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सरदार सरोवर परियोजना, स्टैच्यू ऑफ यूनिटी और पुनर्वास की राह देखते आदिवासी

सरदार सरोवर परियोजना की आवासीय कॉलोनी - केवड़िया कॉलोनी - के लिए 1961 में अपनी ज़मीनें गंवाने वाले छह गांवों के आदिवासी, 60 साल बीत जाने के बाद भी पुनर्वास का इंतजार कर रहे हैं।
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स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के लिए हाल में सुर्ख़ियों में रहने वाली केवड़िया कॉलोनी, आदिवासी भूमि और संस्कृति के प्रभुत्वशाली वर्गों और जातियों द्वारा हथियाए जाने का एक ज्वलंत उदाहरण है। सरदार वल्लभ भाई पटेल की यह विशालकाय प्रतिमा, गुजरात के उस ‘विकास मॉडल’ की असलियत बयान करती है जिसके तहत राज्य सत्ता के जरिए हाशिए के तबकों के बुनियादी संसाधनों को उनसे छीन कर प्रभुत्वशाली समुदायों को थमा दिया जाता है।

गुजरात में नर्मदा नदी पर शुरू हुई सरदार सरोवर परियोजना की आवासीय कॉलोनी के रूप में, केवड़िया कॉलोनी को 1961 में आदिवासी भूमि पर बसाया गया था। इस परियोजना के तहत बन रहे बांध को तब नवगाम बांध कहा जाता था। सरकार का दावा था कि सरदार सरोवर परियोजना गुजरात को “नंदनवन”, यानी स्वर्ग में बदल देगी।

सिर्फ इस एक बांध के पानी में 13,000 जंगल डूब चुका है! फोटो oralhistorynarmada.in के सौजन्य से।

लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि, करीब 2,50,000 लोगों की आबादी वाले 245 गांव बांध में जलमग्न हो गए, और इतनी ही संख्या में लोग, नहर, आवासीय कॉलोनी इत्यादि जैसे परियोजना-संबंधित निर्माण कार्यों और बांध के कारण नर्मदा नदी के निचले क्षेत्रों पर होने वाले दुष्परिणामों की वजह से प्रभावित हुए। 13,000 हेक्टेयर जंगल बांध के पानी में डूब गए और नर्मदा नदी पर भी विपरीत असर पड़ा।

आदिवासी भूमि पर केवड़िया कॉलोनी

खासतौर पर केवड़िया कॉलोनी, जहां स्टैच्यू ऑफ यूनिटी को स्थापित किया गया है, इसे बसाने के लिए छह आदिवासी गांवों – केवड़िया, वाघड़िया, लिमड़ी, नवगाम, गोरा और कोठी – की भूमि का अधिग्रहण किया गया था। इन ज़मीनों का इस्तेमाल परियोजना अधिकारीयों के आवास, मज़दूरों के घर, सर्किट हाउस, वीआईपी व्यक्तियों के लिए हेलीपैड, गोदाम, भारी मशीनें खड़ी करने के लिए पार्किंग क्षेत्र आदि के निर्माण के लिए किया गया था।

लेकिन, केवड़िया कॉलोनी के लिए ज़मीन खोने वाले आदिवासियों को, सरदार सरोवर बांध के डूब क्षेत्र में आने वाले 245 गांवों के निवासियों की तरह कभी भी परियोजना से प्रभावित परिवारों का दर्जा नहीं दिया गया और इसके चलते, पुनर्वास से वंचित रखा गया। बांध से विस्थापित होने वाले परिवारों के रूप में मान्यता दिए जाने और भूमि-आधारित पुनर्वास के लिए इन छह गाँव के लोगों का संघर्ष आज भी जारी है।

सिर्फ इतना ही नहीं, केवड़िया कॉलोनी के जिन हिस्सों का बांध के लिए इस्तेमाल नहीं किया गया था, उन इलाकों में अब पर्यटन को बढ़ावा दिया जा रहा है क्योंकि विंध्य और सतपुड़ा पहाड़ियों के सुंदर नज़रों के बीच नर्मदा नदी के किनारे बसे हुए होने के कारण यह इलाके आकर्षक पर्यटन केंद्र बन सकते हैं।

