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सौर सिंचाई के जरिए भारत में हो रहा भूजल विकास

भूजल का अधिक या फिर कम इस्तेमाल, दोनों ही स्थितियां जलवायु परिवर्तन के मौजूदा दौर में भारतीय कृषि की अनुकूल क्षमता को सीमित कर रही हैं। पूरे भारत में पैर पसार रहे सौर सिंचाई के तरीके अधिक और कम दोहन वाले दोनों तरह के क्षेत्रों में बेहतर तरीके से भूजल प्रबंधन कर सकते हैं।
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मोहम्मद फैज़ आलम और आलोक सिक्का

भूजल भारत की जल और खाद्य सुरक्षा के लिए सबसे महत्वपूर्ण है। लगभग 50 फीसदी शहरी और 85 फीसदी ग्रामीण भारत अपनी घरेलू पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए भूजल पर निर्भर है। कृषि क्षेत्र के 64 प्रतिशत हिस्से की सिंचाई भूजल के जरिए ही की जाती है, जिसमें 2 करोड़ से ज्यादा कुओं से पानी निकाला जाना शामिल है.

लेकिन स्थिति हमेशा से ऐसा नहीं रही है. जब देश आजाद हुआ था, तो उस समय सिंचाई में भूजल का योगदान 30 फीसद से भी कम था। ज्यादातर खेती बारिश पर निर्भर थी. लेकिन फिर 1960 के दशक की शुरुआत में आधुनिक ड्रिलिंग और पंपिंग तकनीकों ने कदम रखा और सरकार रियायती बिजली जैसी नीतियां लेकर आईं. लोग तेजी से भूजल सिंचाई की तरफ जाने लगे. हरित क्रांति की सफलता के पीछे भी यही कारण था.

भूजल सिंचाई से जहां खेती को काफी फायदा पहुंचा वहीं इसकी अनियंत्रित पहुंच के नकारात्मक परिणाम भी सामने आए. केंद्रीय भूजल बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) के हालिया आकलन से पता चलता है कि मूल्यांकन की गई लगभग एक चौथाई इकाइयों में भूजल विकास अस्थिर है।

ये इलाके मुख्य रूप से उत्तर पश्चिमी और दक्षिणी प्रायद्वीपीय क्षेत्रों में स्थित हैं जहां भूजल सिंचाई में काफी उछाल आया था। इस क्षेत्र में स्थित कुछ जिलों, जैसे पंजाब में पटियाला और कर्नाटक के कोल्लार में भूजल की निकासी काफी ज्यादा है. वह वार्षिक पुनर्भरण से लगभग दोगुनी है।

इसके उलट पूर्वी और मध्य भारत में भूजल दोहन के संसाधनो का इस्तेमाल सीमित रहा है. इसकी वजह अनुपयुक्त इलाके और कृषि के लिए सीमित बिजली नेटवर्क रहा। बाद में यहां भूजल सिंचाई महंगे डीजल पर निर्भर हो गई.

उत्तर-पूर्वी और पूर्वी राज्यों में औसतन भूजल दोहन सिर्फ 25 प्रतिशत रहा है। इस क्षेत्र में सीमित सिंचाई के साथ कृषि अभी भी मानसून की अनिश्चितता पर निर्भर है. यही वजह है कि यहां फसल और उत्पादकता काफी कम है।

भूजल का अधिक या फिर कम इस्तेमाल, दोनों ही स्थितियां जलवायु परिवर्तन के मौजूदा दौर में भारतीय कृषि की अनुकूल क्षमता को सीमित कर रही हैं। भारतीय कृषि का लगभग 50 फीसदी हिस्सा अभी भी वर्षा आधारित है यानी काफी हद तक कम मानसून के मौसम पर निर्भर करता है. यही वजह है कि खेती जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हो जाती है। भारतीय आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के चलते किसानों की आय में 15-25 प्रतिशत की कमी आ सकती है. इसका प्रभाव सिंचाई न करने वाले क्षेत्रों में तो और भी अधिक होगा.

