'मैंने गर्भपात कराने वाली दवाएं मांगी, मेडिकल स्टोर वाले ने बिना डॉक्टर के पर्चे के दवाएं पकड़ा दीं'

गाँव कनेक्शन टीम ने पड़ताल के लिए लखनऊ के कई मेडिकल स्टोर्स पर बिना डॉक्टर के पर्चे के ये दवाएं मांगी, मेडिकल स्टोर वालों ने बिना कोई सवाल-जवाब के दवाओं का पत्ता पकड़ा दिया..

Jigyasa MishraJigyasa Mishra   9 Dec 2019 10:00 AM GMT

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"हम उस वक़्त बच्चे के लिए तैयार नहीं थे जब मुझे पता चला की मैं प्रेग्नेंट (गर्भवती) हूँ। घरवालों को बताते तो वो गर्भपात ( अबॉर्शन) के लिए तैयार नहीं होते, इसलिए मैंने इंटरनेट से पता करके, पति से गर्भपात की पिल्स (दवा) मंगवा लीं और जैसा उस पर लिखा था उस हिसाब से खा लिया। दो गोलियां खानी होती हैं, एक के बाद एक। पहली खायी तब तो सब ठीक था लेकिन दूसरी खाने के बाद मैं बाथरूम गयी और वहीँ बेहोश हो गयी। करीब दो घंटे बाद जब मुझे होश आया तब ब्लीडिंग इतनी बढ़ चुकी थी कि हम जैसे-तैसे डॉक्टर के पास पहुंचे," जबलपुर की रहने वाली श्वेता (29 वर्ष) बताती हैं।

PC: Jigyasa/ Gaon Connection

श्वेता ने बिना किसी डॉक्टर के सलाह की दवा खाई थी। महज़ इंटरनेट के भरोसे, गर्भपात की दवा खरीद के खायीं और इन्कम्प्लीट एबॉर्शन (अधूरा गर्भपात) और ज्यादा खून बहने से जान जोखिम में पड़ गई। समय पर अस्पताल पहुंचने से श्वेता की जान तो बच गयी, सैकड़ों महिलाओं की जानकारी न होने और लापरवाही के चलते जान चली जाती है।

प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक के मुताबिक असुरक्षित गर्भपात की वजह से भारत में प्रतिदिन दस महिलाओं की मौत होती है और हर साल लगभग 68 लाख गर्भावस्था समाप्त होती है। असुरक्षित गर्भपात देश में मातृ मृत्यु का तीसरा प्रमुख कारण है। आंकड़ों में बात करें तो देश में गर्भवती महिलाओं की मौत के मामले में ८ फीसदी वजह असुरक्षित गर्भपात होते हैं।

ग्लोबल मेडिकल जर्नल, लैंसेट में जून 2016 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 7 लाख वार्षिक गर्भपात दर्ज़ हुए और इसके लिए इस्तेमाल हुई गर्भपात दवाओं, मिफेप्रिस्टोन और मिसोप्रोस्टोल की 110 लाख इकाइयों की बिक्री दर्ज़ हुई।

गाँव कनेक्शन टीम ने पड़ताल के लिए लखनऊ के कई मेडिकल स्टोर्स पर बिना डॉक्टर के प्रिस्क्रिप्शन (पर्चे) के ये दवाएं मांगी और बिना कोई सवाल-जवाब किये मेडिकल स्टोर वालों ने दवाएं पकड़ा दीं। यही हाल माहवारी आगे बढ़ाने वाली दवाओं का भी रहा। मेडिकल स्टोर्स पर किसी डॉक्टर के लिखित पर्चे की मांग नहीं गई। जबकि कानून के मुताबिक रजिस्टर्ड डॉक्टर का पर्चा दिखाने पर ही गर्भपात और माहवारी से संबंधित दवाएं दी जानी चाहिए।

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डब्लूएचओ (विश्व स्वास्थ्य संगठन) के अनुसार भारत जैसे देश में जहां हर साल 45 हजार महिलाएं बच्चे को जन्म देने संबंधी कारणों से मर जाती हैं इसलिए अब इस संबंध में संवाद की जरूरत है। भारत में आज भी माहवारी, गर्भधारण, गर्भपात जैसे विषयों पर बात करना असहज माना जाता है, फिर चाहे वो घर में हो या बाहर।

