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खेती और चरागाह की जमीन को नुकसान पहुंचाए बिना संचालित हो रहीं हरित ऊर्जा की सौर परियोजनाएं

सौर ऊर्जा परियोजनाओं के खिलाफ बढ़ते विरोध के समाधान के रूप में कृषि-फोटोवोल्टिक परियोजनाओं की पेशकश की जा रही है, जिसके लिए जमीन के एक बड़े हिस्से की जरूरत होती है और अक्सर स्थानीय समुदायों के साथ इसको लेकर संघर्ष होता है। ये परियोजनाएं पारंपरिक आजीविका, जैसे चराई और बिजली उत्पादन एक साथ ला सकती है।
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दस साल पहले, जब गुजरात के चरंका गाँव में भारत का पहला सौर पार्क आया था, तब स्थानीय मालधारी (गड़ेरिया) परिवारों से 2,000 हेक्टेयर से ज्यादा कृषि और चरागाह जमीन का अधिग्रहण किया गया था। मालधारी इसमें से ज्यादातर जमीन का इस्तेमाल खेती या फिर अपनी भेड़-बकरियों को चराने के लिए किया करते थे।

730 मेगावाट सौर पार्क बनने के बाद से चरागाह की जमीन कम हो गई और इसकी वजह से कई गड़ेरिया परिवारों को अपने पशुओं को बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा।

पांच साल पहले तक 300 भेड़ें रखने वाले चरंका गाँव के लीलाभाई रबारी ने गाँव कनेक्शन को बताया, “कुछ जानवर मर गए और कुछ बेच दिए गए।” उन्होंने कहा कि गाँव के 160 मालधारी परिवारों में से अब केवल 10 के पास ही भेड़ें हैं।

पड़ोसी राज्य राजस्थान में भी ग्रामीण ‘हरित’ ऊर्जा परियोजनाओं का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि इससे जैसलमेर के प्राचीन ‘ओरण’ खत्म होने का खतरा मंडरा रहा है।

लेकिन महाराष्ट के धुले जिले के देगांव गाँव (सिंधखेड़ा ब्लॉक) में स्थिति ठीक इसके उलट है। यहां पिछले साल 2021 में 7 मेगावाट का सौर संयंत्र चालू किया गया, जिसका स्थानीय किसानों ने खुले दिल से स्वागत किया। सौर ऊर्जा संयंत्र को ग्रो सोलर एनर्जी प्राइवेट लिमिटेड ने स्थापित किया था और यह पूरी तरह से किसानों के कृषि पंपों और उनके घरेलू उपयोग के लिए है।

महाराष्ट के धुले जिले के देगांव गाँव में लगे सोलर पैनल के पास भेड़ चरने आती हैं।

महाराष्ट के धुले जिले के देगांव गाँव में लगे सोलर पैनल के पास भेड़ चरने आती हैं।

दरअसल, यह 7 मेगावाट सौर संयंत्र, एक एग्रो -फोटोवोल्टिक परियोजना है, जो देश में सबसे बड़ा ऐसा संयंत्र है, जो खेती और चरागाह को बरकरार रखते हुए सौर ऊर्जा का उत्पादन करता है।

गड़रिये धनगर समुदाय से ताल्लुक रखने वाले पांडुरंग लाखा के पास 300 भेड़ें हैं। वह अक्सर अपनी भेड़ों को ग्रो सोलर प्रोजेक्ट में चरने के लिए लाते हैं। उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया, “जब सोलर प्लांट नहीं था तो यहां की घास इतनी बेहतर नहीं थी।” लाखा ने कहा कि सौर पैनलों को धोने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला पानी जमीन में रिसकर उसे हरा-भरा बना रहा है।

