झारखंड के आदिवासियों का सेंदरा पर्व, जिसमें पति के जंगल जाने पर महिलाएं उतार देती हैं अपने हाथों की चूड़ियां

पूर्वी सिंहभूम जिले के आदिवासी लोग जंगली पैदावार इकट्ठा करने के लिए दलमा के जंगलों की वार्षिक यात्रा करते हैं। उनकी महिलाएं अपना सिंदूर पोछ देती हैं, चूड़ियाँ हटा देती हैं और अस्थायी 'विधवा' बनने की कोशिश करती हैं और अपने देवता सिंहभोंगा से प्रार्थना करती हैं। ग्रामीणों का कहना है कि सेंद्रा युवा पीढ़ी के साथ जंगली पैदावार और दुर्लभ जड़ी-बूटियों के ज्ञान को साझा करने का एक तरीका है।
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गादरा (पूर्वी सींहभूम) झारखंड

राकेश हेंब्रम ने सेंदरा (शिकार) पर जाने से पहले, अपनी पत्नी राधा की कलाई से चूड़ियां उतार दी। अगले कुछ दिनों तक जब राकेश जंगल में औषधीय और जड़ी-बूटियों को इकट्ठा करने के लिए जंगल में होंगे, तब तक उनकी पत्नी ‘अस्थायी’ विधवा बनी रहेंगी।

झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले में रहने वाले आदिवासी ग्रामीणों का दावा है कि सेंदरा 100 साल से भी ज्यादा पुरानी परंपरा है। आदिवासी जो सेंदरा रस्म मनाते हैं, राज्य की राजधानी रांची से तकरीबन 200 किलोमीटर दूर पूर्वी सिंहभूम जिले के गदरा गाँव में रहते हैं।

इस महीने की शुरुआत में 7 मई को, राकेश ने पड़ोसी जिले सरायकेला-खरसावां के दमदा जंगल में अपनी यात्रा की शुरूआत की। जब वह दूर है तो उसकी 35 वर्षीय पत्नी राधा विवाहिता होने के किसी भी तरह की निशानी को छोड़ देगी। वह सिंदूर नहीं लगाएंगी, चूड़ियां नहीं पहनेंगी, अपने बालों को बिना कंघी किए छोड़ देंगी और विधवा का जीवन जीएंगी। जब उनके पति घर वापस आएंगे, तो वह वो चूड़िया वापस कर देंगे, जो उसने वापस ले ली थी और राधा वापस उसकी पत्नी बन जाएंगी।

सेंदरा में जाने से पहले आदिवासी समुदाय के पुरुष अपनी पत्नियों की चूड़ियां उतार देते हैं। फोटो: मनोज चौधरी

सरजामदा गाँव निवासी 85 वर्षीय लाल सिंह गगराई ने गाँव कनेक्शन को बताया, “आदिवासी महिलाएं अपनी मर्ज़ी से विधवा बनने की कोशिश करती हैं और अपने पति की सुरक्षित वापसी के लिए सिंहभोंगा (उनके देवता) से दुआ मांगती हैं।” उनके अनुसार, अगर कोई महिला इस रस्म को करने से इंकार करती है जब उसका पति शिकार के लिए चला जाता है तो उसको हमेशा अपनी जान का खतरा बना रहता है।

बुजुर्ग ने बताया, “सेंदरा के दौरान विधवा रस्में उनके पतियों को सेहतमंद और सुरक्षित जीवन को यकीनी बनाती हैं।” उन्होंने बताया, मैं 15 साल की उम्र से सेंदरा जा रहा हूं। उनके अनुसार, मयूरभंज (ओडिशा), पुरुलिया (पश्चिम बंगाल) और कोल्हान (झारखंड) के आदिवासी भी इस प्रथा का पालन सदियों से करते चले आ रहे हैं।

क्या है सेंदरा प्रथा

सेंदरा साल में एक बार मई के महीने में होता है जब पुरुष लोग अपने परिवार को सुरक्षित रखने के लिए जड़ी-बूटियों और औषधीय पौधों को इकट्ठा करने के लिए जंगलों में जाते हैं।