"गाँव की महिलाओं तो बेहद खराब स्थिति में हम तक पहुँचती हैं। पहले तो वो दाई और ऐसे ही अप्रशिक्षित लोगों (प्राइवेट क्लीनिक, झोलाझाप आदि) के पास जाती हैं। कई बार उनके बच्चेदानी में छेद हो जाता है, परफोरेशन (कई अंग प्रभावित हो जाते हैं) हो जाता है। तबीयत ज्यादा बिगड़ने पर ही मरीज हमारे पास लाए जाते हैं। कई बार उनकी आंतें तक बाहर निकल चुकी होती हैं। ऐसे केसेस में हम 50 प्रतिशत महिलाओं को ही बचा पाते हैं।" डॉ. एसपी. जैैसवार, अधीक्षक क्वीन मेरी अस्पताल, लखनऊ बताती हैं।

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PC: www.who.int

उत्तर प्रदेश बाराबंकी के रहने वाले आशीष कुमार (बदला हुआ नाम) ने बिना डॉक्टर की परामर्श के गाँव में ही अपनी पत्नी का गर्भपात कराता था। तबियत बिगड़ने पर आनन-फानन में लखनऊ लेकर आए। पिछले एक हफ्ते से वो लखनऊ के क्वीन मेरी अस्पताल में पत्नी का इलाज करवा रहे आशीष ने मायूसी के साथ गांव कनेक्शन को बताया था, "कविता को जब पता चला कि वो पांचवीं बार माँ बनने वाली थी तब गाँव के हि एक छोलाछाप डॉक्टर से दवाएं लीं। गर्भपात तो हो गया लेकिन इतना ज्यादा खून हो गया कि लखनऊ लाना पड़ा। यहां डॉक्टरों ने बताया कि बच्चे दानी में छेद हो गया है, डॉक्टरों ने ऑपरेशन कर बच्चेदानी निकाल दी है।"

पांच-छह दिन वेंटिलेटर पर रही, कई ऑपरेशन हुए लेकिन उनकी जान नहीं बच पाई। अस्पताल की अधीक्षिका डॉ. एसपी जैसवार ने गांव कनेक्शन संवाददाता को फोन पर इसकी जानकारी फोन पर दी। " बाराबंकी वाले केस में महिला की जान नहीं बच पाई, क्योंकि जब वो हमारे पास आई थी, मल्टीपल ऑर्गन फेलियोर (कई अंग काम करना बंद कर चुके थे ) हो चुके थे, डॉक्टरों ने काफी कोशिश की लेकिन आंत में गहरे छेद होने की वजह से बचा नहीं पाए।'

डॉ. जैसवार आगे बताती हैं, "गांव ही नहीं शहर की पढ़ी-लिखी महिलाएं भी खुद से दवाएं लेकर अपनी जान जोखिम में डालती हैं। इनकंप्लीट अबार्शन, ज्यादा खून बहना ऐसे केस में आम बात हो जाती है। ऐसे मामले ज्यादातर महिलाएं कम उम्र की होती हैं।"

कई डॉक्टरों ने नाम न छापने पर ये भी बताया कि खुद से गर्भपात की दवाएं लेने वाली महिलाओं में अवविवाहित लड़कियां और नई शादी वाली महिलाएं ज्यादा होती हैं।

संकुचित व रूढ़िवादी सोच से जान को हो सकता है खतरा

गुजरात में रहने वाले हर्बल एक्सपर्ट, डॉक्टर दीपक आचार्य बताते हैं, "जिस प्रकार गाँवों में दाई और आशा के भरोसे स्वास्थ्य से खिलवाड़ किया जाता है उसी तरह गाँव देहातों में कई मामले ऐसे भी होते हैं जिसमें स्थानीय भुआ, भगतों और जड़ी बूटियों के जानकारों मिलकर महिलाएं गर्भपात के सामाधान खोजती फिरती हैं और अंत में लेने के देने भी पड़ जाते हैं। आधी-अधूरी जानकारियां और बगुले भगतों के चक्कर में जान तक गवानी पड़ सकती है।" "बाकी शारीरिक उपचारों की तरह यह भी एक सामान्य जिसके उपचार के लिए हमें सिर्फ महिला चिकित्सक के ही पास जाना चाहिए," वह आगे बताते हैं।

गर्भपात व क़ानून

कई बार लोगों को यहाँ तक पता नहीं होता कि भारत में गर्भपात की अनुमति है या ये कानूनन अपराध है। एमटीपी अधिनियम (मेडिकल टर्मिनेशन और प्रेगनेंसी एक्ट), 1971 के मुताबिक भारत में गर्भपात को कानूनी तौर पर अनुमति है। हालांकि, कानूनी रूप से यह केवल गर्भाधान के 20 सप्ताह तक किया जा सकता है। केवल इन चार स्थितियों के तहत भारत में गर्भपात की अनुमति है --