सौर ऊर्जा परियोजनाओं के खिलाफ बढ़ते विरोध के समाधान के रूप में कृषि-फोटोवोल्टिक परियोजनाओं की पेशकश की जा रही है, जिसके लिए भूमि के बड़े हिस्से की जरूरत होती है और अक्सर स्थानीय समुदायों के साथ संघर्ष होता है। 2021 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, 48 मेगावाट की संयुक्त क्षमता के साथ पूरे देश में 13 ऐसी परियोजनाएं थीं।

“एक कृषि-फोटोवोल्टिक परियोजना में, पारंपरिक आजीविका, जैसे कि चराई और बिजली का उत्पादन, एक ही भूमि पर सह-अस्तित्व में हो सकता है। एग्रो-फोटोवोल्टिक, सफल होने के लिए, किसानों और अक्षय ऊर्जा डेवलपर्स को हाथ मिलाने की जरूरत है। यह मुश्किल लग सकता है, लेकिन जमीन पर निर्भर आजीविका हासिल करने के लिए यह महत्वपूर्ण है, “विश्वजीत पुजारी, गैर-लाभकारी विश्व संसाधन संस्थान-भारत के सीनियर प्रोग्राम एसोसिएट ने कहा।

एग्रो-फोटोवोल्टिक प्रोजेक्ट्स के दोहरे फायदे

भारत सरकार ने 2070 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन तक पहुंचने की योजना बनाई है और 2030 तक 500 GW (गीगावाट) नवीकरणीय ऊर्जा का लक्ष्य रखा है। इसमें से 280 GW लक्ष्य सौर ऊर्जा के लिए है।

मौजूदा समय में रिन्यूएबल एनर्जी के उत्पादन को बढ़ाने पर फोकस किया जा रहा है। लेकिन इसके साथ ही स्थानीय समुदायों के अधिकारों और ‘ग्रीन एनर्जी’ के जरिए बिजली उत्पादन पर संघर्ष भी लगातार बना हुआ है।

नेचर जर्नल में प्रकाशित 2022 के शोध पत्र ‘भारत में सौर ऊर्जा स्थानों के लिए एक कृत्रिम बुद्धिमत्ता डेटासेट’ के अनुसार, भारत में 74 प्रतिशत से ज्यादा सौर संयत्र ऐसी जमीन पर स्थापित किए गए हैं जो संभावित जैव विविधता और खाद्य सुरक्षा के बीच संघर्ष का कारण बने हैं- (67.6 प्रतिशत खेती की भूमि पर और 6.99 प्रतिशत प्राकृतिक आवास में)। प्रत्येक मेगावाट सौर ऊर्जा के लिए पांच एकड़ और पवन ऊर्जा के लिए 2.5 एकड़ जमीन की जरूरत होती है।

प्रत्येक मेगावाट सौर ऊर्जा के लिए पांच एकड़ तक की आवश्यकता होती है, और पवन ऊर्जा के लिए 2.5 एकड़ भूमि की आवश्यकता होती है।

केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (CAZRI), जोधपुर, राजस्थान में कृषि-फोटोवोल्टिक पर देश का पहला पायलट संचालित हो रहा है।

केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (CAZRI), जोधपुर, राजस्थान में कृषि-फोटोवोल्टिक पर देश का पहला पायलट संचालित हो रहा है।

एग्रोवोल्टिक और सौर चराई, जिसका मूल रूप से मतलब खेती/चराई और सौर ऊर्जा के लिए भूमि का दोहरा उपयोग है, इस संघर्ष को दूर करने के समाधान के रूप में सामने आ रहे हैं।

एक कृषि-फोटोवोल्टिक संयंत्र में, सौर पैनलों के नीचे और पैनलों की पंक्तियों के बीच की जगह में फसलें उगाई जाती हैं। पैनलों की सफाई के लिए पानी का दोहरा उपयोग नीचे की फसलों की सिंचाई के लिए किया जाता है।

पैनल के तहत सफल खेती के लिए कुछ डिज़ाइन परिवर्तनों की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, संरचना की ऊंचाई बढ़ाना जिस पर सौर पैनल लगे होते हैं, यह सुनिश्चित करता है कि उनसे निकलने वाली छाया पौधे की वृद्धि को प्रभावित नहीं करती है। यह पैनल के तहत कृषि मशीनरी की आवाजाही की सुविधा भी देता है।

