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मध्य प्रदेश में लकड़ी की ‘तस्करी’ के आरोप में एक आदिवासी चैन सिंह भील की गोली मारकर हत्या कर दी गई; कहां है वन अधिकार अधिनियम?

9 अगस्त को जब दुनिया भर में विश्व आदिवासी दिवस मनाया जा रहा था, तब मध्य प्रदेश के विदिशा में वन रक्षकों की एक गश्ती दल ने आदिवासियों के एक समूह पर गोलियां चला दीं। इस घटना में एक आदिवासी युवक की मौके पर ही मौत हो गई और चार अन्य घायल हो गए। इसके पीछे क्या कारण था? लागू किया गया वन अधिकार अधिनियम 2006 कहां है? पढ़िए एक ग्राउंड रिपोर्ट।
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लटेरी (विदिशा), मध्य प्रदेश। भारत में लगभग 30 करोड़ लोग वनवासी हैं और इनमें से ज्यादातर अपनी आजीविका के लिए वन उत्पादों पर निर्भर हैं। मध्य प्रदेश के रायपुरा गाँव के तीस साल के चैन सिंह भील भी ऐसे ही एक वनवासी थे।

पिछले महीने नौ अगस्त की रात चैन सिंह भील चार अन्य आदिवासी ग्रामीणों के साथ विदिशा जिले के लटेरी वन क्षेत्र से कथित तौर पर लकड़ी इकट्ठा कर अपने घर लौट रहे थे। इन सभी पांचों आदिवासियों को उनके गाँव से लगभग आठ किलोमीटर दूर खट्टापुरा गाँव के पास राज्य वन विभाग के एक गश्ती दल ने रोक लिया।

उनके बीच कहा-सुनी हुई। गश्ती दल के सदस्यों का दावा है कि आदिवासी ग्रामीण जंगल से लकड़ी की तस्करी कर रहे थे और उन पर पथराव करने लगे। अपने बचाव में वन रक्षकों को गोलियां चलानी पड़ीं।

चैन सिंह भील की मौके पर ही मौत हो गई, जबकि चार अन्य आदिवासी – सुनील भील, महेंद्र भील, रोडजी भील और भगवान सिंह – घायल हो गए और उन्हें इलाज के लिए अटल बिहारी वाजपेयी सरकारी मेडिकल कॉलेज, विदिशा ले जाया गया।

चैन सिंह भील की पत्नी और तीन बच्चे। सभी फोटो: सतीश मालवीय

चैन सिंह भील की पत्नी और तीन बच्चे। सभी फोटो: सतीश मालवीय

चैन सिंह के परिवार में उनकी पत्नी और चार छोटे बच्चे हैं। घर में वह अकेले कमाने वाले थे।

चैन सिंह की विधवा ने गाँव कनेक्शन को बताया, “मेरे पति को मार दिया गया है। कुछ भी उन्हें वापस नहीं ला सकता है। मैं परेशान हूं, अब अपने बच्चों को कैसे पालुंगी… मैं बस प्रार्थना कर रही हूं कि मेरे पति की आत्मा को शांति मिले। न्याय मिलने पर ही उनकी आत्मा को शांति मिलेगी।”

लाखों आदिवासी और वनवासी परिवारों के लिए देश में वन और वन संसाधनों तक पहुंच को लेकर होने वाला संघर्ष एक हर दिन की सच्चाई है।

अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 को वन अधिकार अधिनियम या एफआरए के रूप में जाना जाता है। यह कानून अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के साथ वन अधिकारों और वन भूमि में कब्जे को कानूनी रूप से मान्यता देता है। लेकिन देश भर में सैकड़ों हजारों आदिवासी परिवारों को अभी भी उनके अधिकारों की औपचारिक मान्यता नहीं मिली है। एफआरए ग्राम सभाओं को वनभूमि का प्रबंधन और शासन करने का अधिकार भी देता है, लेकिन इस कानून का सही ढंग से पालन नहीं किया जाता है।

मृतक चैन सिंह भील के पिता सरदार सिंह।

मृतक चैन सिंह भील के पिता सरदार सिंह।

जनजातीय मामलों के मंत्रालय के दस्तावेज बताते हैं कि 2006 में वन-निवासी समुदायों के अधिकारों की रक्षा के लिए इस कानून के लागू होने के बाद से, देश भर में आदिवासियों द्वारा कुल 4,429,008 दावे किए गए हैं।