सेंदरा के लिए रवाना होने से पहले आदिवासी लोग पारंपरिक पोशाक धोती और गमछा में घर पर पूजा करते हैं और अपनी सुरक्षित वापसी के लिए दुआ करते हैं। उनकी पत्नियां हिफाजत के लिए और जंगली पैदावार इकट्ठा करने के लिए धनुष तीर और दूसरे पारंपरिक उपकरण सौंपती हैं। वे जंगल में खाना बनाने के लिए सूखी सामग्री अपने लिए ले जाते हैं।

इसके बाद सेंदरा वीर पारंपरिक संगीत वाद्ययंत्र जैसे धमसा, चरचरी, झुमर और सकुआ बजाते हुए दलमा जंगल की तरफ निकल जाते हैं।

सेंदरा वीर पारंपरिक संगीत वाद्ययंत्र जैसे धमसा, चरचरी, झुमर और सकुआ बजाते हुए दलमा जंगल की तरफ निकल जाते हैं।

जब जंगल के अंदर अंधेरा होने लगता है, तो सेंदरा वीर रात बिताने के लिए गुफाओं से दूर जहां जंगली जानवर हो सकते हैं एक महफूज़ जगह का चुनाव करते हैं। वे उस जगह को साफ करते हैं, प्रार्थना करते हैं और रात गुजारते हैं। 10 वर्ष से लेकर 80 वर्ष तक के आदिवासियों के कई समूह जंगल में सोते हैं।

झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के सरहदी इलाकों के अलग अलग हिस्सों के आदिवासी पुरुष एक जगह पर इकट्ठा होते हैं। वे अपने स्थानीय देवता सिंहबोंगा की पूजा करते हैं, देवताओं को खुश करने के लिए बकरे और मुर्गे की बली देते हैं और अपनी हिफाजत के लिए उनसे मदद की गुहार लगाते हैं।

आदिवासी समुदाय का मानना है कि सेंदरा एक रस्म है, जो पारंपरिक जड़ी-बूटियों और जंगली पैदावार के ज्ञान को सुनिश्चित करता है। राकेश हेब्रम के अनुसार पुराने समय के राजा, गोबरघुसी ने अंग्रेजों के भारत आने से पहले, दलमा में आदिवासियों को जमीन का बड़ा हिस्सा पट्टे पर दिया था। और, वे अभी भी देश के उन हिस्सों में सेंदरा का अभ्यास कर रहे हैं।

राकेश हेब्रम ने समझाया, “यह हमारे अस्तित्व का मामला है, ये हमें वह उत्पाद देता है, जिसका इस्तेमाल हम दवाओं में करते हैं। ये शैक्षिक यात्रा है जिसमें युवा पारंपरिक औषधीय जड़ी-बूटियों और अन्य वन उत्पादों के बारे में जानते और सीखते हैं जो मनुष्यों और उनके पशुओं की मदद करती है।”

सेंदरा और अस्थायी विधवापन

उन्होंने कहा कि राधा हेब्रम को अस्थायी विधवा होने में कोई समस्या नहीं थी। उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, “हमारे पति इसलिए सेंदरा जाते हैं, ताकि अपने घर वालों और अपने पशुओं के जीवन को सुनिश्चित कर सकें। हमारे बुजुर्गों ने हमें सिखाया है कि जब वे शिकार पर होते हों तो जंगली जानवरों से अपने पतियों की सुरक्षा के लिए विधवापन का अभ्यास करना जरूरी है।”

राधा ने इस बात से इनकार किया कि यह केवल अंधविश्वास है। उन्होंने बताया “सिंहबोंगा ने हमारी प्रार्थनाएं सीधे तौर पर कबूल की हैं और हमारे पति सही सलामत घर लौटे हैं। हम सिंदूर के बिना कुछ दिनों तक रह सकते हैं।”