बिजली और डेटा ट्रांसमिशन तारों को भी जमीन में गहराई में दबा देना पड़ता है ताकि जुताई उन पर असर न करे। दूसरी ओर, फसल का चुनाव छाया-सहनशीलता और पौधे की ऊंचाई जैसे कारकों पर आधारित होना चाहिए।

आणंद, गुजरात में पायलट प्रोजेक्ट

तीन साल पहले तक 33 साल के महेंद्र परमार के पास दो बीघा (0.79 एकड़) जमीन थी। अपने 16 सदस्यीय परिवार का पालने के लिए लिए संघर्ष कर रहा था। गुजरात के आणंद जिले के अमरोल के इस किसान ने गाँव कनेक्शन को बताया, “खेती से कभी गुजारा नहीं चला था। इसलिए हमने डेयरी में काम करना और दिहाड़ी मजदूरी भी शुरू कर दी।”

उनके लिए चीजें तब बेहतर हुईं जब गुजरात इंडस्ट्रीज पावर कंपनी लिमिटेड (जीआईपीसीएल) की एक मेगावाट की कृषि-फोटोवोल्टिक पायलट परियोजना उनकी दो बीघा भूमि पर आई। राज्य सरकार से सब्सिडी और आनंद कृषि विश्वविद्यालय की सहायता से इस प्रोजेक्ट को शुरू किया गया था।

33 वर्षीय परमार और जीआईपीसीएल के बीच एक अनुबंध पर हस्ताक्षर किए गए, जिसके अनुसार कंपनी को बीज और उर्वरक की लागत वहन करनी थी और कृषि उपज से होने वाले फायदे को दोनों पक्षों के बीच समान रूप से साझा किया जाना था।

परमार ने कहा, “मेरी ज़मीन बंजर पड़ी थी। लेकिन अब, हम इस पर फिर से खेती करने के लिए गोबर और खाद डाल रहे हैं।” उन्होंने बताया कि अब वह अपने खेत पर काम करने के लिए दूसरों को भी काम पर रखने में सक्षम हैं।

किसान ने बताया, “गर्म महीनों में सौर पैनलों की छाया पौधों को सहारा देती है, उन्हें तेज धूप से बचाती है। मैं अपने मवेशियों के लिए यहां से चारा भी ले जाता हूं।”

संपर्क करने पर GIPCL के जनरल मैनेजर (RE-O&M) पीएस गोयल ने गांव कनेक्शन को बताया, “हम परियोजना के तहत 2.1 हेक्टेयर क्षेत्र में गेहूं, हरा चना, मक्का, भिंडी, हल्दी और ज्वार सहित 15 फसलें उगाते हैं। फसल का अस्सी प्रतिशत भाग पैनल्स की छाया में और बाकी की फसल पैनल्स के बीच की जगह में उगता है।” उन्होंने कहा कि पैनल धोने के साथ-साथ फसलों की ड्रिप सिंचाई के लिए सिंगल वाटर पंपिंग और वितरण नेटवर्क तैयार किया गया है।

एक मेगावाट की पायलट परियोजना से उत्पन्न बिजली की आपूर्ति 11 किलोवोल्ट (केवी) लाइन के जरिए आस-पास के गाँवों और खेतों में सिंचाई के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले पंपों के लिए की जाती है। यह दूर के ग्रिड से बिजली आपूर्ति की तुलना में ट्रांसमिशन कोस्ट को कम करता है। (बिजली संयंत्रों से बिजली आमतौर पर 210 केवी की उच्च वोल्टेज लाइनों के माध्यम से जारी की जाती है और जब यह अंत में व्यक्तिगत घरों तक पहुंचती है तो 11 केवी लाइनों तक नीचे चली जाती है। इसमें शामिल लागत को ट्रांसमिशन और वितरण लागत कहा जाता है।)

