'हमारी यादों का गाँव जो है वो हम साथ लेकर चलते हैं'

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हमारी यादों का गाँव जो है वो हम साथ लेकर चलते हैं

साल 2004 में आई फिल्म रन से बॉलीवुड में अपने कॅरियर की शुरुआत करने वाले पंकज त्रिपाठी आज किसी पहचान की मोहताज नहीं हैं। हाल में आई वेब सीरीज मिर्जापुर ने उनके अभिनय को नये मुकाम पर पहुंचा दिया है। पिछले दिनों पंकज त्रिपाठी जब लखनऊ आए तो उनके और देश के सबसे चहेते स्टोरीटेलर नीलेश मिसरा के बीच गाँव कुनौरा में बतकही का एक रोचक दौर चला। पंकज त्रिपाठी ने अपने गाँव कनेक्शन के बारे में खूब बातें कीं। 'द स्लो इंटरव्यू विद नीलेश मिसरा' में मेहमान बने पंकज त्रिपाठी के साथ इस ख़ास इंटरव्यू का पेश है पहला भाग...

नीलेश मिसरा : मुझे अपने गाँव कनेक्शन के बारे में बताइए।

पंकज त्रिपाठी : मेरा गाँव कनेक्शन यही है कि जबसे मैंने आपके गाँव के उस चबूतरे की फ़ोटो देखी है, सफ़ेद और काले टाइल्स पर बच्चे बैठे थे।

नीलेश मिसरा : जहाँ जा रहे हैं अभी ...

पंकज त्रिपाठी : जहाँ अभी जा रहे हैं। फिर पिछली किसी दिवाली के दिन की फ़ोटो, बच्चे के साथ खेतों में थे आप...

तो मेरा गाँव कनेक्शन ऐसा है ना कि मैं फँसा रहता हूँ गाँव में ही, निकल ही नहीं पाता हूँ। और अच्छी बात है। फँसा रहना नहीं कहूँगा मैं, जुड़ा रहना कहूँगा।

नीलेश मिसरा : आपका गाँव कहाँ है?

पंकज त्रिपाठी : गोपालगंज एक डिस्ट्रिक्ट है, बिहार में गोरखपुर से आगे पड़ता है गोपालगंज। गोपालगंज से भी 26 किलोमीटर दूर इंटीरियर में गाँव है ... बेलसंद नाम है गाँव का।

नीलेश मिसरा : वहीं आपका जन्म हुआ?

पंकज त्रिपाठी : वहीं पर जन्म हुआ, दसवीं तक वहीं पढ़ाई-लिखाई हुई। चलना, कूदना, तैरना, गिरना सब वहीं सीखा है।



नीलेश मिसरा : पेड़ पर चढ़ना, तालाब में नहाना!

पंकज त्रिपाठी : हाँ, पेड़ पर चढ़ना, तालाब में नहाना ... नदी है मेरे घर के पीछे। सब कुछ वहीं हुआ है।

नीलेश मिसरा : गाँव के कुछ अच्छे अनुभव, याद हों जो आपको?

पंकज त्रिपाठी : बहुत सारे अनुभव हैं। मतलब याद क्या कहें, साथ लेके चलते है वो तो। बचत खाता में सिर्फ़ स्मृतियाँ हैं वहाँ की। बतौर अभिनेता भी मेरे बहुत सारे किरदार मेरे गाँव के लोग हैं या उनसे थोड़े-बहुत इंस्पायर्ड हैं। एक मधुसूदन बाबा थे उनसे; एक मेरे मास्टर थे स्कूल में उनके कुछ एलिमेंट्स लेकर निल बट्टे सन्नाटा के मास्टर में मैंने कर लिया। मैं तो ये बोलता भी हूँ कि शहरों में भले हम खर्च हो रहे हैं, लेकिन इन्कमिंग जो है, स्रोत जो है, जो फिक्स डिपोजिट आता है वो गाँवों से ही आता है। वो चाहे अन्न हो, भले बाजार शहर में हैं लेकिन जो रोटी, जो अन्न उपजता गाँव में ही है। वैसे ही मेरी जो उपज है न, जो भी मेरे पास दुनिया जहान का अनुभव संसार है, सब मेरा गाँव वाला है। मुझे इसीलिए रेणु जी बहुत पसंद हैं; फनीश्वरनाथ रेणु। अद्भुत लिखते हैं वो!

