश्न मनाती है।

रीति-रिवाज और उत्सव

त्योहार के पहले दिन, जो दिवाली के एक दिन बाद पड़ता है, गाँव की गायों को एक दिन खुले मैदान में चरने के बाद इकट्ठा किया जाता है। ग्रामीण दीपक जलाकर, गीत गाकर उनकी पूजा करते हैं। गायों को तेल, सिन्दूर आदि से सजाया जाता है।

दूसरे दिन, विवाहित बेटियाँ त्योहार मनाने के लिए अपने माता-पिता के पास जाती हैं। गायों के सींगों को धान से सजाया जाता है। तीसरे दिन गाय-बैलों को चरने और घूमने के लिए खुला छोड़ दिया जाता है।

त्योहार के अंतिम दिन, संथाली लोग गाते हैं, नृत्य करते हैं और आनंद मनाते हैं। अंतिम दिन, ग्रामीण यह पता लगाने के लिए इकट्ठा होते हैं कि क्या गाँव में मवेशियों के साथ दुर्व्यवहार करने का कोई दोषी है। दोषियों को सज़ा दी जाती है और माफ़ी माँगी जाती है और वादा किया जाता है कि वे दोबारा ऐसा नहीं करेंगे।

पूर्वी सिंहभूम के उत्क्रमित मध्य विद्यालय रानीडीह गाँव की संथाली शिक्षिका परमिला किस्कू ने गाँव कनेक्शन को बताया कि गाय और बैल के बिना आदिवासी ग्रामीण जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। प्राचीन काल से आदिवासी समुदायों के लिए बहुत कुछ नहीं बदला है।

किस्कू ने कहा, “हमारे लिए गायों पर अत्याचार करना पाप है; हाँलाकि हम सजा में विश्वास नहीं करते हैं, लेकिन हम मानते हैं कि इससे लोगों की सोच कुछ जरूर बदलेगी और जानवर या किसी अन्य इंसान को नुकसान नहीं पहुँचाएँगे। ”

संथालियों के लिए गायें इतनी करीब हैं कि वे हर गाय को एक नाम देते हैं, जैसे वे अपने बच्चों को देते हैं, धनो मर्दी ने कहा।

“नायके बाबा (संथाल पुजारी) उन गायों और बैलों की सुरक्षा के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं जो अपने मालिकों की कई तरह से मदद करते हैं। मर्दी ने कहा, ”महिलाएँ गायों की प्यार से पूजा करती हैं और उन्हें सजाती हैं और उनसे प्रार्थना करती हैं कि वे और अधिक गायों को जन्म दें और परिवारों में समृद्धि लाएं।”

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