नृतत्व-विज्ञानियों के अनुसार बस्तर के ‘बाइसन-हार्न’ मारिया को विश्व की सबसे प्राचीन जनजातियों में गिना जाता है। बस्तर की जनजातीय सभ्यता लगभग 4500 साल पुरानी तथा अंडमान निकोबार की जावंगा जनजाति के बाद सबसे पुरानी आदिम जनजाति मानी जाती है।
बस्तर संभाग में निवास करने वाली स्थानीय जातियाँ और जनजातियाँ शिल्प एवं कला के दृष्टिकोण से काफी समृद्ध हैं । इनकी शिल्प कलाएँ बहुत मनमोहक और अनूठेपन से भरी होती हैं इसी वजह से इनकी कलाएँ हमेशा लोगों के आकर्षण का केन्द्र होती हैं । गौरतलब है कि शिल्प कलाएँ या हस्तशिल्प के वर्तमान स्वरूप में आने के पीछे एक लंबी प्रक्रिया होती है उसका एक पूरा इतिहास होता है क्योंकि कोई भी शिल्प या कला केवल शिल्प या कला नहीं होती, उसका एक लंबा इतिहास भी उसमें समाया रहता है जो तत्कालीन परिस्थितियों को अपने शिल्प के माध्यम से वर्तमान के समक्ष प्रस्तुत करता है।
यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि बस्तर के स्थानीय जातीय-जनजातीय समाज की भूत और भविष्य के प्रति समझ और उनकी कल्पनाशीलता उनके शिल्प कलाओं में प्रभावी तरीके से दिखता है। बस्तर संभाग की इन जातियों जनजातियों में ये शिल्प और हस्तकलायें पाई जाती हैं –
1.घड़वा शिल्पकला
2.लौह शिल्पकला
3.मृत्तिका (मिट्टी) शिल्पकला
4.बुनकर शिल्पकला
5.काष्ठ शिल्पकला
6.पत्ता शिल्पकला
7.बाँस शिल्पकला
8.कौड़ी शिल्पकला
बस्तर संभाग की जातियों-जनजातियों की ये कला काफी समृद्ध है।
घड़वा शिल्प कला – बस्तर की प्रमुख शिल्पकार घड़वा जाति (गांडा जाति की एक उपजाति) के लोग अपनी परंपरागत कलात्मक सौंदर्य भाव के लिए प्रसिद्ध हैं। इनके शिल्प सौंदर्य ने इनके कार्यों पर घड़वा कला, डोकरा आर्ट के नाम की मोहर लगाकर उनके कलात्मक जीवन को प्रसिद्ध कर दिया है । काँसा और पीतल के मिश्रण से तैयार धातु को ‘बेलमेटल’ यानी ‘घन्टी धातु’ नाम दिया गया। कारण, घन्टी में उपयोग की जाने वाली धातु न तो पूरी तरह काँसा होती है और न पूरी तरह पीतल ही। इसमें इन दोनों ही धातुओं का योग होता है। यह शिल्प शासकीय तौर पर ‘ढोकरा शिल्प’ कहा गया है जबकि इस शिल्प के पारम्परिक शिल्पी इसे ‘घड़वा’ शिल्प” के नाम से पुकारते रहे हैं। ‘घड़वा’ शब्द मूलतः ‘गढ़वा’ है, इसमें कोई दो राय नहीं है। कारण, गढ़ने का अर्थ है बनाना और गढ़वा यानी गढ़ने वाला। कल्पनाशीलता का सहारा ले कर कोई चीज गढ़ना। सम्भवतः कालान्तर में यही शब्द पीतल-काँसा धातु से दैनिक उपयोग की सामग्री और मूर्तियाँ गढ़ने वाले समुदाय के लिये जातिवाचक हो कर पहले ‘गढ़वा’ फिर ‘गड़वा’ और फिर ‘घड़वा’ हो गया होगा।
पीतल, काँसा और मोम से बनी घड़वा शिल्प अपने कल्पना विन्यास में अलौकिक होते हैं। घड़वा-कला, विश्व प्रसिद्ध कला है। देव , देवियों, मनुष्यों और पशु-पक्षियों आदि की घड़वों द्वारा ढाली गयी आकृतियाँ, जगह-जगह सराही जाने लगी हैं ।
धातु कला और लौह शिल्प – बस्तर की घड़वा जाति द्वारा धातुओं को शिल्प कला में परिवर्तित किया जाता है इस जनजाति द्वारा सुन्दर व आकर्षक मूर्तियाँ बनाई जाती हैं। लोहार जाति द्वारा लोहे की वस्तुओं का निर्माण किया जाता है। ये लोग चाकू, चूल्हा, छुरी, हँसिया, टंगिया फरसी, तीर, साँकल, गाड़ी -पहियों के पट्टे आदि बना-बना कर जीवन की आवश्यकताएँ पूरी तो करते ही हैं, साथ साथ वे लौह पट्टिकाओं से पशु-पक्षियों की प्रदर्शनीय आकृतियाँ भी तैयार करने लगे हैं।
