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विश्व रेडियो दिवस: तकनीकी बदलावों पर रेडियो की जीत

रेडियो पर विनाश का संकट हमेशा से मंडराता रहा है - पहले टेलीविजन था और अब डिजिटल की लहर। लेकिन रेडियो लोगों के दिन-प्रतिदिन के जीवन में प्रासंगिक बने रहने के नए तरीके खोजता रहा है।
#World Radio Day

फिलहाल टीवी को पीछे छोड़ दें, वह पुराने जमाने की बात हो गई है। इस कतार में YouTube और Insta Reels नए हैं। व्हाट्सएप चैट ग्रुप जैसा मीडिया भी हम पर लगातार हमला करता रहा है। आज भारतीयों के पास वीडियो और टेक्स्ट विकल्पों की भरमार है। ये जानकारी देने और मनोरंजन करने के हैरान कर देने वाले तरीके हैं, जो लोगों के दिलो-दिमाग पर पूरी तरह से छाए हुए हैं।

लेकिन इस सब के बावजूद लोग रेडियो से दूर नहीं हुए हैं। कंज्यूमर इनसाइट फर्म टोलुना की तरफ से किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक, ‘लोग रेडियो को सुन रहे हैं और उसे पसंद कर रहे हैं। ऐसे लोगों की तादात टीयर II और टीयर III शहरों में काफी ज्यादा है।’

यह खबर हम जैसे बहुत से लोगों के लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है, जो दो दशकों से सामुदायिक रेडियो (सीआर) के साथ जुड़े हुए हैं।

2000 के दशक की शुरुआत में जब सर्वोच्च न्यायालय ने भारत के एयरवेव्स को सार्वजनिक संपत्ति घोषित किया, तो इसका समर्थन करने वाले कई समूहों ने समुदायों के साथ मिलकर एक नीति की जरूरत को स्पष्ट करने के लिए काम किया, जिसने स्थानीय रेडियो लाइसेंसों को नागरिक समाज के लिए उपलब्ध होने में सक्षम बनाया. इन प्रयासों में हमारा Ide sync Media Combine भी शामिल था।

देश भर में 350 से ज्यादा सामुदायिक रेडियो स्टेशन हैं। इनमें से कई का प्रबंधन और संचालन कार्य समुदाय के सदस्यों की ओर से किया जाता रहा है।

वक़्त की आवाज़ के एक सामुदायिक रिपोर्टर हरि पांडे बताते हैं, “शायद ही कोई अन्य मीडिया हो, जहां अस्सी फीसदी कंटेंट समुदाय की सीधी भागीदारी के जरिए आता है। कम्युनिटी रेडियो वक़्त की आवाज़ एक ऐसा रेडियो स्टेशन है जहां प्रसारित होने वाले हर कार्यक्रम में सामुदायिक भागीदारी का एक तत्व मौजूद होता है।”

हरि ने स्थानीय सामुदायिक रेडियो के साथ एक दशक से अधिक समय तक काम किया है। वह सीआर स्टेशन के काफी करीब एक गाँव से आते है। पहले वह एक नियमित श्रोता थे। फिर उन्होंने स्टेशन पर ब्रॉडकास्टर बनने के लिए बाकायदा प्रशिक्षण लिया और उसके साथ जुड़ गए। 

देश भर में 350 से ज्यादा सामुदायिक रेडियो स्टेशन हैं। इनमें से कई का प्रबंधन और संचालन कार्य समुदाय के सदस्यों की ओर से किया जाता रहा है। कानपुर देहात में स्थिति वक्त की आवाज़ रेडियो स्टेशन। फोटो: राधा शुक्ला

देश भर में 350 से ज्यादा सामुदायिक रेडियो स्टेशन हैं। इनमें से कई का प्रबंधन और संचालन कार्य समुदाय के सदस्यों की ओर से किया जाता रहा है। कानपुर देहात में स्थिति वक्त की आवाज़ रेडियो स्टेशन। फोटो: राधा शुक्ला