1. अगर गर्भावस्था की निरंतरता के कारण मां के जीवन या उसके शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य के लिए कोई जोखिम हो

2. अगर भ्रूण में कोई गंभीर असामान्यताएं होती हैं

3. गर्भनिरोधक की विफलता के परिणामस्वरूप हुआ गर्भधारण (लेकिन यह केवल विवाहित महिलाओं के लिए लागू है)

4. अगर गर्भावस्था यौन उत्पीड़न या बलात्कार का परिणाम है

एमटीपी अधिनियम, 1971 के मुताबिक महिलाओं के पहचान गोपनीय रखने के लिए अस्पताल, उनके नामों की बजाय संख्याओं की ज़रिये पहचान करते हैं।


क्या कहते हैं मनोवैज्ञानिक

गर्भपात कराने के पीछे सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दबाव बड़ी वजह बनते हैं। अनचाहे बच्चे से बचने के लिए गर्भपात कराने के लिए ज्यादातर बार किसी को खबर न हो इसलिए डॉक्टर की सलाह लेने से भी लोग बचते हैं।

लखनऊ की मनोवैज्ञानिक, डॉक्टर शाज़िया सिद्दीकी बताती हैं, "कई बार अविवाहित लड़कियों में गर्भधारण को लेकर बदनामी का डर होता है जिसके वजह से वो कही से सुन कर, या इंटरनेट से आधी-अधूरी और कई बार गलत जानकारी निकालकर, घर पर ही गर्भपात करने की कोशिश करती हैं और रिजल्ट्स कॉम्प्लिकेटेड (मुश्किल परिणाम) हो जाते हैं।"

सामाजिक व मानसिक दबाव

"बिना डॉक्टर के सलाह के दवाओं के ज़रिये गर्भपात अब कम उम्र की महिलाओं व लड़कियों में आम सी बात लगती है, लेकिन इसका उनके शरीर के साथ मन मस्तिष्क पर विपरित असर पड़ता है। डॉक्टर के पास न जाने की सिर्फ एक वजह होती है कि घरवालों तक बात न जाए। ऐसे में अभिभावकों की भी कमी है कि बच्चों पर समाज का इतना भार डाल दिया जाता है कि वह उन से इस तरह की बात करने में सहज नहीं महसूस करते," डॉक्टर शाज़िया सिद्दीकी आगे जोड़ती हैं।

मीडिया व विज्ञापनों की भूमिका

भारत में गर्भनिरोधक गोलियों का भारत में जोरशोर से विज्ञापन किया जाता है। ज्यादातर विज्ञापन एक गोली में 'कई झंझटों' से मुक्ति की बात करते हैं लेकिन विज्ञापन में उसके निरंतर इस्तेमाल से होने वाले साइड इफेक्ट (दुश्प्रभाव) नहीं बताए जाते। इन्हीं विज्ञापनों को देखकर कई बार लोग बिना चिकित्सक को दिखाए सीधे मेडिकल स्टोर से दवाएं खरीदते हैं या फिर अप्रशिक्षित डॉक्टरों के जाल में फंसते हैं। डॉ. शाजिया सिद्दीकी बताती हैं, "एक महिला ने गर्भपात के लिए ओरल पिल्स ली और उसे लगा की अब सब ठीक है। चार महीने बाद उसे पता लगा कि वह एबॉर्शन फ़ेल हो गया था और वह प्रेग्नेंट है। उसने एक विकलांग बच्चे को जन्म दिया। धड़ल्ले से टेलीविज़न और इंटरनेट पर दवाओं के आने वाले विज्ञापनों के वजह से ही लोग डॉक्टर की बजाय सीधे मेडिकल स्टोर पहुंचते हैं, जो घातक है। दूसरी समस्या ये है कि ये दवाए खुले बाजार में आसानी से मिल भी जाती हैं।"

गूगल में सिर्फ अबॉशन लिखने पर करीब पौने दो करोड़ सर्च ऑप्शन आते हैं। डॉक्टर भी मानते हैं कि गर्भपात में एक बड़ी संख्या में महिलाएं कही सुनी बातें और इंटरनेट पर बताई गए दवाएं और तरीकों का प्रयोग करते हैं।




       

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