नीलेश मिसरा : मुझे लगता है कि जैसा मैंने कहनियाँ रेडियो पर सुनाना शुरू किया उसके बाद से, जैसे छोटा शहर है; छोटा शहर तो बहुत बदल गया। लेकिन हमारे मन में जो छोटा शहर है वो एक द्वीप है यादों का, उसको हम सम्हाले रहते हैं। उसको जिन्दा रखते हैं। छोटे शहर में आप आये हो वही लोग चालीस-पचास लाख की गाड़ी में लोग घूमते मिलेंगे, वही शॉपिंग मॉल के अन्दर घुस जायेंगे तो नहीं जान पायेंगे कि ए शहर में हैं या बी शहर में। लेकिन आपके दिमाग का वो छोटा शहर जहाँ अभी भी चाय की पत्ती लेने पड़ोस के घर आप जा सकते हैं। और वही मुझे लगता है कि गाँव के बारे में भी है। गाँव को लेकर हमारी जो परिकल्पना है, हमारे मन का गाँव है, वो हम साथ लेकर चलते हैं। गाँव तेजी से बदल रहे हैं।

पंकज त्रिपाठी : बहुत तेजी से बदल रहे हैं। क्या बात है 'यादों का द्वीप' कितने सुंदर शब्द बोले। एक किसी की कविता थी- जैसे आम के अंदर नहीं रहा आम, जैसे लखनऊ के अंदर नहीं रहा लखनऊ ... वैसे ही गाँव के अंदर अब नहीं रहा अब गाँव।

पर फिर भी हमारी यादों का गाँव जो है वो हम साथ लेकर चलते हैं। बाजारवाद तो धीरे-धीरे पाँव पसार ही रहा है। मेरे गाँव में मुझे नहीं याद कि नीम का दतून कितने बच्चे करते हैं। अब सब जगह टूथपेस्ट और ब्रश पहुँच चुके हैं। मैं जब भी गाँव जाता हूँ, नीम का दतून ही चाहिए मुझे। हम तो बॉम्बे में भी खोज रहे थे। मेरे घर में खटिया है बॉम्बे में, लकड़ी का कठौत है। हमारी पत्नी को भी इन सब चीजों का शौक है, तो हमने वहाँ सील, बट्टा, ओखल, मूसल सब इकट्ठा कर रखा है। वो वही है, द्वीप यादों का! आप अपना गाँव अपने साथ रखना चाहते हैं, भले अब गाँव में वो चीजें विलुप्त हो रही हैं तेजी से।

नीलेश मिसरा : गाँव तो बदल गया, पर हम तो ना बदलें उतनी तेजी से। ये जो आपने बताया मधुसूदन जी के बारे में; तो और बताइए ना मुझे उन लोगों के बारे में।

पंकज त्रिपाठी : बहुत सारे बाबा लोग थे मेरे गाँव में। एक रघुनाथ बाबा थे, पंडित जी! मैंने अभी एक स्त्री फिल्म आई थी, स्त्री फिल्म में एक जगह बोलता हूँ मैं कि "मैं साहित्याचार्य, संगीताचार्य, त्रिकालदर्शी, वेद-विषारद, अर्थशास्त्री सारी डिग्रियां हैं मेरे पास"

ये लाईन दरअसल रघुनाथ बाबा बोलते थे अपने परिचय में। बाबा परिचय बताइए तो बड़ा लम्बा इंट्रो देते थे। तुम जानते हो सालो मैं कौन हूँ?

और वो बोलते थे- साहित्याचार्य, संगीताचार्य, त्रिकालदर्शी, पंडित रघुनाथ शास्त्री मल्लिक!

उनके तो किस्से थे, बाप रे बाप! बोलते थे उधर जाता हूँ मैं तो अब स्वर्ग लोक में। इन्द्रासन में दरबार सज जाता है और अप्सराएँ जो हैं मेनका और उर्वशी! वो मना कर देतीं हैं इंद्र को कि नो! प्रोग्राम नहीं होगा| पूछो क्यूँ नहीं होगा, बोलती हैं रघुनाथ शास्त्री चाहिए हारमोनियम पर। तो ऐसे बोलते थे बाबा बातें कि हम हारमोनियम पर बैठ जाएँ तब अप्सराएँ नाचतीं हैं। ऐसे नहीं होता, प्रोग्राम बंद हो जाता है ऊपर। हम सारे बच्चे उमड़ कर जाते थे रघुनाथ बाबा के पास कि कुछ तो मिलेगा, मजा आता था। ऐसी कहानियाँ सुनाते थे वो। घूर ताप रहे हैं हम लोग, आग जली है शाम को और वो बात कर रहे हैं इन्द्रासन की! कि मैं हारमोनियम बजाने जाता हूँ।


नीलेश मिसरा : क्या कल्पना है! अमेजिंग!