हालांकि इस सच को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि ग्रामीण भारत में 34.1 प्रतिशत महिलाएं और 18.5 प्रतिशत पुरुष निरक्षरता का सामना कर रहे हैं। लेकिन ऐसे समय में जब इंटरनेट के जरिए स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था, बैंकिंग और बुनियादी ढांचे के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्रसारित की जा रही है, तो इस सच से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में 75.4 फीसदी महिलाओं और 51.3 फीसदी पुरुषों ने कभी इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं किया है। तो वहीं शहरी क्षेत्रों में इंटरनेट का इस्तेमाल न करने वाली महिलाओं की प्रतिशत 48.2 फीसदी है और पुरुषों प्रतिशत 27.5 है। ऐसे में स्थानीय बोलियों में प्रसारित होने वाला मौखिक माध्यम यानी रेडियो जीवन रेखा की तरह है।

भारत को समावेशी बनाना

कई सामुदायिक रेडियो स्टेशनों ने ऐसे कार्यक्रम शुरू किए हैं जो समुदायों को ऑनलाइन दुनिया से जोड़ने के लिए एक विंडो की तरह काम करते हैं। स्थानीय भाषाओं और बोलियों में इंटरनेट पर उपलब्ध सूचना और जानकारी को आम लोगों तक पहुंचाने के लिए इनोवेटिव ब्रॉडकास्ट तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है। इस तरह से उनके श्रोताओं को डिजिटल दुनिया से अलग-थलग रखने वाली चुनौतियों से उबरने में मदद मिलती है जो भारत में आज भी बनी हुई है।

सामुदायिक रेडियो स्टेशन भी इंटरनेट स्ट्रीमिंग ऑडियो, सोशल मीडिया लाइव वीडियो कास्ट, सामुदायिक जुड़ाव और सामुदायिक रेडियो पत्रकारों द्वारा किए गए फील्ड रिकॉर्डिंग सत्रों जैसे नए तरीकों को अपना रहे हैं, ताकि पार्टिसिपेटरी मीडिया में अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकें और उसमें अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर सकें। हेनवल वाणी की आरती ने कहा, “हमारा काम हर श्रोता तक पहुंचना है और हमारा कम्युनिटी रेडियो तकनीकों की परवाह किए बिना ऐसा करने का प्रयास कर रहा है।”

खेत में काम कर रही स्थानीय महिलाओं से बातचीत को रिकॉर्ड करती आरती बिष्ट। यह तस्वीर तब ली गई थी जब आरती ने अपनी रेडियो यात्रा शुरू ही की थी। आज वह  हेंवलवाणी में एक लोकप्रिय रिपोर्टर हैं और अपने काम में माहिर हैं। वह रेडियो स्टेशन का प्रबंधन भी करती हैं।

खेत में काम कर रही स्थानीय महिलाओं से बातचीत को रिकॉर्ड करती आरती बिष्ट। यह तस्वीर तब ली गई थी जब आरती ने अपनी रेडियो यात्रा शुरू ही की थी। आज वह हेंवलवाणी में एक लोकप्रिय रिपोर्टर हैं और अपने काम में माहिर हैं। वह रेडियो स्टेशन का प्रबंधन भी करती हैं।

भारत हमेशा से मौखिक परंपराओं का देश रहा है। भारत में 22 अलग-अलग आधिकारिक भाषाएं हैं। यह कुल 121 भाषाओं और 270 मातृभाषाओं का घर है। इससे इंटरनेट पर क्षेत्रीय विविधता का सवाल खड़ा होता है। हमारा मौखिक इतिहास गहरा है और इसमें पारंपरिक ज्ञान, सांस्कृतिक यादों और लोक कथाओं का जादू है।

अल्फाज ए मेवात की पूजा मुराद कहती हैं, “अल्फ़ाज़-ए-मेवात में हम महिलाओं, विशेष रूप से खेतिहर मजदूरों के साथ जुड़ते हैं। उनके द्वारा किए जाने वाले काम, उनकी समझ और ज्ञान को समुदाय में कभी कोई तवज्जो नहीं मिली है। इसके अलावा हम दम तोड़ रही मिरासी लोक कला को फिर से जिंदा करने और साझा करने का काम भी कर रहे हैं।”