जैसा कि आदिवासी मामलों के मंत्रालय के आंकड़ों बताते हैं कि 53.06 प्रतिशत के साथ मध्य प्रदेश देश भर में वन अधिकार अधिनियम के कार्यान्वयन में खारिज किए गए दावों की दूसरी सबसे बड़ी संख्या के लिए जिम्मेदार है। उससे पहले छत्तीसगढ़ का नंबर आता है जिसने 426,885 (46.51 प्रतिशत) दावों को खारिज किया है।

इनमें से 2,234,247 दावे (2,132,172 व्यक्तिगत और 102,075 सामुदायिक अधिकार) वितरित किए जा चुके हैं। इसका मतलब है कि 50.44 फीसदी दावों को या तो खारिज कर दिया गया है या वे अभी भी सत्यापित होने की प्रक्रिया में हैं।

मध्य प्रदेश में, इस वर्ष 28 फरवरी तक, आदिवासी निवासियों द्वारा दायर कुल 627,513 उपाधियों (व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकार) में से 294,585 ऐसी उपाधियाँ वितरित की जा चुकी हैं। यानी करीब 47 फीसदी दावों का निपटारा होना बाकी है।

“हमें वन विभाग (वन विभाग) से लगभग दस बीघा (लगभग एक हेक्टेयर) भूमि का दावा करना है। जब भी हम इसकी खेती करते हैं, वन अधिकारी इसे अवैध बताते हैं और हमारी फसलों को नष्ट कर देते हैं। चैन सिंह भील के चाचा भंवर सिंह ने गाँव कनेक्शन को बताया कि हम दावा करने में असमर्थ हैं [एफआरए के तहत] क्योंकि आवेदन प्राक्रिया (आवेदन प्रक्रिया) रुकी हुई है।

लटेरी वन क्षेत्र में गोलीबारी के दो दिन बाद 11 अगस्त को गाँव कनेक्शन घायलों से मिलने विदिशा मेडिकल कॉलेज पहुंचा। घायल ग्रामीणों में से एक भगवान सिंह ने गाँव कनेक्शन को बताया, “लगभग 500 लोगों की आबादी वाले गाँव (रायपुरा) में रहने वाले हर व्यक्ति के लिए जंगल से लकड़ी इकट्ठा करना आमदनी का एकमात्र जरिया है…. वन अधिकारियों ने बिना किसी चेतावनी के हम पर गोलियां चला दीं। हमने एक दोस्त को खो दिया है।”

हालांकि वन अधिकारियों ने ऐसे सभी आरोपों को खारिज किया है। गोली चलाने की घटना के एक दिन बाद जिला वन अधिकारी (डीएफओ) राजवीर सिंह ने एक प्रेस बयान में संवाददाताओं से कहा कि आदिवासी अवैध रूप से लकड़ी की तस्करी कर रहे थे और गश्त करने वाले दल ने अपने बचाव के लिए गोलीबारी का सहारा लिया था।

डीएफओ ने कहा, “जब गश्ती दल को तस्करों के बारे में पता चला तो वो जंगलों की ओर भागा। तस्करों ने वन कर्मचारियों पर हमला किया, जिसके बाद उन्होंने अपने बचाव के लिए अपने हथियारों का इस्तेमाल किया। इस वजह से एक स्थानीय निवासी की मौत हो गई और तीन अन्य घायल हो गए।”

विदिशा में आदिवासी समुदाय के आक्रोश के बाद राज्य सरकार के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने इस घटना पर खेद व्यक्त किया और 10 अगस्त को मृतकों और घायलों के लिए मुआवजे की घोषणा की।

मंत्री ने प्रेस को जानकारी दी, “डीएफओ राजवीर सिंह का तबादला कर दिया गया है। आदिवासियों पर गोली चलाने के आरोपी पेट्रोलिंग दल के सदस्यों को निलंबित कर दिया गया है। साथ ही उनके खिलाफ हत्या का मामला भी दर्ज किया गया है। मृत व्यक्ति के परिजन 2,500,000 रुपये के मुआवजे के हकदार हैं, जबकि घायलों को 500,000 रुपये का भुगतान किया जाएगा। “

वन संसाधनों के आसपास बढ़ते संघर्ष

2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में जनजातीय आबादी 10. 4 करोड़ थी, जो देश की आबादी का 8.6 प्रतिशत है। आदिवासी समुदाय भोजन और अपनी आजीविका के लिए जंगलों पर बहुत ज्यादा निर्भर हैं।

आदिवासी समुदायों के अलावा, बड़ी संख्या में पारंपरिक वनवासी अपनी आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर हैं। राज्य सभा की फरवरी 2019 की ‘स्टेटस ऑफ फोरेस्ट इन इंडिया’ शीर्षक वाली रिपोर्ट संख्या 324 के अनुसार, देश में लगभग 30 करोड़ आदिवासी, अन्य पारंपरिक वनवासी और ग्रामीण गरीब मुख्य रूप से वन संसाधनों से अपना गुजर बसर करते हैं।

