कटेहरी और बिलहटा (पन्ना), मध्य प्रदेश। पन्ना टाइगर रिजर्व के बफर क्षेत्र में स्थित कटेहरी और बिलहटा के आदिवासी गाँवों तक जाने के लिए यह एक खतरनाक सड़क है। ये आखिरी बस्ती है, इसके बाद मध्य प्रदेश के बाघ अभयारण्य का भीतरी हिस्सा शुरू हो जाता है।
मानसूनी बारिश के दौरान वहां पहुंचना लगभग असंभव है। कोई भी गाड़ी वन क्षेत्र में नहीं जा सकती क्योंकि पथरीली सड़कें दलदल में तब्दील हो चुकी होती हैं। गाड़ी ले जाने का मतलब है बीच रास्ते में कहीं फंस जाना और अगर ऐसा हुआ तो मदद के लिए कॉल करने का भी कोई तरीका नहीं है क्योंकि इस एरिया में कोई मोबाइल सिग्नल नहीं है।
लेकिन दो पड़ोसी आदिवासी गाँवों के 500 से ज्यादा लोगों के लिए यह रोजमर्रा की जिंदगी है। 60 साल की रामदुलैया अपने सिर पर दो प्लास्टिक के कंटेनर और एक हाथ से संतुलन बनाते हुए, झिरिया (एक स्थानीय जल स्रोत) से पानी लाने के लिए रोजाना घने जंगल से गुजरती हैं। बिलहटा गाँव के लोगों को लगभग दो किलोमीटर नीचे एक फिसलन, चट्टानी और खड़ी ढलान से नीचे पानी लाने के एक कुंड तक जाना होता है।
रामदुलैया ने अपील करते हुए कहा, “कृपया हमें गाँव में ही पानी दिलाने के लिए कुछ करें।” उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, “जब हम घने जंगलों से गुज़रकर झिरिया जाते है तो हमें नहीं पता कि किन जंगली जानवरों का सामना करना पड़ जाएगा, वहां बाघ, तेंदुए और भालू हैं जो घात लगाकर बैठे हुए रहते हैं।”
रामदुलैया के गाँव बिलहटा समेत तीन अन्य गाँव – कटेहरी, कोनी और मझौली – आदिवासी गाँव हैं जो कटेहरी-बिलहटा ग्राम पंचायत के अंतर्गत आते हैं। ये सभी बाघ अभयारण्य के कोर और बफर क्षेत्र की सीमा पर स्थित हैं। ये आदिवासी गाँव न सिर्फ पीने के पानी के लिए संघर्ष कर रहे हैं, बल्कि टाइगर रिजर्व के बफर जोन में होने के कारण बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं, पक्की सड़कों और बिजली जैसी सुविधाओं से भी वंचित हैं।
बिलहटा की 80 साल की निवासी कुसुम रानी ने गाँव कनेक्शन को बताया, “मेरे ससुर ने पानी ढूंढते हुए यह जगह खोजी थी और आज भी हम पानी लेने के लिए यहां आते हैं।” उन्होंने कहा कि चाहे नहाना हो, कपड़े धोना हो या घर के लिए पानी इकट्ठा करना हो, गाँव के लोग पूरे रास्ते जंगलों से होकर वहां आते थे।
इस साल की शुरुआत में मई में, गाँव कनेक्शन ने अपनी पानी यात्रा सीरीज के हिस्से के रूप में मध्य प्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व के आदिवासी गाँवों का दौरा किया था, वहां महिलाओं को भीषण गर्मी में पानी लाने के लिए मीलों लंबी पैदल यात्रा करती पड़ रही थी। मानसून आया और लगभग जाने को तैयार खड़ा है. लेकिन महिलाओं का संघर्ष कम नहीं हुआ है। आदिवासी गाँवों में लोग आज भी पानी के लिए तरस रहे है।
जल संकट
कटेहरी-बिलहटा ग्राम पंचायत के मुखिया चित्रभान यादव ने गाँव कनेक्शन को बताया, “बिलहटा में करीब 90 और कटेहरी में तकरीबन 50 घर हैं। दोनों गाँवों में कुल मिलाकर 530 लोग रहते हैं।” वन अधिकारियों के अलावा इन गाँवों में शायद ही कोई आता हो, जो उनका हालचाल ले सके।
चार आदिवासी गाँव – बिलहटा, कटेहरी, कोनी और मझौली – की कुल आबादी 1,600 है। इनमें से बिलहटा और कटेहरी के आदिवासी निवासी एक झिरिया से पानी लेते हैं, जबकि कोनी निवासियों के पास एक और झिरिया है। मझौली गाँव में हैंडपंप लगा है।
