'चिकन कढ़ाई करते हैं इसलिए पति से पैसे नहीं मांगते'

मेरी ज़िन्दगी का एक दिन: चिकन कारीगरी की कहानी

Deepanshu MishraDeepanshu Mishra   2 Feb 2019 6:30 AM GMT

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लखनऊ। लखनऊ की कशीदाकारी का उत्कृष्ट नमूना है चिकन और लखनवी ज़रदोज़ी यहाँ का लघु उद्योग है, जो कुर्ते और साड़ियों जैसे कपड़ों पर अपनी कलाकारी की छाप चढ़ाते हैं। अब लखनऊ शहर तक ही सीमित नहीं है, बल्कि लखनऊ और आसपास के अंचलों के गाँव-गाँव तक फैल गई है।

लखनऊ के बख्शी का तालाब ब्लॉक के सोनवा गाँव में रहकर पिछले 20 वर्षों से चिकन कढ़ाई का थोक में काम करने वाले रहीश अली बताते हैं, "हम चिकन की कढ़ाई और सिलाई दोनों करवाते हैं। दुकानदार कपड़ा खरीद कर और उस पर छपाई कराकर हमें देते हैं, फिर हम उस पर कम दामों पर कढ़ाई करवाते हैं। कढ़ाई करवाने के लिए हम कपड़ों को गाँव की महिलाओं को देते हैं और फिर वो कढ़ाई करके हमें कपड़ा वापस देते हैं।"

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"महिलाओं को कढ़ाई करने के लिए हम 50 से लेकर 200 रुपये तक देते हैं। इस तरह हमारी एक महीने की आमदनी 12,000 रुपये तक होती हैं। जैसे एक कुर्ता तैयार होने में लगभग 300 तक खर्चा आता है और बाजार में वो 500 सेलेकर 5000 तक रुपये तक का बिकता है।" रहीश अली बताते हैं, "अब हाथ से की जाने वाली कढ़ाई धीरे-धीरे कम हो रही है क्योंकि कंप्यूटर से कढ़ाई होने लगी है इसलिए हम तो हाथ वाली कढ़ाई बंद कर रहे हैं। कंप्यूटर से कढ़ाई होनेसे हम लोगों का धंधा बंद होने लगा है।"

लखनऊ के साथ चिकन कारोबार से आसपास के सैकड़ों गाँव भी जुड़े हुए हैं। चिकन पर कारीगारी, धुलाई, रंगाई-कढ़ाई का 80 प्रतिशत काम इन्हीं ग्रामीण इलाकों में ही होता है। इनमें महिलाओं की संख्या अधिक है। इस हस्तशिल्पउद्योग का एक खास पहलू यह भी है कि उसमें 95 फीसदी महिलाएं हैं।

सोनवा गाँव की रहने वाली आशमा, जो कि कढ़ाई का काम करती हैं, बताती हैं, "हम पिछले चार सालों से कढ़ाई का काम कर रहे हैं। कढ़ाई का कपड़ा देने के लिए लोग आते हैं हमारा नाम लिखते हैं और कपड़ा दते हैं, कपडे पर कढ़ाई होजाने के बाद कपड़ा वापस ले लेते हैं और पैसा दे देते हैं। एक कुर्ते का 100-200 रुपये तक मिल जाता है। करीब एक कुर्ता बनाने में कम से कम तीन दिन का समय लग जाता है।"

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"कढ़ाई का जो पैसा मिलता है उससे जब हम बाजार जाते हैं तो खरीदारी करते हैं। कढ़ाई के पैसों से बच्चों के कपड़े अपने लिए कपड़े चूड़ी सब लाते हैं। कढ़ाई से आँखों के ऊपर बहुत असर पड़ता है, लेकिन चश्मा नहीं लगवाते हैं क्योंकिसब हंसने लगते हैं।"आशमा हंसते हुए बताती हैं।

इस उद्योग का ज़्यादातर हिस्सा पुराने लखनऊ के चौक इलाके में फैला हुआ है। यहां के बाज़ार चिकन कशीदाकारी के दुकानों से भरे हुए हैं। मुर्रे, जाली, बखिया, टेप्ची, टप्पा आदि 36 प्रकार के चिकन की कढ़ाई होती हैं।

"हमारे गाँव में हर घर की महिला कढ़ाई का काम करती है। कढ़ाई करने से फायदा ये है कि अगर पति घर पर नहीं है तो हम अपने खर्चे से घर चला लेते हैं। कभी पति के पास पैसा नहीं हुआ तो हम पति को भी पैसे देते हैं। अपने घर मेंबैठकर काम करने लगे लगे हैं उससे पहले इधर-उधर बैठे रहते थे। पति के सहारे बैठे रहते थे।"उसी गाँव में रहने वाली नाजिया ने बताया।

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