आदिवासी युवक सेंदरा के लिए जंगलों में जा रहे हैं, न केवल शिकार करने के लिए बल्कि जड़ी-बूटियों, फलों और औषधीय पौधों को इकट्ठा करने के लिए भी जा रहे हैं। 60 वर्षीय सुकुरमणि पूर्ति ने गाँव कनेक्शन को बताया, “वे साल में एक बार अपने घर परिवारों के लिए अपनी जान जोखिम में डालकर घने जंगलों में जाते हैं। वे जंगल से जो वापस लाते हैं वह पूरे साल परिवार की देखभाल करता है।” उन्होंने बताया, हमारा विधवापन सेंदरा के दौरान उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं।

सेंदरा और शिकार

आदिवासियों का आरोप है कि सेंदरा परंपरा को वन विभाग के कुछ लोगों और अन्य लोगों ने गलत तरीके से पेश किया है और बदनाम किया है।

गागीडीह निवासी धनो मरडी ने गांव कनेक्शन को बताया, ”सेंदरा का जानवरों के शिकार से कोई लेना-देना नहीं है, असल में यह जानवरों के हित में है.”

मार्डी ने बताया, “जब हम दामला पहाड़ियों की तरफ मार्च करते हैं, तो हम ढोल पीटते हैं और जानवर हमसे दूर चले जाते हैं। हम मांस खोर नहीं हैं, बल्कि हम उन्हें घर पर पालते हैं। आदिवासी प्रकृति से मोहब्बत करते हैं और सेंदर को जानवरों का शिकार नहीं कहा जाना चाहिए।”

डानो ने बताया, “वास्तव में हम सिंहबोंगा से दुआ करते हैं कि जब हम जंगली पैदावार तलाश करते हैं तो जंगली जानवरों को हमसे दूर रखें।” उन्होंने बताया कि जंगलों में कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहां जानवरों का आना-जाना लगा रहता है। उन्होंने कहा, “सेंदरा वीरों को ऐसे इलाकों में जाने से सख्त रोक है।”

हकीकत में, जंगल में उनके प्रवास के अंत में, एक सुतम टंडी या अदालत लगाई जाती है। अगर आदिवासियों ने जंगल के कानूनों का उल्लंघन या शिकार किया हो तो उनको इस अदालत में दंडित किया जाता है। उन्होंने बताया कि वे जानवरों को तभी मारते हैं जब जानवर उनपर हमला करते हैं।

गागिडीह के 39 वर्षीय निवासी लीता बान सिंह ने गाँव कनेक्शन को बताया, “हम एक प्राकृतिक इकोलॉजिकल सिस्टम में विश्वास करते हैं। हम जानवरों पर हमला करते हैं, अगर वे पहले हम पर हमला करते हैं। आदिवासी अर्थव्यवस्था जंगल और जानवरों पर निर्भर करती है, इसलिए हम दोनों की सुरक्षा के लिए सेंदरा का अभ्यास करते हैं।”

महामारी के कारण पिछले दो सालों से कोई सेंदरा नहीं हुआ और इस साल सेंदरा वापस आ गया है। तुपुडांग गाँव के साधना डिब्रू सिद्धू जंगल में जश्न मनाने के लिए और इंतजार नहीं कर सकते।

तुपुडांग गांव के 20 वर्षीय साधन डिब्रू सिद्धू ने कहा, “शादी के बाद, मेरी पत्नी सेंदरा के दौरान विधवा होने का अभ्यास करेगी क्योंकि यह आदिवासी जीवन के लिए शुभ है।” इस वर्ष झारखंड के सीमावर्ती क्षेत्रों के कई सौ आदिवासी युवाओं ने इस वार्षिक परंपरा में भाग लिया और दलमा से जंगली पैदावार इकट्ठा की।

इस बीच, वन विभाग ने दलमा में स्थानीय ग्रामीणों के साथ बैठक कर सेंदरा वीरों पर कड़ी नजर रखी। जमशेदपुर के मुख्य वन संरक्षक विश्वनाथ साह ने सेंदरा से पहले हुई एक बैठक में कहा था, “जनजातीय परंपरा के नाम पर लोगों को जानवरों को मारने की अनुमति नहीं दी जाएगी।”

अंग्रेजी में खबर पढ़ें

अनुवाद: मोहम्मद अब्दुल्ला सिद्दीकी

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