पानी का न होना शायद बफर जोन के आदिवासी गाँवों की सबसे बड़ी समस्या है। आमतौर पर यह महिलाएं, युवा, बूजुर्ग, कमजोर और यहां तक कि गर्भवती भी होती हैं। लेकिन घर के काम के अलावा इन्हें घरेलू जरूरतों के लिए पानी भी ढ़ोकर लाना है। वे हर दिन झिरिया तक जाने के लिए घने जंगल में बाघ, तेंदुआ, भालू और सांपों को बहादुरी से मुकाबला करती हैं। झिरिया ही इन ग्रामीणों का पानी का एकमात्र जरिया है।
मुसीबत यहीं खत्म नहीं हो जाती। पानी के नीचे के उसी स्रोत का इस्तेमाल जंगलों में रहने वाले जंगली जानवर भी करते हैं और वे अक्सर अपनी प्यास बुझाने के लिए वहां आते हैं।
बिलहाट के 65 वर्षीय निवासी राम सिंह राजगोंड ने गाँव कनेक्शन को बताया, “जहां तक मुझे याद है, हमारे गाँव के लिए पानी के स्रोत के रूप में हमारे पास केवल यही एक झिरिया है। यहां पानी का कोई अन्य स्रोत नहीं है ” उन्होंने आगे कहा, “राजनेता हमसे तभी मिलते हैं जब चुनाव नजदीक होते हैं। उसके बाद वे हमें कभी नजर नहीं आते।”
राम सिंह के मुताबिक वन विभाग ने झिरिया के चारों ओर पत्थर और सीमेंट के तटबंध बनाए थे ताकि वहां साल भर पानी बना रहे। अतिरिक्त पानी एक नाले के रूप में बह जाता है और यहीं पर गाँव वाले नहाते और कपड़े आदि धोते हैं।
राम सिंह ने बताया, “यह जंगलों के भीतर से आने वाले जंगली जानवरों के लिए भी पानी का स्रोत है। यहां बाघ, तेंदुआ और भालुओं को देखना काफी सामान्य है… ” वह मुस्कुराते हुए कहते हैं, “कभी-कभी जानवर अपनी प्यास बुझाने के बाद पानी के पास बैठ जाते हैं। हम उनसे डर तो लगता हैं, लेकिन अपनी प्यास भी तो बुझानी है।”
महिलाएं हमेशा समूह में पानी लेने जाती हैं। राम सिंह ने कहा कि अगर उन्हें कोई जंगली जानवर दिखाई देता है, तो वे चुपचाप पीछे हट जाती हैं।
कटेहरी-बिलहटा ग्राम पंचायत के एक पंचायत कर्मी चित्रभान यादव ने कहा, “कटाहारी और बिलहटा में हैंडपंप हैं। लेकिन उनमें से पानी नहीं आता है, यहां तक कि मानसून में भी नहीं, ” उन्होंने कहा कि ग्रामीणों के पास झिरिया जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
कोई सड़क नहीं
आदिवासी गाँव दुर्गम इलाके में हैं और अगर कोई बीमार पड़ जाए तो भी मदद के लिए मीलों दूर जाना पड़ता है।
उदाहरण के लिए, बिलहटा जिला मुख्यालय पन्ना से लगभग 70 किलोमीटर दूर है। यही वह दूरी है जो लोगों को सरकारी अधिकारियों से मिलने या वहां के कार्यालयों में जाने के लिए तय करनी होती है। बारिश होने पर, सब कुछ बंद हो जाता है। कटाहारी, बिलाहाट, कोनी और मझौली पूरी तरह से जलमग्न हो जाते हैं।
कॉलेज जाने वाली बिलहटा गाँव की इकलौती लड़की दीपा सिंह गोंड ने गाँव कनेक्शन को बताया, “हेल्थ इमरजेंसी में पास के स्वास्थ्य केंद्र जाने के लिए 25 किलोमीटर दूर अमनगंज जाना पड़ता है।” उनका कॉलेज 50 किलोमीटर दूर है और वह डिस्टेंस लर्निंग के जरिए अपनी पढ़ाई पूरी कर रही हैं।
वह आगे कहती हैं, “यहां तक कि पास की सड़क तक पहुंचने के लिए जंगल से गुजरते हुए आठ से दस किलोमीटर की दूरी तय करनी होती है। गाँव में कोई गाड़ी नहीं आ सकती क्योंकि सड़कें खराब हैं।’ उन्होंने कहा कि अगर किसी को फोन करना है, तो सिग्नल के लिए पेड़ों पर चढ़ना पड़ता है।
कोई स्वास्थ्य सुविधा नहीं, उच्च शिशु मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर
पन्ना टाइगर रिजर्व के बफर एरिया में करीब 14-15 गाँव हैं, और इनमें से दस आदिवासी गाँव हैं। इन्हीं गाँवों में कटाहारी, बिलहटा, कोनी और मझौली शामिल हैं। पन्ना में मातृ और शिशु स्वास्थ्य पर काम करने वाली एक पहल प्रोजेक्ट कोशिका की सहायक समन्वयक नीता राहुल ने गाँव कनेक्शन को बताया कि इन आदिवासी गांवों का माताओं और शिशुओं के स्वास्थ्य के मामले में निराशाजनक रिकॉर्ड है।