इन छह गांवों के आदिवासियों ने इसका जमकर विरोध किया है और उनकी मांग रही है कि बांध के लिए इस्तेमाल नहीं की गई जमीन उन्हें वापस लौटा दी जाए।

Photo credits: oralhistorynarmada.in

इससे भी बदतर यह हुआ कि केवड़िया कॉलोनी के जिन इलाकों को बांध के लिए इस्तेमाल नहीं किया गया, उस जमीन को बांध स्थल के पास पर्यटन विकसित करने के लिए बदला जाने लगा है। जमीन का ये हिस्सा नर्मदा नदी, सतपुड़ा और विंध्य पर्वत की एक सुंदर पृष्ठभूमि में नजर आता है जिसे आलिशान पर्यटन के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।

छह गांवों के आदिवासियों ने इसका जमकर विरोध किया है। उनकी मांग है कि बांध के लिए इस्तेमाल नहीं की गई जमीन उन्हें वापस की जाए।

संघर्ष और विरोध की कहानियां


कपिलाबेन तड़वी, वाघड़िया गांव की निवासी और नर्मदा बचाओ आंदोलन की एक तेज़तर्रार आदिवासी नेता, नर्मदा आंदोलन के मौखिक इतिहास की वेबसाइट को दिए अपने एक साक्षात्कार में लोगों के साथ हुए इस घोर अन्याय के बारे में बताती हैं।

वह उस समय को याद करती हैं जब उनकी शादी प्रभुभाई तड़वी के साथ तय हुई थी। प्रभुभाई तड़वी की वाघड़िया गांव की सारी ज़मीन केवड़िया कॉलोनी के निर्माण के लिए अधिगृहित कर ली गई थी। कपिलाबेन की शादी के समय, जब वह सत्रह साल की भी नहीं थी, लोगों ने उनके भविष्य को लेकर चिंता व्यक्त की थी क्योंकि तब तक बांध परियोजना के लिए वाघड़िया को अधिग्रहित किया जा चुका था। साक्षात्कार के दौरान कपिलाबेन तड़वी याद करते हुए कहती हैं कि उस वक़्त उन्होंने लोगों से वाघड़िया के विस्थापितों को पुनर्वास दिए जाने की बातें भी सुनी थीं। इसलिए, फिर उनकी शादी कर दी गई।

यहीं से उनके संघर्ष और फिर नर्मदा बचाओ आंदोलन से उनके जुड़ाव की शुरुआत हुई। इस साक्षात्कार में कपिलाबेन अपनी ज़मीनों से जुड़ी आंदोलन की मांगों का उल्लेख करती हैं। वह बताती हैं कि किस तरह इन छह गांवों के पुरुषों और महिलाओं ने एकजुट होकर इस अन्याय के खिलाफ संघर्ष किया।

विरोध प्रदर्शन करना, ज्ञापन देना, धरने पर बैठना और यहां तक कि पुलिस द्वारा पीटा जाना और जेल में बंद किया जाना, यह सभी इस लड़ाई का हिस्सा थे।

जब भूमि का अधिग्रहण किया गया था, तब लोगों को अंदाजा भी नहीं था कि इसके परिणाम कितने गंभीर होने वाले थे। कपिलाबेन कहती हैं, “किसी को भी नहीं पता था कि कितने लोग बेघर हो जाएंगे, कितने जानवर और पक्षी डूबकर मर जाएंगे और कितने पेड़ों को साफ़ कर दिया जाएगा। कई विस्थापित परिवार भीख मांगकर अपना गुजारा कर रहे हैं, और कुछ को तो आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ा।” कपिलाबेन सरदार सरोवर परियोजना के गुजरात की ‘जीवन रेखा’ होने के दावे को चुनौती देती हैं।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त की गए शिकायत निवारण प्राधिकरण ने इन छह गांवों के आदिवासियों की पुनर्वास दिए जाने की मांग को सहानुभूति की निगाह से देखा था और साल 2000 में जारी किये गए सरकारी आदेश (जीआर) में यह स्पष्ट रूप से कहा गया था कि जब तक इन विस्थापितों के लिए एक नए पुनर्वास पैकेज की घोषणा नहीं की जाती, तब तक केवड़िया कॉलोनी के लिए अधिग्रहित भूमि पर यथास्थिति को बनाया रखा जाना चाहिए।