जब फोटोसिंथेसिस और फोटोवोल्टिक साथ-साथ चलते हैं

केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (CAZRI), जोधपुर, राजस्थान में कृषि-फोटोवोल्टिक पर देश का पहला पायलट संचालित करने वाले प्रियब्रत संतरा ने गाँव कनेक्शन को बताया, “अगर हम पैसों के हिसाब से देखें, तो फोटोवोल्टिक हमेशा जीतेगा क्योंकि यह 15 प्रतिशत ज्यादा लाभ देता है। लेकिन हमें फूड की भी जरूरत है। इसलिए बिजली उत्पादन और खाद्य उत्पादन दोनों को एक साथ लेकर चलना ही फायदेमंद है।” वह आगे बताते हैं, “यह सब फोटोसिंथेसिस और फोटोवोल्टिक के बीच संश्लेषण के बारे में है। दोनों को सूरज और पानी की जरूरत होती है।”

जोधपुर में काजरी में 105 केवी स्टडी प्लांट में वर्षा जल संचयन किया जाता है। और फिर इस पानी से मूंग, मोठ, क्लस्टर बीन्स और एलोवेरा की खेती की जाती है। संतरा ने कहा, “हमने पाया कि कम ऊंचाई वाली फसलों को पानी की ज्यादा जरूरत नहीं होती है। वह छाया में भी पनप जाती है। ये फसल शुष्क परिस्थितियों में सौर पैनलों के नीचे आसानी से उग जाती है।”

उनके अनुसार, बाजरा जैसी लंबी फसलें जमीन पर लगे सौर पैनलों के पास नहीं उगाई जा सकतीं क्योंकि वे पैनलों पर पड़ने वाली रोशनी को बाधित करती हैं। संतरा ने कहा, “शुष्क क्षेत्रों में जहां धूल पैनलों पर परत बना लेती है (जिसकी वजह से बिजली उत्पादन कम हो जाता है), वहां नीचे लगी फसल जमीन की रेत को दबाने में मदद कर सकती है।”

सौर ऊर्जा उत्पादन के लिए आदर्श तापमान 24-25 डिग्री सेल्सियस है। इसलिए पैनलों के नीचे उगाई गई फसल संयंत्र क्षेत्र के परिवेश के तापमान को नियंत्रित भी करती है।

सौर ऊर्जा उत्पादन के लिए आदर्श तापमान 24-25 डिग्री सेल्सियस है। इसलिए पैनलों के नीचे उगाई गई फसल संयंत्र क्षेत्र के परिवेश के तापमान को नियंत्रित भी करती है।

उन्होंने कहा कि नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन जैसी कंपनियां अब पैनल को कवर करने वाली रेत की समस्या से निपटने के लिए अपने सोलर फार्म में पौधे उगाने की संभावना पर उनसे परामर्श ले रही हैं।

सौर ऊर्जा उत्पादन के लिए आदर्श तापमान 24-25 डिग्री सेल्सियस है। इसलिए पैनलों के नीचे उगाई गई फसल संयंत्र क्षेत्र के परिवेश के तापमान को नियंत्रित भी करती है।

महाराष्ट्र स्टेट पावर जनरेशन कंपनी लिमिटेड के साथ जुड़े पूर्व अधिकारी गिरसे ने कहा, ” धुले में हमारे संयंत्र में सौर मॉड्यूल स्थापित करने वाले पैनासोनिक (पैनासोनिक लाइफ सॉल्यूशंस इंडिया) के इंजीनियरों ने मुझे बताया कि संयंत्र की बाउंड्री पर 2,000 मेंहदी के पौधे लगाने के बाद से बिजली उत्पादन बढ़ गया है।” गिरसे ने बाद में धुले में अपनी पैतृक भूमि पर अपने एग्रो-फोटोवोल्टिक सपने को पूरा करने के लिए समय से पहले रिटायरमेंट ले लिया था। धुले में पिछले जून में 7 मेगावाट का एग्रो-फोटोवोल्टिक संयंत्र चालू किया गया है।