एक नारीवादी माध्यम

रेडियो महिलाओं को सत्ता के सामने अपनी सच्चाई लाने में सक्षम बनाता है। एक ऑडियो माध्यम के तौर पर, अगर जरूरी हुआ हो तो यह उनकी पहचान को सुरक्षित रखता है, उनकी आवाजों, आख्यानों और अनुभवों को बढ़ाकर उन्हें सशक्त बनाता है।

रेडियो हमेशा एक आधुनिक माध्यम रहा है। अगर कहें कि यह लोगों को मल्टीटास्किंग बनाने में सक्षम है, तो गलत नहीं होगा। लोग खाना बनाते, खेती करते, गाड़ी चलाते और काम करते हुए भी रेडियो सुन सकते हैं।

स्थानीय बोलियों में स्थानीय लोगों की आवाज़ के साथ स्थानीय सीआर प्रसारण से समुदाय खुद को उससे जोड़ लेता है। वह उसके रोजाना के कामों का एक हिस्सा बन जाता है। उनकी एजेंसी स्थानीय नागरिकों के इस कनेक्शन को और सशक्त व सक्षम बना रही है।

हेनवल वाणी की आरती बिष्ट ने मुझे बहुत गर्व के साथ बताया, “हमारा सामुदायिक रेडियो हमारे स्थानीय लोगों की आवाज़ है। उन्हें रेडियो से जुड़कर आजादी का अहसास होता हैं। जब वे हमारे रेडियो में कॉल करते हैं, तब वे खुद को अभिव्यक्त करने और अपनी राय व्यक्त करने में सक्षम होते हैं।” वह आगे कहती हैं, “हमारे समुदाय से कोई भी हमारे रेडियो स्टेशन में शामिल हो सकता है और ब्रॉडकास्टर बनने की ट्रेनिंग ले सकता है।”

हम विश्व रेडियो दिवस मनाते हैं। हमें गर्व है कि रेडियो समुदायों के जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। लेकिन हमें यह भी याद रखना चाहिए कि शायद हम दुनिया के उन एकमात्र लोकतंत्रों में से एक हैं जहां रेडियो पर समाचारों की अनुमति नहीं है।

स्थानीय लोगों के जीवन में इस तरह के जरूरी और खास माध्यम को उन अधिकारों के साथ मजबूत किया जाना चाहिए जो एक आजाद और लोकतांत्रिक देश में हर मीडिया का हक होता है.

हमने इस रेडियो दिवस पर स्थानीय बोलियों में स्थानीय आवाज़ें सुनी हैं, आइए हम एक ऐसे सामुदायिक रेडियो की कल्पना करें जो एक स्वतंत्र स्थानीय मीडिया के रूप में अपनी पूरी क्षमता के साथ खड़ा है, जो सत्ता में बैठे लोगों को किसी भी स्वतंत्र मीडिया की तरह जवाब देने में सक्षम है। दिल को छू लेने वाले स्थानीय गीत, संगीत, स्वास्थ्य व शिक्षा, काम और आजीविका पर जानकारी के अलावा स्थानीय समाचारों और विचारों को निडरता से प्रसारित करने में सक्षम हो, जो वो पहले से ही करता आया है।

वेणु अरोड़ा कम्युनिकेशन फॉर सोशल चेंज पेशेवर, शोधकर्ता, प्रशिक्षक और फिल्म निर्माता हैं और इस क्षेत्र में पिछले 20 सालों से काम कर रही हैं। वह Ideosync Media Combine की सह-संस्थापक हैं, जो दिल्ली के NCR में स्थित एक कम्युनिकेशन फॉर सोशल चेंज ऑर्गेनाइजेशन है। यह लेख विलेज स्क्वायर की तरफ से आया है। विचार व्यक्तिगत हैं।

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