पंकज त्रिपाठी : मुझे याद है उनके घर पर दरवाजे पर जामुन का पेड़ था। और एक बार वो बैंक से कुछ लोन लिए थे, छोटा-मोटा| तो वो जामुन तोड़ने पेड़ पर चढ़े थे और नीचे लोग आ गये दरवाजे पर तो वहीं से जामुन खा रहे हैं और गुठली फेंक रहे हैं उन लोगों पर, नीचे।

वैसे ही मधुसूदन बाबा। अब तो नहीं रहे, रघुनाथ बाबा भी नहीं रहे। छोटे थे तब बचपन में देखते थे इन लोगों को, इनकी कहानियाँ सुनते थे। घंटों बैठकर बिना मतलब की बातें हो रही हैं, लोग हंस रहे हैं और मनोरंजन हो रहा है।

नीलेश मिसरा : तब सपने क्या थे? क्या बनना चाहते थे?

पंकज त्रिपाठी : मैं परसों इसी सड़क से जा रहा था, आगे से दाहिने मुड़ते हैं बिस्वा के लिए तो छोटी सड़क आती है। सुबह के 6 बजे। मुझे ट्रैक्टर दिखा एक। कोहरा सा था यहाँ थोड़ा, और ट्रैक्टर देखते ही मुझे आपका ये सवाल याद आया कि बचपन में मेरा ड्रीम तो एक ट्रैक्टर खरीदना था। गाँव में मेरे घर पर गायें रहतीं थीं, बैल नहीं था। हल जोतने के लिए दूसरों का ट्रैक्टर आता था तो मैं सोचा कि अरे गाँव में जो पंकज था उसका ड्रीम तो एक ट्रैक्टर खरीदना था। और मैं तो अब खरीद सकता हूँ लेकिन अब उस गाँव और खेत से दूर हो चुका हूँ तो क्या करूँगा ट्रैक्टर लेके। मैंने सोचा कितने साधारण, सामान्य से ड्रीम थे कि एक ट्रैक्टर खरीद लें, और गाँव में खेती थोड़े अच्छे से हो जाए। हमने कहाँ सोचा था कि अभिनेता बनूँगा, बिल्कुल नहीं सोचा था। प्लस टू तक पता नहीं था कि अभिनेता बनना है, ग्रेजुएशन में आकर लगा कि ये काम अच्छा है, इसमें मन लग रहा है। यही करूँ क्या? और फिर रस्ते बनते गए।

मैं अकेला कितने लोगों को रिप्लाई करूँगा फेसबुक पर मैसेज का, लेकिन आये दिन लोगों के मैसेज आते हैं कि हमें गाइड करो, एक्टर बनना है, एक्टिंग में जाना है। मुझे लगता है हमारे जमाने में गूगल भी नहीं था, हमने कैसे रास्ते ढूंढ लिए? कि पैसे नहीं हैं एक्टिंग की ट्रेनिंग लेनी है तो पता करते-करते मालूम चला नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा फ्री में सिखाती है, तो अब इसमें कैसे होगा? ग्रेजुएशन करना होगा। जब मुझे मालूम चला कि एनएसडी में ग्रेजुएशन करना होता है तब जाकर मैंने ग्रेजुएशन शुरू की थी। वरना पढ़ाई छोड़ दी थी। प्लस टू के बाद मेरी पढ़ाई खत्म हो चुकी थी।

नीलेश मिसरा : एक्टिंग कर पायें इसलिए पढ़ाई की?

पंकज त्रिपाठी : हाँ, इसलिए मैंने बोला कि अब ग्रेजुएशन करना पड़ेगा, क्योंकि इसके बगैर तो वहाँ जा नहीं सकते। प्लस टू मैंने बायो से किया था, बाबूजी डॉक्टर बनाना चाहते थे और प्लस टू के बाद दो अटेम्पट में डॉक्टरी नहीं हुई, मेडिसिन में। बिहार का जो टेस्ट था, तो पढ़ाई छूट सी गयी मेरी। मैं छात्र राजनीति में लग गया। थिएटर करने लगा तो पता चला भाई ड्रामा स्कूल में तो ग्रेजुएशन चाहिए और मैं तो दो साल से पढाई छोड़ चुका हूँ। फिर वापस गया और मैंने हिंदी से ग्रेजुएशन किया, सिर्फ़ इसलिए कि ड्रामा स्कूल की परीक्षा दे पाऊं। और उसके बाद ड्रामा स्कूल में दो एटेम्पट का फेलियर, तीसरी बार में सेलेक्ट हुआ। जिस दिन सोचा कि एक्टिंग करनी है, ड्रामा स्कूल जाना है, उस दिन से मुझे 6 साल लगे ड्रामा स्कूल जाने में।

नीलेश मिसरा : लेकिन छोड़ा नहीं...