राहुल ने गाँव कनेक्शन को बताया, “हम 2018-19 से इन गाँवों में शिशु मृत्यु दर को कम करने की कोशिश कर रहे हैं। ये गाँव बेहद पिछड़े हुए हैं।”
केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (2019-2021) के अनुसार मध्य प्रदेश में शिशु मृत्यु दर 41.3 है (तालिका देखें)। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (2015-2016) में यह 51.2 थी. शिशु मृत्यु दर प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर शिशु की होने वाली मौत की संख्या है।
2015 में नीति आयोग ने बुंदेलखंड मानव विकास रिपोर्ट 2012 प्रकाशित की थी। इस रिपोर्ट के अनुसार, पन्ना में शिशु मृत्यु दर (2012-13) राज्य में सबसे अधिक थी – प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर 85 मृत्यु। इसी तरह जिले में 127 बाल मृत्यु दर राज्य में सबसे अधिक थी।
क्षेत्र में मातृ मृत्यु दर (एमएमआर) भी काफी ज्यादा है. 2012 की रिपोर्ट के अनुसार, मध्य प्रदेश के सागर डिवीजन में एमएमआर, जिसमें टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, सागर और दमोह जिले शामिल हैं, मातृ मृत्यु दर (2012-13) में 322 थी! यह राज्य के औसत एमएमआर 227 से कहीं अधिक थी।
प्रति एक लाख जीवित बच्चों के जन्म पर होने वाली माताओं की मृत्यु को मातृत्व दर मृत्यु (MMR) कहते हैं। इसका इस्तेमाल महिलाओं में गर्भावस्था से जुड़े जोखिम जानकारी रखने के लिए किया जाता है।
इस क्षेत्र में उच्च शिशु मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर का कारण अविकसित पिछड़े आदिवासी गाँव हैं, जिनके पास कोई स्वास्थ्य बुनियादी ढांचा मौजूद नहीं है।
राहुल ने कहा, “कटहरी और बिलहटा का निकटतम सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र अमनगंज है जो 25 किलोमीटर दूर है और पन्ना में जिला मुख्यालय 70 किलोमीटर दूर है।” उन्होंने कहा कि बमुश्किल ही कोई सड़क हैं। पिछले चार सालों से प्रोजेक्ट कोशिका गाँव के लोगों को अमनगंज तक पहुंचने में मदद करने के लिए काम कर रही है ताकि उन्हें चिकित्सा सहायता मिल सके।
उन्होंने कहा, “पहले जब महिला को अपने बच्चे को जन्म देना होता था, तो कोई संगठित मदद नहीं थी। ज्यादातर डिलीवरी घर पर हुई हैं। लेकिन अब चीजें बदल रही हैं और प्रोजेक्ट कोशिका मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता फैला रही है। और महिलाओं की मदद कर रही है।”
गाँव कनेक्शन ने जब पन्ना जिले के मुख्य कार्यकारी अधिकारी पीएल पटेल से संपर्क किया तो उन्होंने कहा, कटाहारी और बिलहटा राजस्व गांव हैं और इन्हें प्रधानमंत्री सड़क योजना से जोड़ा जाना चाहिए। लेकिन ये गांव घने जंगलों से घिरे हैं, इसलिए हमें सड़क बनाने के लिए वन विभाग से अनुमति नहीं मिल पा रही है।
पानी के मुद्दे पर बोलते हुए पटेल ने कहा, “अतीत में हमने बोरवेल खोदे थे, लेकिन पानी नहीं मिला। हमें पंचायत क्षेत्र में कुछ ऐसे पॉइंट मिले हैं जहां पानी मिलने की संभावना है।
उन्होंने आगे बताया, “क्योंकि इन गाँवों में बिजली की आपूर्ति नहीं है, इसलिए सौर जल आपूर्ति प्रणाली स्थापित करने का प्रस्ताव है। इसके लिए छतरपुर जिले में स्थित अक्षय ऊर्जा कार्यालय को राशि भेज दी गई है।
आधिकारिक फाइलें और फंड एक विभाग से दूसरे विभाग में घूम रहीं है, बिना इस बात का अंदाजा लगाए कि 60 साल की रामदुलैय्या को अपने परिवार के लिए पानी लाने के लिए घने जंगल से गुजरते हुए रोजाना किन परेशानियों से जूझना पड़ रहा है।