बस्तर के कई लौह शिल्पियों से बातचीत में यही बात उभर कर आयी कि सबसे पहले लोहे का उपयोग आखेट करने और आत्मरक्षा के लिये अस्त्र-शस्त्र बनाने में हुआ। इसके बाद बारी आयी घरेलू और कृषि प्रयोजनों के लिये लोहे से बने उपकरणों के प्रयोग की । फिर देवी- देवताओं के पूजन में उपयोगी वस्तुएँ भी इससे बनने लगीं और शान्ति काल में संगीत तथा विवाह आदि संस्कारों में भी उपयोग हेतु इससे विविध प्रकार के उपकरण बनाये जाने लगे।
मिट्टी शिल्प – मानव का जन्म पाँच मूलभूत तत्वों के साथ हुआ है इन्हीं पंचभूतों में से एक मिट्टी है । मनुष्य ने सर्वप्रथम मिट्टी को आकार दिया और यही आकार उसका प्रथम शिल्प बना, यद्यपि मिट्टी से बर्तन आदि बनाने का कार्य कमोबेश पूरे देश मे कुम्हार जाति के लोग करते हैं परंतु मृदा शिल्प या मूर्तियाँ, खिलौने आदि बनाने का काम अन्य वर्गों के द्वारा भी किया जाता रहा है। लोक जीवन में मिट्टी से बने पात्रों की महत्ता आरम्भ से ही रही है । लोक जीवन में इसकी उपयोगिता का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी संस्कारों और क्रिया-कलापों में इनकी उपस्थिति अनिवार्य रही है।
छत्तीसगढ़ में बस्तर संभाग के शिल्पकारों द्वारा मिट्टी शिल्प का अति सुंदर कलात्मक अलंकरण इस प्रकार से होता है मानों मिट्टी का घोड़ा अब बस दौड़ने वाला है । कुम्हारी मृत्तिका शिल्प काफी समृद्ध हो चली है। टेर्राकोटा नाम से उसकी ख्याति दिनों-दिन जोर पकड़ती जा रही है।
बुनकर शिल्प कला – छत्तीसगढ़ में बस्तर और पड़ोसी ओडिशा में कोरापुट खनिज और हरे भरे जंगलों के संदर्भ में प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध भूमि द्वारा पोषित आदिवासी संस्कृति और परंपराओं का घर है। इस क्षेत्र के जातियों की अपनी एक विशेष बुनाई परंपरा है, जिसमें वनस्पतियों के रंग से रंगे कपड़े बुने जाते हैं । इनके द्वारा जो वस्त्र बुने जाते हैं उन्हें पाटा और फेंटा कहा जाता है । पाटा कमोबेश साड़ी के आकार का होता है, जिसका उपयोग मुख्य रूप से आदिवासी महिलाओं द्वारा वस्त्र (साड़ी) के रूप में किया जाता है और फेंटा का प्रयोग पुरुषों द्वारा पगड़ी या कंधे के कपड़े (गमछा) के रूप में उपयोग किया जाता है ।
वनस्पतियों के रंग से सूत रंगने और उन्हें कपड़ा बनाने का शिल्प एक पारंपरिक रूप है जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाया जाता रहा है ।
इस क्षेत्र में बुनकरों की तीन मुख्य जातियाँ पनका, महार और चंडार (गांडा) हैं । बुनकर अपने बच्चों को 10-12 साल की उम्र में रंगाई और बुनाई का प्रशिक्षण देना शुरू करते हैं और सत्रह या अठारह साल की उम्र तक वे कुशल बुनकर बन जाते हैं ।
सूत तैयार करने से लेकर बुनाई आदि का काम महिलाओं के सहयोग से पुरूष वर्ग द्वारा किया जाता है जबकि कपड़ों की रंगाई का काम एवं विपणन हेतु बाजार ले जाने का कार्य मुख्य रूप से महिलाओं द्वारा किया जाता है ।
बस्तर का यह बुनकर, घड़वा, वादक समुदाय मुख्य रूप से गांडा समुदाय है जो कि आजादी के पूर्व तक के सामाजिक वर्गीकरण में बस्तर के आदिम जनजातीय समुदायों में ही गिना जाता था। लेकिन बस्तर के लोहारों की भांति ही वैधानिक सर्वेक्षण की गलती के कारण गांडा समुदायको भी आदिम जनजातीय समुदायों से अलग कर अनुसूचित जाति में वर्गीकृत कर दिया गया है। जिससे बस्तर के लोहार तथा गांडा दोनों समाज जल जंगल जमीन और आरक्षण से मरहूम होकर आज दर-दर को भटकने को मजबूर हैं।
काष्ठकला – सम्पूर्ण प्रदेश में सबसे अधिक वन क्षेत्रफल वाले बस्तर संभाग में काष्ठ शिल्प की बहुत पुरानी व समृद्ध परंपरा है। क्षेत्र का जनजातीय जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक वनों पर आश्रित रहता है । काष्ठ-शिल्प की परम्परा बहुत प्राचीन और समृद्ध है। लकड़ी में विभिन्न रूपों को उतारने की कोशिश मनुष्य ने आदिम युग से शुरू कर दी थी।
