पानी का संकट बढ़ने वाला है। जी हाँ, आपको शायद इस बात का अभी एहसास नहीं हो रहा होगा, लेकिन ये सच है।
पानी लेकर अब तक जितनी भी रिपोर्ट और अध्धयन सामने आये हैं वो इसी तरफ इशारा कर रहे हैं। अगर समय रहते हम नहीं चेते तो लबालब पानी से भरी आपकी बाल्टी या मटके में कल शायद एक बूंद भी पानी न रहे।
देश के कई राज्यों को गर्मियाँ शुरू होते ही जल संकट से जूझना पड़ता है। राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश जैसे सूबों में सूखे के कारण करोड़ों रुपयों की जनधन हानि उठानी पड़ती है। सूखे से बेहाल इन राज्यों के निवासियों को जहाँ पलायन को मज़बूर होना पड़ता है वहीं पशु तक बेमौत मरते हैं।
भूमिगत जल के गिरते स्तर के कारण सूखा जैसे हालात पैदा हो गए हैं। अधिकांश राज्यों में पानी की बर्बादी पर अब तक पूरी तरह लगाम नहीं लग सका है। शहरीकरण या सिंचाई के नाम पर पानी का ग़लत इस्तेमाल नहीं रुका तो इसमें कोई दो राय नहीं है, आने वाले कुछ साल में स्थिति और विकराल रूप अख़्तियार कर लेगी। ज़मीन में पानी के गिरते स्तर की बानगी यह है कि हैंडपंप, नलकूपों ने काम करना बंद कर दिया है। इस कारण बोरिंग और गहरी करनी पड़ रही है।
भूजल सर्वेक्षण के निर्धारित मापदंड के अनुसार ज़मीन के भीतर पाए जाने वाले जल को तीन श्रेणियों में बाँटा गया है। जो व्हाइट, ग्रे और डार्क श्रेणी में है। व्हाइट श्रेणी 6 से 12 मीटर, ग्रे श्रेणी 12 से 18 मीटर और डार्क श्रेणी को 18 से अधिक नीचे की गहराई तक चिन्हित किया गया है। व्हाइट श्रेणी सामान्य है जबकि ग्रे श्रेणी ख़तरे की घंटी और डार्क श्रेणी ख़तरनाक स्तर तक पानी के नीचे सरक जाने का संकेत है।
सच तो ये है कि ज़मीन के अंदर पैदा हुए सूखे के हालात के लिए ख़ुद इंसान ज़िम्मेदार है। ख़ेतों की सिंचाई से लेकर शहरों, उद्योगों, निजी इस्तेमाल में नलकूपों, पंप सेटों या समरसेबल से अंधाधुंध बिना वजह पानी का दोहन करने से ये हालात पैदा हुए हैं। वहीं गाँवों में बारिश के पानी को इकट्ठा नहीं करने से तालाब, पोखर गायब हो गए हैं।
इसके लिए ज़रूरी है “कैच द रैन” यानी बरसात के जल को इकठ्ठा किया जाए। इसलिए गाँव का पानी ताल में, ताल का पानी पाताल में और खेत का पानी खेत में रोके जाने की ज़रूरत है, जिससे वह बेकार में बहकर नदी-नालों में न जा सके। तालाब, पोखरों की नियमित सफ़ाई, खुदाई के साथ ही खेतों की मेड़बंदी और गर्मी में गहरी जुताई बारिश का पानी जमा करने का आसान रास्ता है।
तालाब, पोखर, कुएँ, बावड़ी गाँवों में बरसात का पानी जमा करने का सदियों से परंपरागत साधन रहे हैं। इसी पानी से पूरे साल गाँव के लोग सिंचाई करते थे या पीने की ज़रूरत पूरा करते थे। लेकिन सिंचाई सुविधाओं की बढ़ोतरी और नलकूपों, पंपिंग सेटों की अधिकता के चलते बोरिंग कर पानी निकालने के दौर में परंपरागत ढंग से पानी इकठ्ठा करने की सोच ही ख़त्म हो गई है।
बारिश के पानी की कृत्रिम रिचार्ज तकनीक को भी अमल में नहीं लाया जा रहा है। इस कारण बारिश का पानी जमा होने की बजाए बेकार में बह जाता है।
दशकों पहले तक गाँवों में अधिकांश मकान कच्चे मिट्टी के होते थे जिसकी हर साल गर्मियों में तालाब की चिकनी मिट्टी से लिपाई और मरम्मत का काम किया जाता था। इसके लिए तालाबों का गाँवों में ख़ास स्थान होता था। अब ज़्यादातर मकान पक्के बन रहे हैं, जहाँ मिट्टी से लिपाई गुज़रे ज़माने की बात है। लेकिन पक्के मकानों में भी बरसात के पानी को जमा और रिचार्ज कर इस्तेमाल में लाया जा सकता है।
गाँव के लोगों में पहले की तरह मिलजुलकर तालाब या पोखर की सफ़ाई की भावना भी अब नहीं दिखती है। हालाँकि केंद्र और राज्य सरकार इस दिशा में कई परियोजनाएं लेकर आई हैं। खेत तालाब से लेकर अमृत सरोवर तक पर काम किया जा रहा है।
जल संकट के समाधान के लिए ज़रूरत इस बात की है कि बारिश के पानी को बेकार बह जाने से रोका जाए। इसके लिए तालाबों, पोखर, बावड़ी को दोबारा जिंदा करना ही होगा। बरसात के पानी को परंपरागत ढंग से इकट्ठा कर वैज्ञानिक तरीके से भी रिचार्ज करना होगा। पानी को जमा करने के लिए जगह-जगह कच्चे पक्के तालाब बनाने होंगे। रिसन तालाब के बनने से जलस्तर को गिरने से रोका जा सकता है। वाटर हार्वेस्टिंग जैसी तकनीक को भी गाँव स्तर पर अमल में लाने की ज़रूरत है। इस तरह अगर 15 से 20 फ़ीसदी भी बारिश का पानी सही ढँग से इकठ्ठा कर लिया जाए तो आने वाले जल संकट को काफ़ी हद तक टाला जा सकता है। इसके लिए सरकार के साथ ग्राम पंचायतों को भी जुटना होगा।
डॉ. सत्येंद्र पाल सिंह, मध्य प्रदेश के कृषि विज्ञान केंद्र, लहार (भिंड) के प्रधान वैज्ञानिक एवं प्रमुख हैं।