हाल के शोध से पता चलता है कि अस्थिर विकास को सीमित करने के उपायों के बिना भी, पानी की कमी वाले क्षेत्रों में फसलीकरण 68 प्रतिशत तक कम हो सकती है।

सूखी जमीन पर सिंचाई करने के लिए भूजल का इस्तेमाल विश्वसनीय है और किसानों के लिए आसानी से उपलब्ध है. इसी वजह से यह सिंचाई के विस्तार और कृषि लचीलापन का निर्माण करने के लिए मुख्य भूमिका में है। ऐसे में एक सतत भूजल दोहन संसाधनों की तरफ जाना महत्वपूर्ण हो जाता है।सौर सिंचाई के जरिए भारत में सतत भूजल विकास

हाल ही में सरकार की ओर से भूजल प्रबंधन को ध्यान में रखकर चलाए जा रहे कई कार्यक्रमों से पता चलता है कि भूजल दोहन पर काफी ध्यान दिया जा रहा है जिसकी उसे जरूरत भी है।

पंजाब और हरियाणा दो ऐसे राज्य है जहां सबसे अधिक भूजल का दोहन किया जाता है। इन राज्यों ने किसानों को पानी की ज्यादा जरूरत वाली धान की फसलों से दूर जाने के लिए प्रोत्साहन की पेशकश की है। भूजल के अत्यधिक दोहन वाले ब्लॉकों में चलाई जा रही हरियाणा की “मेरा पानी मेरी विरासत” योजना, मक्का और दालों जैसी कम पानी की खपत वाली फसलों को उगाने के लिए किसानों को प्रति एकड़ 7,000 रुपये का प्रोत्साहन दे रही है।

दोनों राज्यों ने चावल की सीधी बुवाई (डीएसआर) के लिए नकद प्रोत्साहन (1,500 रुपये से 4,000 रुपये प्रति एकड़) की भी घोषणा की है. इससे सिंचाई के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले पानी में 15 से 20 प्रतिशत की बचत हो सकती है। पंजाब “पानी बचाओ, पैसे कमाओ” या बिजली में प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटीई) योजना का भी संचालन कर रहा है. अपनी इस योजना के जरिए राज्य सरकार भूजल के इस्तेमाल को कम करने के लिए किसानों को बिजली की खपत में कटौती करने पर नकद भुगतान देती है।

पूरे भारत में धीरे-धीरे आगे बढ़ रही सौर ऊर्जा से की जाने वाली सिंचाई, अधिक और कम दोहन वाले दोनों क्षेत्रों में भूजल के प्रबंधन का अवसर प्रदान कर सकती है। जिन क्षेत्रों में भूजल का अधिक दोहन किया जाता वहां ग्रिड से जुड़े सौर सिंचाई मॉडल भूजल के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करने के लिए एक मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। दरअसल इन क्षेत्रों में किसान उत्पन्न और अप्रयुक्त बिजली को वापस ग्रिड को बेच सकते हैं और लाभ कमा सकते हैं.

यह जल और ऊर्जा के बीच बनी एक अनसुलझी गांठ को सुलझाने का एक अवसर भी हो सकता है। क्योंकि सिंचाई के लिए ऊर्जा सब्सिडी पर अरबों खर्च किए जाते हैं। गुजरात ने इसे सूर्यशक्ति किसान योजना (एसकेवाई) योजना के तहत शुरू किया है। वहीं राष्ट्रीय स्तर पर पीएम-कुसुम (प्रधानमंत्री किसान ऊर्जा सुरक्षा एवं उत्थान महाभियान) योजना का उद्देश्य 10 लाख ग्रिड से जुड़े पंपों के लक्ष्य के साथ आगे बढ़ना है।

यह योजनाएं IWMI-टाटा जल नीति अनुसंधान कार्यक्रम से प्रभावित हैं, जहां दुनिया का पहला सोलर पंप इरिगेटर सहकारी उद्यम गुजरात के धुंडी के एक छोटे से गांव में स्थापित किया गया था. यहां स्थानीय बिजली वितरण समिति के साथ 25 साल के बिजली खरीद समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे।