एक वैश्विक गठबंधन, राइट्स एंड रिसोर्सेज इनिशिएटिव द्वारा जुलाई 2015 में प्रकाशित एक रिपोर्ट, ‘पोटेंशियल फॉर रिकग्निशन ऑफ कम्युनिटी फॉरेस्ट रिसोर्सेज राइट अंडर इंडियाज फॉरेस्ट राइट एक्ट’ में उल्लेख किया गया है कि भारत में वनवासियों द्वारा कम से कम 400,000 वर्ग किमी या 56.5 प्रतिशत वन का उपयोग किया जाता है। लेकिन उनके पारंपरिक अधिकारों को मान्यता नहीं दी जाती है, जिसके कारण अक्सर आदिवासी समुदायों और राज्य के वन विभागों के बीच झड़पें होती हैं।

मध्य प्रदेश की कुल जनसंख्या 72,627,000 है। इसमें से आदिवासी निवासियों की जनसंख्या 15,317,000 दर्ज की गई है, यानी 21.10 प्रतिशत की हिस्सेदारी।

इसके अलावा भारतीय राज्यों में आदिवासी आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा – 14.70 प्रतिशत भी मध्य प्रदेश में रहता है।

आदिवासी मंत्रालय के आंकड़ों से पता चलता है कि एफआरए के कार्यान्वयन को लेकर ट्रैक रिकॉर्ड खराब बना हुआ है। एफआरए की अस्वीकृति की संख्या के मामले में मध्य प्रदेश दूसरे नंबर पर आता है। छत्तीसगढ़ 426,885 अस्वीकृतियों के साथ सबसे आगे बना हुआ है। मध्य प्रदेश के बाद कर्नाटक (272,320), महाराष्ट्र (202,600), ओडिशा (183,492) और तेलंगाना (109,448) का नंबर आता है।

जबलपुर उच्च न्यायालय में आदिवासी हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले एक वकील राहुल श्रीवास्तव ने गांव कनेक्शन को बताया, “मध्य प्रदेश सरकार एफआरए (वन अधिकार अधिनियम) को लागू करने में विफल रही है। यह कानून वन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी समुदायों के हितों की रक्षा करता है।”

अधिवक्ता ने कहा, “ये समुदाय प्राचीन काल से जंगलों के अंदर रह रहे हैं और इन कानूनों को लागू करने में राज्य की विफलता ने इन आदिवासी निवासियों को शिकारियों और तस्करों की दया पर छोड़ दिया है, जो उन्हें अवैध रूप से वन संसाधनों की आपूर्ति के लिए काम पर लगाते हैं।”

वकील ने कहा, “अपने खराब सामाजिक-आर्थिक विकास के चलते इन आदिवासी समुदायों के पास स्थानीय वन उपज पर निर्भर रहने के अलावा आय का कोई अन्य स्रोत नहीं है। ऐसी स्थितियों में माफिया उन्हें अपने जाल में फंसा लेते हैं। और वे अक्सर वन विभाग के अधिकारियों का आसान निशाना बन जाते हैं और नौ अगस्त की तरह हुई झड़पे सामने आती हैं। “

वनवासी समुदायों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर श्रीवास्तव की टिप्पणी देश में गरीबी रेखा (बीपीएल) से नीचे रहने वाली आदिवासी आबादी के प्रतिशत पर आदिवासी मंत्रालय के आंकड़ों से पुष्ट होती है। मंत्रालय के अनुसार, 2011-12 के दौरान ग्रामीण मध्य प्रदेश में रहने वाली आदिवासी आबादी का 55.3 प्रतिशत बीपीएल श्रेणी में रखा गया था।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा हाल ही में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार, मध्य प्रदेश में अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ अपराधों और अत्याचारों के मामलों में पिछले तीन सालों में वृद्धि हुई है। 2019 में कुल 1,922 ऐसे मामले सामने आए थे। जबकि अगले साल यह संख्या बढ़कर 2,401 हो गई। 2021 में ऐसे कुल 2,627 मामले दर्ज किए गए।

एफआरए का खराब कार्यान्वयन

कई अन्य राज्यों में भी एफआरए का कार्यान्वयन खराब है। यह जनजातीय मामलों के मंत्रालय के आंकड़ों में दिखायी देता है।

2006 में एफआरए के लागू होने के बाद से, उत्तराखंड में दावों का उच्चतम प्रतिशत है, जिनका निपटान किया जाना बाकी है। हिमालयी राज्य में कुल 6,665 दावे दायर किए गए हैं, जिनमें से केवल 172 का ही निपटारा किया जा सका है। यानी 97.52 फीसदी दावे लंबित हैं।