गिरसे ने बताया कि राज्य की “और कृषि वाहिनी योजना” के तहत स्थापित 52 एकड़ का संयंत्र छह गांवों को बिजली मुहैया करा रहा है” उन्होंने गाँव कनेक्शन को जानकारी देते हुए कहा, “हम सोलर एनर्जी को कृषि रूप से भी व्यवहार्य बनाने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं। आज इससे कोई लाभ नहीं मिल रहा है, लेकिन दो साल बाद इस जमीन के कम से कम 35 एकड़ हिस्से पर गहन खेती करने का इरादा रखते हैं।”

फिलहाल तो वह यहां जेरेनियम और मेंहदी की पौध उगाई जा रही हैं। लेकिन आने वाले समय में गिरसे का इरादा, यहां नारियल, आम, प्याज और लहसुन की बौनी किस्मों को उगाने का है। अगर खेती से उन्हें फायदा नहीं मिला तो वह इस पूरे संयंत्र को पशुओं की चराई के लिए खोल देंगे।

यहां जेरेनियम और मेंहदी की पौध उगाई जा रही हैं। लेकिन आने वाले समय में यहां नारियल, आम, प्याज और लहसुन की बौनी किस्मों को उगाने का है। अगर खेती से उन्हें फायदा नहीं मिला तो वह इस पूरे संयंत्र को पशुओं की चराई के लिए खोल देंगे।

यहां जेरेनियम और मेंहदी की पौध उगाई जा रही हैं। लेकिन आने वाले समय में यहां नारियल, आम, प्याज और लहसुन की बौनी किस्मों को उगाने का है। अगर खेती से उन्हें फायदा नहीं मिला तो वह इस पूरे संयंत्र को पशुओं की चराई के लिए खोल देंगे।

महाराष्ट्र स्टेट पावर जनरेशन कंपनी लिमिटेड के पूर्व कर्मचारी ने कहा, “हमारे पास आस-पास के गांवों में लगभग 5,000 भेड़ें हैं। उन्हें चरने देना मेरी सामाजिक जिम्मेदारी बनती है। भेड़ के साथ अच्छी बात यह है कि वे शांत हैं और बकरियों या अन्य मवेशियों की तरह पैनल पर चढ़ने की कोशिश नहीं करती. जबकि अन्य पशु अक्सर अपने वजन से पैनल तोड़ सकते हैं।”

उन्होंने कहा, “भेड़ एक अच्छी निराई एजेंट हैं। वे जेरेनियम ही नहीं बल्कि अन्य सभी घासों को खाती हैं। यह हमारे साथ-साथ चरवाहों के लिए भी हर तरफ से फायदेमंद है।”

शुरुआती रुकावट

हालांकि बड़ी कंपनियां एग्रो-फोटोवोल्टिक की ओर तेजी से आगे नहीं आ रही है। नेशनल सोलर एनर्जी फेडरेशन ऑफ इंडिया की जनवरी 2021 की रिपोर्ट ने देश में कुल एग्रो-फोटोवोल्टिक क्षमता को केवल 48 मेगावाट पर रखा है।

कर्नाटक के कृषि वैज्ञानिक पीआर शेषगिरी राव ने गांव कनेक्शन को बताया, “एपीवी (एग्रो-फोटोवोल्टिक्स) लगाने से लागत बढ़ जाती है। पौधों पर छाया प्रभाव को रोकने और कृषि मशीनरी की निर्बाध आवाजाही के लिए माउंट को और अधिक ऊंचाई पर लगाना होगा। ऊंचाई की वजह से उन्हें साफ करना मुश्किल हो जाता है और तेज हवाओं से उन्हें नुकसान भी पहुंच सकता है।”