पंकज त्रिपाठी : छोड़ा नहीं, वो शायद उस गाँव की वजह से है। एक बात अक्सर मैं बोलता हूँ कि जब आपकी नदी में ब्रिज न हो और नाव न हो तो आप तैरना सीख जाते हैं।



नीलेश मिसरा : ये मैंने आपसे जो सवाल पूछा, कि आप बचपन में क्या सपना देखते थे? मुझे याद आया मेरे पिताजी की एक किताब है, उनकी जिन्दगी के बारे में ... उसका नाम है ड्रीम चेजिंग! बड़ी अद्भुत कहानी है पिताजी की। वो 12 किलोमीटर पैदल आते थे क्योंकि पढ़ने की भूख थी और जैसा उस समय माहौल भी था। फिर 12 किलोमीटर पैदल जाते थे। उनका सपना था कि एक स्कूल बनाऊं मैं ताकि और बच्चों को न जाना पड़े, तो अभी जहाँ जा रहे हैं हम वो उसी सपने का नतीजा है। जिसने हजारों-हजारों तीस चालीस हजार बच्चों की, महिलाओं की जिन्दगी बदली। उनको वहीं पर पढ़ाई मिली।

वो बताते हैं कि उनके स्कूल में एक सर्वे किया गया था कि बड़े होने पर आपका सबसे बड़ा सपना क्या है? वो उन्होंने अपनी किताब में लिखा है कि मैंने लिखा था, मलेरिया इंस्पेक्टर! ये उनका सबसे बड़ा सपना था। जब वो लखनऊ यूनिवर्सिटी आये तो फिजिक्स में दाखिला लिया। तो लॉज ऑफ़ रिफ्लेक्शन पढ़ाते हुए टीचर ने पूछा कि जब लाइट आती है तो लाइट शीशे पर पड़ती है या चेहरे पर पड़ती है? अब उनको तो पता ही नहीं था, क्योंकि उनके पास तो शीशा ही नहीं था घर पर। न वो बाल कंघी करके आते थे। तो वहाँ से आये थे वो... लेकिन फिर आगे फेलोशिप मिली, कनाडा गये, जिन्दगी में पहली बार हवाई जहाज में चढ़े। वहाँ एक डिस्कवरी की फॉसिल्स की जिससे डार्विन का जो सिद्धांत था इवोलुशन का, उसमें एक जगह प्रश्न चिन्ह था। उस प्रश्न चिन्ह का जवाब पापा की डिस्कवरी ने दिया। मैं कोई फिल्म वगैरह बनाना चाहता हूँ उनकी लाइफ़ पर। उसके बाद उनका क्रेडिट गोरों ने छीन लिया। उसके बाद वापिस यहाँ आ गये। माताजी कभी गाँव गयीं नहीं थी, वो यहाँ स्कूल में टीचर थीं, तो जब पापा मिले माताजी से तो इस बहाने से मिले कि मुझे एडमिशन करवाना है अपने भाई का। ये करके माताजी से मिले शादी के सन्दर्भ में, तब के लिए बड़ा प्रोग्रेसिव था अर्ली 70's के लिए।

तो बोले कि जी मेरा ये सपना है कि मुझे गाँव में स्कूल खोलना है। माँ ने कहा ठीक है। उनकी ये शर्त थी कि उसी लडकी से शादी करूँगा जो गाँव में स्कूल बनाने में मदद करे।

अब साहब ट्रक में बैठे, पीछे पालकी ट्रक में और आगे ये मियां-बीवी, और इतना लम्बा घूँघट। उस दुनिया में पहुँची जहाँ सांप हैं, बिच्छू है, घोर अंतर हैं जाति के आधार पर, मतलब अलग ही दुनिया, लखनऊ से सिर्फ़ 60 किलोमीटर दूर, बिजली नहीं है, पानी नहीं है, वहाँ शादी के एक महीने के अंदर एक झोपड़ी बना दी। झोंपड़ी के लिए कनाडा से जो पैसे कमाए थे उससे जमीन खरीदी, और उसका नाम रखा, 'भारतीय ग्रामीण विद्यालय' सिर्फ़ एक झोंपड़ी थी। और माताजी पूरे एरिया में गईं कि आप एक मुट्ठी अनाज मुझे दे दीजिये, आप पैसे नहीं दे पायेंगे स्कूल के लिए ये मैं जानती हूँ, लेकिन ये आपका योगदान है स्कूल के लिए कि आपने कुछ दिया इस स्कूल के लिए।