संभाग के जातियों-जनजातियों के जीवन यापन से लेकर मनोरंजन तक सभी पहलू वनों से ही सम्बद्ध रहते हैं, इसलिए प्रकृति के प्रति उनका प्रेम चिरस्थाई होता है ।
काष्ठ शिल्प का अद्भुत नमूना हैं जगदलपुर एवं दन्तेवाड़ा के बीच मृतकों की स्मृति में गाड़े गये ‘माड़ेया खमा’ यानी मृतकों की स्मृति में गाड़े गये स्मृति-स्तम्भ । इन स्मृति-स्तम्भों में उकेरे गये चित्र सजीव लगते हैं । मृतक स्तम्भों के ऊपर पक्षी अवश्य बनाया जाता है ।
पत्ता शिल्पकला – घने जंगलों से आच्छादित क्षेत्र बस्तर संभाग काष्ठ शिल्पकला के अलावा पेड़ों के पत्तों से शिल्पकारी का एक बेहतरीन उदाहरण पेश करता है। वास्तविक तौर पर देखा जाय तो क्षेत्र के हर जातियों – जनजातियों के लोक जीवन में पत्तों की महत्ता वैसे ही है जैसे किसी मैदानी क्षेत्र में पशुधन का महत्व होता है ।
बस्तर संभाग के वन क्षेत्रों में पाये जाने वाले पलाश और सिंयाड़ी पेड़ों के पत्तों का उपयोग काफी किया जाता है । इन पत्तों से ग्रामीण वर्षा एवं धूप से बचने के लिए एक विशेष प्रकार के बिना हत्थे के छत्तेनुमा आकृति बनाई जाती है जिसे स्थानीय बोली में “छतोडी” के नाम से जाना जाता है ।
इसके अलावा साल, सिंयाड़ी और पलाश के पत्तों का उपयोग खाना खाने हेतु पत्तल और दोने बनाए में भी होता है। स्थानीय बोली में आकार के आधार पर इन्हें ‘डोबला-डोबली व पतरी’ कहा जाता है ।
यही नहीं साल, सिंयाड़ी और पलाश के पेड़ों के रेशों से रस्सी बनाई जाती है जो बहुत मजबूत होती है । आम के पत्ते कलश में रखने और तोरण बनाने के काम आते हैं, तथा तेंदू के पत्तों से स्थानीय स्तर पर बीड़ी बनाई जाती है जिसे ग्रामीण क्षेत्रों में ‘चोंगी’ के नाम से जाना जाता है ।
बस्तर में पाई जाने वाली खजूर की छोटी प्रजाति जिसे ‘छिंद’ के नाम से जाना जाता है उसके पत्तों का कलात्मक उपयोग स्थानीय निवासी करते हैं साथ ही जनजातीय जीवन में ‘छिंद’ के पत्ते बहुत उपयोगी हैं। विवाह अवसर पर दुल्हा दुल्हन हेतु ‘महुड़’ यानी कि सेहरा भी छिंद (छोटी खजूर की प्रजाति) के नए और मुलायम पत्तों से बनाए जाते हैं ।
बांस शिल्प – बाँस शिल्प का बस्तर के जनजीवन से जीवंत सम्बन्ध रहा है। चाहे वे ‘सुपा’, ‘टुकना’, ‘गपा’, ‘गवली’, ‘चरेया’, ‘परला’ आदि घरेलू उपकरण हों, कृषि उपकरण हों या कि आखेट के लिये प्रयुक्त धनुष और तीर । ये सभी बाँस शिल्प की ही देन रहे हैं ।
कौड़ी शिल्पकला – कौड़ी समुद्र में पाये जाने वाले एक जीव का कड़ा आवरण होता है जिसका पूजा-पाठ, जादू-टोने, टोटके आदि के लिए किया जाता है । पुराने समय मे इसका चलन मुद्रा के रूप में भी किया जाता था । बस्तर संभाग में दूर-दूर तक समुद्र नहीं पाया जाता ऐसी स्तिथि में यह बस्तर के जातीय-जनजातीय समाज शिल्प के रूप में अपनाए जाने को लेकर यह कहा जा सकता है कि विभिन्न क्षेत्रों से व्यापार व्यवसाय के लिए बस्तर क्षेत्र में आने वाली जातियों द्वारा इसे समाज के समक्ष प्रस्तुत किया गया होगा । इनमें ‘बंजारा’ जाति के लोगों का नाम लिया जाता है जो कि एक घुमंतू जाति रही है । बस्तर में कौड़ी शिल्प का आगमन राजस्थान से यहाँ आये बंजारों के साथ ही हुआ ।
इनके अलावा कई विधाएं बस्तर के जनजाति समुदाय से जुड़ी रही हैं लेकिन वैश्विक बाजारवाद के दबाव तथा भोगवादी संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के कारण गायब होती गई ।
बस्तर की जनजाति समुदाय की कला परम्परा वर्तमान तथाकथित सभ्य समाज की कला परंपराओं की मूल आधार रही है। अपनी इन मूर्त अमूर्त नानाविध कलाओं की इन गौरवशाली परंपराओं को आने वाली पीढ़ियों के लिए बचा कर रखना हमारा दायित्व है।