इन दावों को निपटाने में कर्नाटक दूसरा सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला देश है, जहां 94.56 प्रतिशत दावे अभी भी लंबित हैं।

उत्तर प्रदेश (79.83 प्रतिशत लंबित), तमिलनाडु (75.34 प्रतिशत), पश्चिम बंगाल (68.24 प्रतिशत), असम (62.07 प्रतिशत) सहित अन्य राज्य जहां दावा निपटान दर बहुत कम है और बड़ी संख्या में दावे लंबित हैं। तेलंगाना (52.97 फीसदी), गुजरात (49.34 फीसदी), राजस्थान (47.87 फीसदी), मध्य प्रदेश (46.94 फीसदी), छत्तीसगढ़ (46.52 फीसदी), झारखंड (44.05 फीसदी), केरल (39.59 फीसदी), त्रिपुरा (36.32 प्रतिशत), ओडिशा (28.53 प्रतिशत), और आंध्र प्रदेश (23.34 प्रतिशत)।

वन, आजीविका और अस्तित्व का स्रोत

12 अगस्त को जब गाँव कनेक्शन विदिशा के रायपुरा गाँव पहुंचा, तो मारे गए ग्रामीण (30 वर्षीय चैन सिंह भील) के पिता सरदार सिंह ने कहा कि उनका बेटा अपने परिवार को पालने की कोशिश कर रहा था और मारा गया।

पिता ने कहा, “लकड़ी इकट्ठा करना और बेचना हमारे लिए आमदनी का एकमात्र जरिया है। मेरे बेटे ने कोई अपराध नहीं किया। उसे बिना किसी गलती के मार दिया गया।”

9 अगस्त की रात को घायल हुए सुनील भील ने कहा कि वह लकड़ी इकट्ठा करने वालों के साथ नहीं था। वह तो जंगलों में अपनी खोई हुई भैंस की तलाश कर रहा था। उसने बताया, “मैं तो लकड़ी इकट्ठा भी नहीं कर रहा था, मैं अपनी भैंस को ढूंढ़ रहा था। ग्रामीणों को यहां से लकड़ी इकट्ठा करने से कभी किसी ने नहीं रोका है।

भोपाल की आदिवासी कार्यकर्ता माधुरी कृष्णा ने कहा कि मध्य प्रदेश में आदिवासी मूल निवासियों को उनकी जमीन से बेदखल किया जा रहा है। आदिवासी कार्यकर्ता ने आरोप लगाते हुए कहा, “उनके लिए शायद ही कोई रोजगार के अवसर उपलब्ध हैं। अगर लकड़ी बेचना एक गंभीर अपराध माना लिया गया, तो वन अधिकारियों की दंडात्मक कार्रवाई से बचना बहुत मुश्किल होगा क्योंकि वे वन उपज की अवैध बिक्री में भी लिप्त हैं।”

आदिवासी कार्यकर्ताओं का कहना है कि इन आदिवासियों को उनकी जमीन पर कानूनी स्वामित्व न होने की वजह से भी अतिक्रमणकर्ता मान लिया जाता है। इस कारण वह राज्य के अधिकारियों की दया पर निर्भर हो जाते हैं और यह अक्सर हिंसक झड़पें और विरोध के तौर पर सामने आता है।

राज्य विधानमंडल में मनावर निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले विधायक और जय आदिवासी युवा शक्ति पार्टी के संस्थापक विधायक हीरालाल अलावा ने गांव कनेक्शन को बताया कि वनवासियों पर हमलों की घटनाएं बढ़ रही हैं।

अलावा ने बताया, “कभी-कभी उनकी जमीन की रक्षा के लिए उन पर हमला किया जाता है। कभी यह वन अधिकारी होते हैं जो उन्हें गोली मारते हैं और कभी-कभी उन्हें भीड़ मार देती है। राज्य सरकार राज्य में आदिवासियों को सुरक्षा देने में सक्षम नहीं है ।”

वन अधिकारियों ने नाम न छापने की शर्त पर गांव कनेक्शन को बताया कि दक्षिण लटेरी वन क्षेत्र में जहां 9 अगस्त को 30 वर्षीय आदिवासी की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी, 2017-2022 के बीच वहां ‘अवैध तस्करों’ के खिलाफ कुल 159 मामले दर्ज किए गए हैं। साथ ही इसी अवधि में वनों की कटाई की 1,522 घटनाएं दर्ज की गई हैं और 250 मोटरसाइकिल और एक दर्जन से अधिक भारी वाहनों को जब्त किया गया है।

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