अच्छा पहली बार शहर की महिला आ रही है तो वो प्रिंसिपल बन गयीं। पैसे खत्म हो गये तो पिताजी को जाना पड़ा। नौकरी में जाना पड़ा, वरना घर कैसे चलेगा, तो ये हुआ कि प्रिंसिपल साहब जो आईं थीं शहर से वो ज्यादा मशहूर हो गयीं गाँव में, बजाय उनका जो अपनी जमीन का बेटा था।

तो वो जो एम्बिशन, जो तपस्या कहीं न कहीं, जो हमें डीएनए में मिला; मुझे और जो मेरा भाई शैलेश है, वो वहीं से आया। वही जो आप कह रहे हैं कि ऊर्जा का एक प्रीपेड कार्ड मिलता है हमको, उसी से हम खर्च करते रहते हैं। अब हर उसका है कि आपका परिवार, आपके संस्कार, आपकी जड़ें कितनी मजबूत रहीं, और आप उसको कितना सींचते रहे बीच-बीच में, चाहे वहाँ जा पाए या ना जा पाए लेकिन वो जिन्दा रहा।

आपकी बातें सुनकर मुझे अपनी सब बातें याद आ रही हैं, तो उस समय कोई एज सच ड्रीम नहीं था फिर?

पंकज त्रिपाठी : कुछ नहीं! मतलब यही था कि बस एक ट्रैक्टर हो जाए ताकि खेती में परेशानी न हो, और थोड़ी प्रतिष्ठा भी हो जाए ट्रैक्टर होने से कि इन लोगों के यहाँ बैल नहीं है, ट्रैक्टर है, गाय तो थी ही दूध के लिए। बाबूजी पंडित थे तो पूजा-पाठ कराते थे, मैं भी उनके साथ एकाध बार गया हूँ। मैं पहली बार सिनेमा हॉल अंदर से पूजा में ही देखा था। बसंत टॉकीज नाम था थिएटर का। बाबूजी पूजा करा रहे थे तो मुझे ले गये थे, तुम भी चलो। फिल्म पहली बार रिलीज होनी थी वहां, तो पूजा करनी थी। जय संतोषी माँ फिल्म स्क्रीन होनी थी। जय संतोषी माँ पुरानी थी, पर बात मुझे लगता है 80 की होगी। चूंकि धार्मिक फिल्म है तो थिएटर की ओपनिंग इस फिल्म से कर रहे थे। उस पूजा के बाद हम बैठे थे, हम पहली बार सिनेमा देखे थे। भई पंडित जी का लड़का है, तो कहाँ सोचे थे कि हम भी कभी सिनेमा का हिस्सा बनेंगे, सिनेमा करेंगे।

वही जो आपने बोला न, प्रीपेड कार्ड मिलता है।

आजकल मैं देखता हूँ बच्चे, लोग बहुत जल्दी परेशान हो जाते हैं, उन्हें लगता है कुछ नहीं हो रहा, छः महीने साल भर में, पर पता नहीं हमारे अंदर वो गाँव का, माँ-बाप का दिया हुआ है।

मुझे याद है तीन सौ रुपये के दो एलिमेंट आते हैं ट्यूबवेल में, तीन सौ रुपये का सामान था। उसके लिए मैं और बाबूजी खेतों में जाकर सोते थे कि कोई खोल ना ले रात को। तीन से चार महीने जब तक वो खेत में होता था तब तक हम और बाउजी वो खटिया लिए और वहीं सोये। सर्दियों के मौसम में वहाँ एक झोपड़ी बनती थी, बड़ी छोटी-सी, पुआल की। बड़ी कोजी लगती थी वो। उसमें मैं और बाबूजी कम्बल लेके रात को सो रहे हैं। क्यूँ जी? वो तीन सौ रुपये का सामान कोई खोल ने ले जाए रात में।

(प्रस्तुति: दीक्षा चौधरी)

देखिए इंटरव्यू का वीडियो


   

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