कुछ आदिवासी मशहूर केवड़िया कॉलोनी के हाशिए पर लगातार विस्थापन के खतरे का सामना करते हुए अब भी अपना गुज़र-बसर कर रहे हैं। फोटो oralhistorynarmada.in के सौजन्य से

अब भी देख रहे हैं पुनर्वास की राह

हालांकि, ऐसा कोई पुनर्वास पैकेज अभी तक घोषित नहीं किया गया है और शुरू में सरदार सरोवर परियोजना के लिए अधिग्रहित आदिवासी भूमि का उपयोग अब सरदार पटेल की प्रतिमा के इर्द-गिर्द पर्यटन गतिविधियों के लिए किया जा रहा है। कपिलाबेन अपने साक्षात्कार में कहती हैं, “हालांकि, सरकारी आदेश (जीआर) में साफ तौर पर कहा गया था कि उपयोग में नहीं लाई गई भूमि का इस्तेमाल अन्य उद्देश्यों के लिए नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन, इसके बावजूद इन ज़मीनों को इनके असली मालिकों को वापस नहीं दिया गया। हमारे पुरखों की ज़मीन सरकार ने हमसे छीन ली थी…और इसके बदले में हमें दूसरी ज़मीन दिए जाने का वादा किया गया था, लेकिन अभी तक कुछ भी नहीं किया गया है, और उन्होंने हमारी किसी भी समस्या का कोई समाधान नहीं किया है।”

केवड़िया कॉलोनी से विस्थापित किए गए आदिवासी मुश्किलों भरा जीवन जीने के लिए मजबूर हैं। उनमें से बहुत से आदिवासी तो कई परियोजना अधिकारियों के घरों में घरेलू सहायक के रूप में काम करते हैं। कपिलाबेन बताती हैं कि कुछ विधवा महिलाएं तो अपने गुज़ारे के लिए अवैध तरीके से शराब बनाती हैं (क्योंकि गुजरात में शराबबंदी है), और पकड़े जाने पर उनके मिट्टी के बर्तनों को तोड़ दिया जाता है और पुलिस उन्हे पीटती है।

उनका लंबा संघर्ष अब भी जारी है। आंदोलन की वजह से ही अब तक आदिवासियों को यहां से पूरी तरह से बेदखल नहीं किया गया है। लेकिन वे लगातार विस्थापन के खतरे का सामना करते हुए, इस मशहूर केवड़िया कॉलोनी के हाशिये पर गुज़र-बसर करने को मजबूर हैं। आदिवासियों के पुरज़ोर संघर्ष के कारण अधिकारी भी सावधानी से कदम उठा रहे हैं।

लेकिन, सच अब भी यही है कि सरदार सरोवर बांध की आवासीय कॉलोनी, केवड़िया कॉलोनी के लिए 1961 में अपनी ज़मीन गंवाने वाले इन छह गांवों के आदिवासी, 60 साल बीत जाने के बाद भी पुनर्वास की राह देख रहे हैं।

नंदिनी ने 12 साल तक नर्मदा बचाओ आंदोलन के साथ एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में काम किया है। यहां व्यक्त किए गए उनके विचार व्यक्तिगत हैं।

(मूल लेख अंग्रेजी में लिखा गया है, जिसका गाँव कनेक्शन ने हिंदी में अनुवाद किया है, अंग्रेजी में लेख पढ़ें)

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