सोलर प्लांट लगाना एक महंगा मामला है। सनसीड एपीवी एक एग्रो-फोटोवोल्टिक सोल्युशन विकसित करने वाला एक स्टार्ट-अप है। इसके सीईओ और संस्थापक विवेक सराफ ने कहा, “एक मेगावाट सौर संयंत्र स्थापित करने की लागत 3.5 करोड़ रुपये है। अगर हम इसमें बढ़ते ढांचे और अन्य कृषि बुनियादी ढांचे को जोड़ते हैं तो यह लागत 20 प्रतिशत तक और बढ़ जाएगी। “

पैनलों की छाया में फसल की पैदावार पर डेटा की कमी एक और बाधा है। सराफ ने गाँव कनेक्शन से कहा, “कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा किए गए परीक्षणों ने अभी तक पर्याप्त डेटा तैयार नहीं किया है। एपीवी लेने वाले एक डेवलपर के लिए, सौर और कृषि दोनों को तकनीकी-आर्थिक रिटर्न के मामले में एक-दूसरे का पूरक होना चाहिए।” सराफ ने महाराष्ट्र के परभणी में एक पॉलीहाउस की तर्ज पर – अपने 1.4 मेगावाट के एग्रो-फोटोवोल्टिक संयंत्र में एक शेड नेट स्थापित किया है।

उनकी कंपनी ने अलग-अलग छाया वाली स्थितियों में पौधों की उपज के बारे में जानकारी इकट्ठा करने के लिए फोटोसिंथेसिस मीटर जैसे बेहतरीन उपकरण भी लगाए हैं।

सेक्टर विशेषज्ञों के मुताबिक, एग्रो-फोटोवोल्टिक के धीमी गति से आगे बढ़ने के पीछे किसानों और सौर डेवलपर्स के बीच अविश्वास और समन्वय की कमी सबसे बड़ा सामाजिक-सांस्कृतिक कारक है।

विकेंद्रीकृत एग्रो-फोटोवोल्टिक प्रोजेक्ट्स

कृषि वैज्ञानिक और सौर विकासकर्ता दोनों इस बात से सहमत हैं कि सरकार से वित्तीय सहायता एग्रो-फोटोवोल्टिक को आगे बढ़ाने के लिए एक महत्वपूर्ण कारक हो सकती है।

गुजरात इंडस्ट्रीज पावर कंपनी लिमिटेड के गोयल ने कहा, “हम शुरुआत करने में सक्षम हैं क्योंकि सरकार हमसे 3.20 रुपये प्रति kV की बढ़ी हुई लागत पर बिजली खरीद रही है। एक किसान या निजी संस्था को इसे चलाने के लिए कम से कम 3.50 रुपये प्रति केवी मिलना चाहिए।”

कच्छ में प्रस्तावित 30,000 मेगावाट पार्क जैसे मेगा सोलर पार्क में हजारों किलोमीटर से अधिक बिजली स्थानांतरित करने के लिए भारी निकासी बुनियादी ढांचा की जरूरत होगी। जिसका मतलब है कि ट्रांसमिशन लागत का 3 रुपये प्रति केवी (उत्पादन की लागत के अलावा) हो जाना। उन्होंने कहा, तो फिर क्यों न, छोटी विकेन्द्रीकृत एग्रो -फोटोवोल्टिक परियोजनाओं को सब्सिडी दी जाए।

गिरासे के अनुमान के मुताबिक, 200 गीगावाट की क्षमता वाले 40,000 सब स्टेशन ग्रामीण भारत से जुड़े हैं। उन्होंने कहा, “अगर सरकार एपीवी को सब्सिडी देती है, तो पूरे ग्रामीण इलाकों की बिजली की जरूरत को ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोत से पूरा किया जा सकता है, वो भी लोगों के साथ बिना किसी संघर्ष के।”

यह स्टोरी जुलाई 2022 में कन्याकुमारी में आयोजित अर्थ जर्नलिज्म नेटवर्क की रिन्यूएबल एनर्जी वर्कशॉप के शोध के समर्थन से तैयार की गई है।

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