दूसरी ओर स्टैंडअलोन सौर पंप और सौर सिंचाई सेवा मॉडल, भूजल से समृद्ध पूर्वी भारत के कम भूजल दोहन वाले क्षेत्रों के लिए एक तरीका पेश कर रहे हैं, ताकि वो जमीन से निकलने वाले पानी का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल कर सकें. ये वो क्षेत्र हैं जहां, बिजली या महंगे डीजल की वजह से भूजल का ज्यादा इस्तेमाल नहीं हो रहा है। बिहार में IWMI द्वारा चलाई जा रहे सौर सिंचाई सेवा प्रदाता उद्यमी जैसे व्यावसायिक मॉडल महंगे डीजल पंपों पर निर्भरता को कम करते हुए एक समान सिंचाई सेवा बाजार बना सकते हैं।

कई राज्य कृत्रिम भूजल पुनर्भरण के जरिए भूजल को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान में सभी योजनाएं प्रबंधित जलभृत पुनर्भरण पर केंद्रित हैं. यहां वर्षा के पानी को जमा करके पुनर्भरण बढ़ाने के कई तरीकों को अपनाया जा रहा है.

भारत की महत्त्वाकांक्षी पुनर्भरण योजना में 150 बिलियन क्यूबिक मीटर से अधिक पानी की क्षमता की परिकल्पना की गई है। अंडरग्राउंड ट्रांसफर ऑफ फ्लड्स फॉर इरिगेशन (UTFI) के जरिए बारिश की वजह से इकट्ठा हुए सरप्लस पानी को नदी के बेसिन स्केल की ओर मोड़ना एक अभिनव दृष्टिकोण है. यह बाढ़ और भूजल की कमी के सह-प्रबंधन के लिए यह एक अच्छा प्रयास है।

हाल ही में शुरू की गई एक और प्रमुख अटल भूजल योजना गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में पानी की कमी वाले चुनिंदा क्षेत्रों में चल रही है. यह योजना सही मायने में भागीदारी भूजल विकास पर ध्यान केंद्रित कर रही है।

ये पहल भूजल के प्रबंधन और अदृश्य भूजल को दृश्यमान बनाने की दिशा में एक स्वागत योग्य कदम है. इस साल के विश्व जल दिवस का विषय भी यही था। हालांकि, इन कार्यक्रमों के कार्यान्वयन के संबंध में कई चुनौतियां और मसले बने हुए हैं।

उदाहरण के लिए, किसानों की बाजार तक पहुंच की कमी के चलते फसल विविधीकरण योजनाओं का उपयोग सीमित रहता है। इसी तरह से बिजली और सौर सिंचाई के लिए प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण परिचालन संबंधी मुद्दों की वजह से आगे नहीं बढ़ पाता है. किसान प्रोत्साहन के बावजूद डीएसआर अपनाने के इच्छुक नहीं हैं। यह कार्यान्वयन में किसानों की शंकाओं, गलत धारणाओं और संस्थागत चुनौतियों का परिणाम है।

यह दर्शाता है कि तुरंत कोई सुधार नहीं होता है। दशकों पुरानी समस्याओं के लिए तकनीकी समाधानों के साथ संचार, पहुंच और व्यवहार में बदलाव को शामिल करते हुए एक समग्र दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत होगी।

इसके अलावा हमें इन योजनाओं की प्रभावशीलता का आकलन करने के लिए वैज्ञानिक रूप से मजबूत और समय पर मूल्यांकन करने की जरूरत है। जलवायु परिवर्तन के इस अभूतपूर्व युग में जब हम तेजी से आगे की ओर बढ़ रहे हैं तो इससे नीतियों और कार्यक्रमों को सीखने में मदद मिलेगी। राष्ट्र की खाद्य और जल सुरक्षा के लिए सतत और लचीला भूजल पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण होगा।

आलोक सिक्का इंटरनेशनल वाटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट- इंडिया में देश के प्रतिनिधि हैं और मोहम्मद फैज़ आलम IWMI – भारत में जल संसाधन – कृषि जल प्रबंधन के एक शोधकर्ता हैं. इनके विचार व्यक्तिगत हैं।

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